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शिवा की चार कविताएं- 'तजुर्बा नहीं था हमें मगर, ठेस जो लगी तो चट्टान हो गई'

शिवा की कविताएं समाज और परिवार के बंधनों में छटपटाती एक स्त्री के अंतर्मन की दास्तां हैं.

शिवा की कविताएं समाज और परिवार के बंधनों में छटपटाती एक स्त्री के अंतर्मन की दास्तां हैं.

शिवा एक प्रखर युवा कवियत्री हैं. इनकी कविताओं में स्त्री मन के दर्द और पीड़ा को बखूबी महसूस किया जा सकता है. शिवा ने दि ...अधिक पढ़ें

    बदल गए हैं अब हम भी कुछ
    अब शायद ही पहचान में आएंगे।

    जो छूट गए थे मुझसे कुछ
    अब गुजरे जमाने के हो जाएंगे।

    बंद कर लिए दरवाजे जो दिल के
    अब शायद ही खुल पाएंगे।

    उड़ गए जो पंछी पिंजड़े से
    वो शायद ही लौट कर आएंगे।

    जो बीत गई सो बात गई
    अब क्या वो बात बनाएंगे।

    अब रीत यही तो क्या कहना
    जो आए है, वो वापस ही जाएंगे।

    बड़ा आसान जान पड़ता है
    चाहतों की बातें करना
    उन चाहतों को सच करने का
    जहमत क्यों उठाएंगे।

    भाग खड़े हुए जो मुसीबतों को देखकर
    ज़िन्दगी को वो क्या मुंह दिखाएंगे।

    बदल गए हैं हम भी कुछ
    अब शायद ही पहचान में आएंगे।।

    अंतर्मन

    अपनी ही की गई बातों पर पछताता है
    ये मिजाज भी कहां एक सा स्थिर रह पाता है

    कुछ तो बहुत अलग सा है, अपने भीतर ही
    ये दिल भीड़ में भी खुद को तनहां ही पाता है

    ऐसा क्यूं हुआ, वो वैसा क्यूं नही हुआ?
    हर वक्त ये इसी सोच में खुद को गंवाता है

    ये दुनिया चलती है सिर्फ उसी के इशारों पर
    ये सोच भी अपना नज़रिया कहां बदल पाता है

    हिस्से में क्या आए, क्या जाए, हिसाब किसी के पास नही
    फिर क्यूं ये मुट्ठी भींच कर ये खुद को रूलाता है।

    बात

    उसने कह ही कुछ ऐसे दिया
    कि दिन में रात हो गई

    बाहर तो सर्द हवा थी
    मगर आंखों में बरसात हो गई

    तजुर्बा नहीं था हमें मगर
    ठेस जो लगी तो मैं चट्टान हो गई

    ज्यादा तो नहीं, लेकिन फिर आज
    मैं बेबाक हो गई

    इंतहा हो रही है मैं अब करु भी तो क्या
    ज़माने में कुछ ऐसी बात ही शर्मनाक हो गई

    अपने ही कुचलते हैं अपनों को
    आज ये बात खुलेआम हो गई

    खुदा ने बनाए ही बंदे ऐसे कि
    आंखों के सामने ही रिश्तों में कत्लेआम हो गई

    कहां से बनाएं फिर वही भरोसे की मकान
    जो आज ढह कर फिर शमशान हो गई

    मैंने कहा जो था, मत कर आदर्श की बातें
    धज्जी जो आदर्श की उड़ी तो सरेआम हो गई

    उसने कह ही कुछ ऐसे दिया
    कि दिन में ही शाम हो गई।

    क्या करूं अपने इस वजूद का

    क्या करूं अब मैं अपने इस झूठे वजूद का
    कोई मोल है क्या अब इस दिखावे के साथ का?

    ठगी हुई सी सांसें मेरी
    मेरे अंतस को चुभती हुई
    हर पल मुझे चीरती हुई, छिलती हुई सी चलती है
    जैसे धड़कनों के बीच कोई अंगार हो रखा।

    क्या करूं मैं अपने बेमानी जीवन को ढोकर,
    कोई मोल है क्या, इस रिश्ते के प्रतीक का
    इस चूड़ी, इस बिंदी, इस सिंदूर, इस लिबास का
    हर क्षण कलेजे सालता हुआ ये वक़्त
    कैसे जिऊं मैं इनके आतंक तले

    मन की गहराई पर जो घाव है दबा
    कैसे सहूं इस भयंकर वेदना को
    कोई मोल है क्या?
    दर्द में दम तोड़ती मेरी जीने की
    इच्छा और अभिलाषाओं का ?
    क्या करूं मै अपने इस बेमानी जीवन का
    क्या करूं अपने इस वजूद का?

    Tags: Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Literature, Poem

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