सुदामा पांडेय 'धूमिल' की कविताओं में आजादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है.
सुदामा पांडेय धूमिल कुछ उन रचनाकारों में हैं, जिन्होंने अपने जीवन के चार दशक भी नहीं पूरे किये, लेकिन पूरे दौर को आवाज दिया. सदियों के लिए लिख गए. आस-पास की हकीकत को देखा, समझा. लेकिन लिखा तो बर्जनाओं के बाहर जाकर ही. कविताएं भी आग जैसी, जिनकी तपिश आज तक कम नहीं हुई. पढ़ने वालों का ये भी कहने का मन होता है कि जब तक चेतना रहेगी इन कविताओं का ताप कम होगा भी नहीं. उनकी कविताओं की दो- चार लाइनें ही पूरे मंजर को सामने ला देती हैं. संदर्भ बिल्कुल साफ कर देती हैं. क्रांति के और भी कवि हुए हैं. अपने परिवेश पर उन्होंने भी खूब रचनाएं की हैं. लेकिन ऐसी ज्यादातर रचनाएं किसी खास खांचे में चली जाती हैं. जबकि धूमिल का लिखा आम आदमी से सीधे जुड़ा दिखता है. हासिए पर जी रहे लोगों की परेशानी बयान करता है.
आस-पास हो रही घटनाओं को बहुत शिद्दत से धूमिल ने महसूस किया. समकालीन कविताओं में तरह-तरह के प्रयोग हो रहे थे, लेकिन जीवन की कठिनाइयों, दुरुहता को तंज के साथ उकेरने वाले शब्द धूमिल दे रहे थे. ‘मोचीराम’ की आवाज धूमिल की कविता में ही सुनाई दी. ऐसा लगता है, धूमिल की ही तरह उनका मोचीराम भी सीधे कह देता है –
वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ- मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है.
और खास बात ये कि मोचीराम ठीक से समझ और समझा भी रहा है कि उसके लिए न कोई छोटा है न कोई बड़ा है. इसमें वो दीन-हीन भी नहीं दिखता.
दूसरे कवियों की बात की जाए तो बाबा नागार्जुन जरूर भदेस शब्दों, प्रतीकों और लोक को अपनी रचना में लेकर चल रहे थे, लेकिन धूमिल का भदेसपन उन्हें पांत के दूसरे रचनाकारों से अलग खड़ा करता है. ऐसा लगता है कि हर शास्त्रीयता और बंधन से अलग हो कर धूमिल जो भी लिख रहे थे, वह सीधे पढ़ने वाले के मन में उतर जाता है. ये उनका युगबोध ही था कि आज भी सभाओं- गोष्ठियों में धूमिल को जरूर याद किया जाता है –
न कोई प्रजा है
न कोई तंत्र है
ये आदमी के खिलाफ
आदमी का खुला सा
षडयंत्र है.
ये भी अहम है कि धूमिल ने बहुत से रचनाकारों की तुलना में कम लिखा. लेकिन जो लिखा वह लोगों के दिल-दिमाग में छप गया. उनके जीते जी उनका सिर्फ एक काव्य संग्रह 1972 में आया था- ‘संसद से सड़क तक.’ जबकि बाकी दो संग्रह, उनके इस संसार से जाने के बाद छपे. 1977 में ‘कल सुनना मुझे’, फिर आठवें दशक में ‘सुदामा पांडेय का प्रजातंत्र’ छपा. ‘संसद से सड़क तक’ में दरअसल, उनकी वो कविताएं है जो भ्रष्टाचार और भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था पर जोरदार तंज करती हैं. कल सुनना मुझे में आशावाद तो है लेकिन धूमिल के ही अंदाज में. जबकि तीसरे संग्रह में अलग अलग विषयों को लेकर उभरे आक्रोश को जगह दी गई है. इसमें अधिक विविधता है.
कविता को लेकर तरह-तरह की परिभाषाएं गढ़ी और बताई जाती हैं. अकादमिक लेबल पर बात की जाए तो बहुत सारी शास्त्रीय परिभाषाएं भी दी जाती हैं. लेकिन धूमिल ने जिस तरह से सीधी बात कही वह बहुत अहम है. उन्होंने सीधा कहा है कि ‘एक सही कविता पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है’. ये अलग बात है कि धूमिल का अंदाजे बयां हमेशा कुछ ऐसा रहा जो व्यवस्था को झकझोरने वाला है. ‘संसद से सड़क तक’ की ‘कुत्ता’ शीर्षक की कविता में वे लिखते हैं –
मगर मत भूलो कि इन सबसे बड़ी चीज़
वह बेशर्मी है
जो अन्त में
तुम्हें भी उसी रास्ते पर लाती है
जहाँ भूख
उस वहशी को
पालतू बनाती है।
यहां ये भी याद दिलाना वाजिब होगा कि धूमिल की कविताएं राजनीतिक नारों की तरह नहीं हैं. बल्कि किसी आंदोलन जैसी हैं. जिनके पास पूरी अवधारणा और कथ्य है. हो सकता है इस खासियत के पीछे लोक से उनका सीधा जुड़ाव और खुद का भोगा यथार्थ हो. उनकी पूरी रचना में लोक की अभिव्यक्ति ही रही है. उनका अपना संघर्ष भी इसे और मजबूती देता है. पढ़ाई के बाद धूमिल बनारस से कलकत्ता गए थे. नौकरी करने. वहां नौकरी देने वाले की कोई छोटी-सी बात धूमिल को लग गई. नौकरी देने वाले को टका सा जवाब देकर वे लौट आए. फिर बनारस में ही नौकरी मिली. वहां भी व्यवस्था ने उन्हें लगातार परेशानियां ही दीं. एक कविता ‘न्यू गरीब हिंदू होटल’ में वे लिखते हैं –
रोटी खरी है बीच में
पर किनारे पर कच्ची है
सब्ज़ी में नमक ज़्यादा है
पता नहीं होटल के मालिक का पसीना है या
‘महराज’ के आँसू
दरअसल, बनारस के परिवेश ने भी उन पर खूब असर डाला था. ये काशी ही है जहां अक्खड़ होना, फक्कड़ होना गुण माना जाता है. उनकी ये विशेषता उनके जीवन और कविता दोनों में रही. तभी तो उनकी कविताएं सिर्फ अक्षर भर नहीं, जिन्हें जोड़-घटा कर सजा दिया और रच दिया. एक दफा वे दो दिन के लिए दिल्ली आए थे. उसके बाद अपने मित्र और साहित्यकार काशीनाथ सिंह को धूमिल ने एक पत्र लिखा. पत्र में उन्होंने लिखा कि दिल्ली रोजगार के लिए भले ठीक हो, लेकिन यहां (दिल्ली में) आदमी धार खो देता है. लगता है ये धार ही थी, जिसने उनकी कविताओं को भी वो पैनापन दिया जो नश्तर-सा लगती हैं. 9 नवंबर, 1936 को बनारस के पास एक गांव में जन्मे धूमिल को दिमाग में ट्यूमर के कारण बीएचयू अस्पताल में भर्ती कराया गया. वहां से उन्हें लखनऊ ले जाया गया. जहां 10 फरवरी, 1975 को उनका निधन हो गया. अस्पताल में रहते हुए उन्होंने अपनी आखिरी कविता लिखी–
शब्द किस तरह कविता बनते हैं इसे देखो,
अक्षरों के बीच गिरे हुए आदमी को पढ़ो.
क्या तुमने सुना कि यह लोहे की आवाज है
या मिट्टी में गिरे हुए खून का रंग.
कविता में विद्रोह रचने वाले इस कवि की रचनाएं हर उस काल में गूंजती रहेंगी जब भी व्यवस्था, लोक आकांक्षा पर भारी पड़ेगी. उनके शब्द हमेशा मजलूम की आवाज और संघर्ष के लिए ताकत की घुट्टी बनी रहेगी.
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है.
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