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कविता के आस्‍वादन की नई दुनिया है तजेंद्र सिंह लूथरा का 'एक नया ईश्‍वर'

आईपीएस अधिकारी तजेंद्र सिंह लूथरा का नया कविता संग्रह 'एक नया ईश्‍वर' वाणी प्रकाशन से छपकर आया है.

आईपीएस अधिकारी तजेंद्र सिंह लूथरा का नया कविता संग्रह 'एक नया ईश्‍वर' वाणी प्रकाशन से छपकर आया है.

कविता यदि आईपीएस कैडर के किसी अधिकारी की प्राथमिकता सूची में है तो निश्‍चित मानिए यह प्रशासनिक मशीनरी के लिए अच्‍छी बात ...अधिक पढ़ें

(डॉ. ओम निश्‍चल/ Om Nishchal)

इस बार विश्‍व पुस्‍तक मेले में तजेंद्र सिंह लूथरा की कविताओं की एक नई पुस्‍तक के लोकार्पण कार्यक्रम में शरीक होने, उसे पढ़ने और उस पर बात करने का सुयोग मिला. लूथरा धीरे-धीरे ऐसे मित्र हो चले हैं कि उनकी कविताओं से छन कर आती उनके व्‍यक्‍तित्‍व की आभा मुझे भाती है. कविता को लेकर उनसे मेरी अक्‍सर बातें होती हैं. उनका शब्‍द संयम मुझे खींचता है कि जब इतना सारा कुछ कहने की होड़ में आज की कविता लगी हुई हो, यह कवि बहुत थोड़े से शब्‍दों से अपनी बात कहने में ज्‍यादा सुकून महसूस करता है.

लूथरा साब के कवित्‍व की शुरुआत की भी एक कहानी है. लगभग पंद्रह साल का वक्‍फा हो गया उन्‍हें लिखते हुए. पहली कविता उन्‍होंने 2008 में 26/11 के मुंबई आतंकवादी हमले के बाद तमाम पुलिसकर्मियों और नागरिकों के शहीद होने के बाद लिखी थी. वह कविता अस्‍तित्‍व के सवालों से भरी थी. आखिर इन पुलिसकर्मियों और नागरिकों के बलिदान के क्‍या मायने हैं हमारे समय में. तभी एक रात उनके भीतर से एक कविता उमड़ पड़ी थी- ‘मैं आभारी हूं आपका.’ इस तरह एक पुलिस आफिसर एक कवि में तब्‍दील हो गया था. गाहे ब गाहे कविता लिखने की इस जरूरत के साथ ही उनकी निरंतरता रंग लाई और पहले कविता संग्रह ‘अस्‍सी घाट का बांसुरीवाला’ के बाद हाल ही में उनका नया संग्रह आ गया है ‘एक नया ईश्‍वर’. कहना न होगा कि हमारे समय के अनेक कवियों, समीक्षकों ने उन्‍हें समय-समय पर पढ़ा और सराहा है.

तजेंद्र सिंह लूथरा मानते हैं कि कवि को भी लिखना कम चाहिए, पढ़ना ज्‍यादा. अच्‍छे लेखक के लिए अच्‍छे पाठक का होना भी जरूरी है. वे भी इसी आपद्धर्म के कवि हैं जब विचलित करने वाली घटनाएं उनसे कविताएं लिखवा लेती हैं. उनके लिए यह संवाद का साधन भी है, आत्‍मपरीक्षण का भी. यह जीवन की मीमांसा करने की प्रक्रिया भी है. कविता समसामयिक तो हो पर इतनी तात्‍कालिक नहीं कि जल्‍दी ही अपना महत्‍व और प्रासंगिकता खो दे.

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उनका मानना है कि कविता अपना सत्‍य अपने बिम्‍ब और मुहावरों और रूपकों में खोजती है. सारी इंद्रिया मिल कर कविता का सत्‍य निर्मित करती हैं और कविता को अंतत: हमारे विवेक की छलनी से गुजरते हुए हमारे अंत:करण में बस जाना होता है. वे कहते हैं कि अच्‍छी कविता सुनकर हम पागल हो जाते हैं. इस अर्थ में यह एक दैवी खुराक भी है. वे इमिली डिकिन्‍सन के इस कथन को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि पुस्‍तक पढ़ते हुए सारा बदन इतना कोल्‍ड हो जाए कि कोई आग उसे गर्म न कर सके, इस अवस्‍था से गुजरने का नाम कविता है. इन विचारों से हम समझ सकते हैं कि यह कवि खामखां कवि मुद्रा बना कर और शब्‍दों का घटाटोप पैदा कर कविता को बोझिल नहीं बनाना चाहता. अपने मंतव्‍य तक पहुंचने के लिए उसे बस कुछ पंक्‍तियां चाहिए.

‘एक नया ईश्‍वर’ कविता के आस्‍वादन की एक नई दुनिया है जिसे पढ़ते हुए गुलजार को भी अच्‍छा लगता है. वे तजेंद्र सिंह लूथरा के बारे में कह उठते हैं कि ‘वो जिस सिस्‍टम में चल रहा है उसका मुहाफिज भी है और नक्‍काद भी.’ पीछे छूट गए लोग के भीतर की छटपटाहट देखिए-

कौन होगा वो आदमी
जिसकी आधी रात को आखिरी ट्रेन छूट गयी होगी।

यह कविता एक साथ अभिधा में भी है और इसके लक्ष्‍यार्थ भी हैं. इस भागमभाग और अवसरवाद के दौर में कब कोई किसी को फलांग कर उसे पीछे छोड़ दे, कब किसी का अवसर चूक जाए और वह पीछे छूट गए लोगों में शरीक हो जाए, नहीं मालूम. पीछे छूट जाने वाले या पीछे छोड़ दिए जाने वाले लोगों की पीड़ा को कवि ने ट्रेन के छूट जाने के दर्द के बहाने उकेरा है. यही कवि की सिफत है कि उसकी अभिधा कितनी दूर तक इशारा करती है.

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विदूषक –कविता में कभी अपने पर हंसना,  मजाक पर, बूढी मां की सलाह पर, विदूषक को खुद में देख कर, बेटी के अप्रासंगिक कहने पर, अंतत: अपने अहं, लाचारी, लोलुपता, सब पर हंसने के बाद कुछ भी हंसने का न बचे -ऐसी कविता है कि हमारे समय में विदूषक होने की लाचारी भी सामने आ जाती है. कवि की दृढनिश्‍चयता की एक मिसाल उसकी एक बूंद कविता भी देती है जब वह यह कहता है:
तुम्‍हें मुबारक चार जीवन
आधे अधूरे अनिश्‍चित
मेरे लिए काफी है,
एक कतरा संचित,
एक बूंद निश्‍चित। (एक नया ईश्‍वर, पृष्‍ठ 19)

‘अरबी घोड़ा’ तजेंद्र सिंह लूथरा की बहुप्रशंसित कविता है. यह अंतरराष्‍ट्रीय कविता जर्नल में छप भी चुकी है. यहां रूपक में बात कही गयी है. घोड़े की जबानी मनुष्‍य की अपनी पीड़ा का इज़हार है यह. जब वह यह कहता है :
घोटा हुआ ज्ञान,
अपरीक्षित श्रद्धा और मनमानी सत्‍ता
पटक दूं धरती पर
नकली नियम
और कहूं तुम्‍हें मुस्‍करा कर
आओ अब दौड़ें अपने अपने दम पर।

आज के समय में अपने दम पर दौड़ने की संभावनाएं क्षीण हैं. किसी के बदले कोई और दौड़ रहा है. किसी के स्‍थान पर कोई और तैनात है. कम जगहें हैं जहां वास्‍तव में योग्‍य लोग तैनात हैं. यह योग्‍यताओं को पीछे ढकेलने का समय है. ‘एक नया ईश्‍वर’ इस कृति का नाम भी है और एक बेहतरीन कविता भी. कवि एक नये ईश्‍वर से मिलता है. उससे संवाद करता है. उसकी बात पर बहुधा ईश्‍वर हंस देता है. उसके न बदलने के बारे में पूछने पर भी ईश्‍वर हंस देता है. पर जब वह आखिर में पूछता है कि ईश्‍वर, क्‍या तुम किसी के नहीं हो, तो वह फिर हंसता है पर कुछ बोलता नहीं. यह चुप्‍पी बहुत कुछ कहती है ईश्‍वरीय सत्‍ता के रहस्‍यलोक पर.

इस संग्रह में एक कविता है- ‘एक कम मादक स्‍त्री’. कई बार तजेंद्र सिंह लूथरा को इसे गोष्‍ठियों में पढ़ते हुए सुना है. यह कविता कई तरह की मिली-जुली अनुभूतियों से भरी है. कहीं यह मां का की सी फील देती है, कहीं वात्‍सल्‍य की सी अनुभूति, कभी उत्‍तेजक भी- प्रेम और वासना को भी विश्‍वास में बदलती हुई. कभी गहरे दोस्‍त जैसी नजरों से सहलाती पीठ और तब कवि का यह कहना कि ‘कभी खला नहीं उसका कम मादक होना’ एकाएक कवि को उसकी अपनी ही नज़रों में उठा देता है. यह है स्‍त्री को उसकी सुंदरता या मादकता से अलग उसके गुणों की तुला पर तोलती हुई कवि की मानवीय दृष्‍टि.

एक अन्‍य कविता ‘जंगल गांव और आदमी’ में लूथरा मनुष्‍य की स्‍वायत्‍तता का मान रखते हुए कहते हैं- आदमी क्‍या है क्‍या सिर्फ विचार, क्‍या महज आदर्श, क्‍या विचारधारा क्‍या इन कटघरों के सवा आदमी की कोई पहचान नहीं. क्‍या आदमी बस इन विचारों का शरणार्थी होने के लिए अभिशप्‍त है. कवि पूछता है, ‘क्‍या तुम्‍हारी रोशनी दिखा पाएगी राक्षस और पार करा पाएगी अंधगुफा? क्‍या निकाल पाओगे मुझे घनघोर जंगल से और ले जा सकोगे जहां बसता है एक छोटा सा गांव जहां रहते हैं सीधे सादे आदमी?”

स्‍थानीय ईश्‍वर भी एक रूपक में गुंथी काव्‍य संरचना है तो उम्र से तकरार एक दार्शनिक ऊंचाई पर ले जाती हुई कविता जहां कवि कहता है —
उम्र उमड़ने लगी देह के भीतर
कसने लगी कसबल मेरे।
मुस्‍कान धीमी कैसे करोगी।
मेरी बानगी
मेरी रवानगी रोकोगी कैसे
और कुछ बूढा बना सकती हो मुझे
पर मै तो जीवन हूं
मैं नहीं मरता कभी।
विवशताओं के बावजूद यह जो जिजीविषा है वह अमिट है। (एक नया ईश्‍वर, पृष्‍ठ 35)

एक बेहतरीन कविता ‘लुहार का डर’ भी है. लुहार ने तो खेती किसानी के औजार बनाते हुए जिंदगी बिता दी है पर अब उसके पास तलवार बनाने का प्रस्‍ताव आया है. वह असमंजस में पड़ जाता है. वह क्‍या खूबसूरत तरीके से अपने इस डर का इज़हार करता है. बकौल लुहार-
मेरी तो सारी उम्र बीत गयी
हल और कुदाल बनाने में
तलवारें पहले सोने की चमकें
खूब चलें भी गला भी काटें पर सबूत न छोड़ें
लोहे के इस लोथड़े में एकलब्‍य जैसी तड़प थी
पर मुझे द्रोणाचार्य बनना मंजूर न था
बड़ी मेहनत से बनायी काली बेशक्‍ल और कुंद चीज
पर डरता हूं कही ये भी गरीब का ही गला न काटे
और सबूत भी न छोड़ें। (एक नया ईश्‍वर, पृष्‍ठ 42)

यह है कवि दृष्‍टि कि एक लुहार भी तलवार बनाने के पहले इस बात से निश्‍चिंत होना चाहता है कि उसके हुनर से बनी कोई चीज किसी का गला काटने के काम में न आएं. ‘लट्टू’ कविता में एक अलग तरह का आत्‍मविश्‍वास है. सकारात्‍मकता का आग्रह. आत्‍मकथ्‍य-सी उठती हुई कविता जहां एक बिन्‍दु पर पहुंच कर कवि कहता है-  मैं उठूंगा स्‍वयं धीरज समेट कर नाचते नाचते हो जाऊंगा विलीन/ और फिर कभी नहीं गिरूंगा मैं।

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ढाई आखर में कवि का कहना कि ‘क्‍या फर्क पड़ता है अगर तुम्‍हारी लिपि में है/तुम्‍हारे स्‍नेह का सान्निध्य और मेरी भाषा में है मेरे प्रेम की पराकाष्‍ठा’ –एक तार्किक दृष्‍टि से ढाई आखर के महत्‍व को अंगीकार करना है.

किन्‍तु कवि का जन्‍म जिस कचोट, प्रतिकार, उपेक्षा और समाज की विडंबनाओं को देख कर होता है वही एक ऐसा बिन्‍दु है जिस पर हम उसका मूल्‍यांकन करते हैं. वह समाज को देख कर, उसकी दुर्बलताओं को देख कर विचलित होता है. उसे पग-पग पर जब ऐसे दुचित्‍ते इंसानों से भेंट होती है तो वह कहने पर विवश हो उठता है कि ‘तुम ये सब कैसे कर लेते हो– बातों ही बातों में कैसे कर लेते हो व्‍यंग्‍य/ तुम कैसे लटक जाते हो ठसाठस भरी बस के बित्‍तेभर पायदान से बशर्ते उस पर विजय पताका लहरा रही हो/ तुम कैसे लड़ते हो अपने अपराधबोध से.’

‘मैं और मेरा दुख’ भाई चारे की मिसाल रखती कविता है. ‘दुख फिर आ गया’ जैसी कविता भी है उनके पास. ‘दुख जानता है सब’ -भी. अन्‍य कविताओं में- जो नहीं मरा है, साहस, एक कम महत्‍व वाला आदमी, गूंगा आदमी, अपने अपने चश्‍मे, धीमे-धीमे, भिक्षापात्र, एक साहसिक प्रेम कविता, एक साधारण शव यात्रा, धीरे धीरे और आखिरी कविता — युधिष्‍ठिर या निरुत्‍तर. ‘धीरे धीरे’ तो जीवन का फलसफा है. कालो न यात: वयमेव यात:। हम सब के बीतने रीतने की कहानी. पर दुख और मनुष्‍य तो अदभुत कविता है. कविता के मूल में दुख का निवास है यह जानना ही कविता के हेतु को जानना है.
बस इतना ही चाहिए
कविता को
एक सालता हुआ दुख
और एक सुनने वाला
सीधा-सादा मनुष्‍य। (एक नया ईश्‍वर, पृष्‍ठ 123)

और अंत में हम सब जीवन भर जिन यक्ष प्रश्‍नों के सम्‍मुख होते हैं उनके उत्‍तर तलाशने में ही जीवन खत्‍म हो जाता है. पर ये यक्ष प्रश्‍न हमसे कोई अन्‍य नहीं पूछता, सारे प्रश्‍न हमें ही करने और हमें ही उनके उत्‍तर देने होते हैं. यही इस जीवन का प्राप्‍तव्‍य है. यही उसका हासिल. कविता यों है —
कड़वे या मीठे
सारे प्रश्‍न
अपने आप से ही तो पूछने हैं

मैं ही यक्ष
मैं ही युधिष्‍ठिर
और मैं ही निरुत्‍तर। (एक नया ईश्‍वर, पृष्‍ठ 124)

यह पूरा जीवन ही इसी तरह है. यहां किसी अन्‍य से नहीं खुद अपने से ही पूछताछ करनी है और उनके उत्‍तर देने हैं. इस तरह पूरी दुनिया अपने अपने यक्षप्रश्‍नों के सम्‍मुख है जिनके उत्‍तरों की तलाश ही जीवन है. ‘एक नया ईश्‍वर’  तजेंद्रसिंह लूथरा की बेहतरीन कविताओं का संग्रह है. जिन लोगों ने उनकी लंबी कविता ‘अस्‍सी घाट का बांसुरीवाला’ या ‘एक साधारण शव यात्रा’ नहीं पढ़ी, उनके लिए ये कविताएं भी यहां संग्रहीत हैं. इन दोनों कविताओं को तजेंद्र सिंह लूथरा की काव्‍ययात्रा की एक बेहतर उपलब्‍धि माना जाता है. वे व्‍यग्रताएं, बेचैनियां, वे सूक्ष्‍मताएं जो उनकी कविताओं में पग-पग पर दिखती और महसूस होती हैं, उनके सूत्र भी इन कविताओं में मिल जाते हैं. भाषा का नियमन उन्‍होंने इस तरह किया है कि कविता का निरभ्‍यासी व्‍यक्‍ति भी उनके कहे को गुन सके और चुपके से वे अपनी कविता में अपना नज़रिया भी प्रस्‍तुत करते चलते हैं – जीवन दर्शन को सरलीकृत रूप में कविताओं में पिरोते हुए.

पुस्तक- एक नया ईश्‍वर (कविता संग्रह)
लेखक- तजेंद्र सिंह लूथरा
प्रकाशक- वाणी प्रकाशन
मूल्य- 299 रुपये

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