उषाकिरण खान को उनके मैथिली उपन्यास 'भामती' के लिए 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया है.
Usha kiran khan Literature: प्रख्यात मैथिली और हिंदी लेखिका उपाकिरण खान का कहना है कि 10वीं शताब्दी से पहले महिलाओं की स्थिति कहीं ज्यादा सशक्त थी. शिक्षा में पुरुषों के समान भागीदारी थी. गुरुकुलों में लड़के-लड़कियां साथ-साथ पढ़ते थे. लेकिन बाद में कुछ ऐसे हालात बने कि महिलाओं को शिक्षा से वंछित किया गया और उनका जल्दी विवाह कराया जाने लगा. इस तरह महिलाओं की का दायरा लागातार संकुचित कर दिया गया और धीरे-धीरे उनकी प्रतिभा कुंद होने लगी.
साहित्य अकादमी के साहित्योत्सव में ‘लेखक से भेंट’ कार्यक्रम में उषाकिरण खान ने अपनी रचनात्मक यात्रा के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए इन बातों का उल्लेख किया.
उषाकिरण खान ने अपनी चर्चित कृति ‘भामती: एक अविस्मरणीय प्रेमकथा’ पर चर्चा करते हुए भामती लिखने की कहानी के बारे में बताया कि भामती की कहानी सिर्फ किंवदंती नहीं, सच भी है. वाचस्पति मिश्र ने आदिशंकराचार्य के वेदान्त दर्शन (ब्रह्मसूत्र) आध्यात्म विद्या का भाषा का टीका लिखा था. जब वे टीका करने लगे तो दीन-दुनिया भूल गए. वाचस्पति मिश्र की पत्नी थी भामती.
जब वाचस्पति मिश्र विवाह करके भामती को घर लाए तभी वे वेदांत दर्शन पर टीका लिखने बैठ गए. पति की साहित्य साधना में परेशानी ना हो, इसके लिए भामती दिन-रात उनकी सेवा में जुटी रही.
उषाकिरण खान कहती हैं वाचस्पति मिश्र लगातार 18 वर्षों तक साहित्य साधना में लीन रहे. वे टीका में इतने तल्लीन हो गए कि उन्हें 18 वर्षों तक यह भी अहसास नहीं हुआ कि कौन उनकी सेवा कर रहा है. एक बार जब भामती दीये में तेल डाल रही थी तो उनके हाथ को देखकर वाचस्पति मिश्र को लगा कि यह तो किसी अधेड़ महिला का हाथ है. उन्होंने उसे सिर उठाकर देखा तो उसे वे पहचान नहीं पाए. इस पर भामती रोने लगी कि अब में आपको कुछ नहीं दे पाऊंगी. इस पर उन्होंने कहा कि में भामती टीका के रूप में एक पुत्र रत्न दे रहा हूं.
उषाकिरण खान ने कहा कि यह कहानी हमें यह भी बताती है कि उस समय पूरी परिपक्क आयु में विवाह होता था. उस समय बौद्ध हीनयान, महायान, वज्रयान, तंत्रयान हुआ. तिब्बत से लोग सीधे मिथिला आते थे. तंत्रयान के समय जो तांत्रिक होते थे वे तंत्र क्रियाओं के लिए कुंवारी लड़कियों का इस्तेमाल करते थे और इस काम के लिए गुरुकुल में पढ़ने वाली लड़कियों को उठाकर ले जाते थे. इन बढ़ती घटनाओं को देखकर लोगों ने अपनी बच्चियों को गुरुकुल भेजना बंद कर दिया और उनका कम उम्र में विवाह करना शुरू कर दिया, ताकि उनका तंत्र क्रिया में इस्तेमाल न हो सके. इस तरह एक समय की हमारी प्रतिभावान लड़कियां शिक्षा से दूर हुईं और बाल विवाह होने से वे घर की चारदिवारी में कैद होने लगीं. इस तरह उनका बौद्धिक विकास रुक गया. यहां से स्त्रियों के कमजोर होने की कहानी शुरू हुई. इसके बाद मनुस्मृति का निर्माण हुआ तो स्त्रियों के पैरों में और ज्यादा बेढ़ियां बांध दी गईं. इस तरह स्त्रियों की प्रतिभा लगातार कुंद होती चली गई.
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अपनी रचनात्मक यात्रा को याद करते हुए पद्मश्री से सम्मानित उषाकिरण खान ने कहा कि उन दिनों साहित्य का माहौल था. स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी भी रचनात्मक थे. वे सभी पिताजी (जगदीश चौधरी) के आश्रम में आते थे. पिताजी महात्मा गांधी जी के सहयोगी थे और कई वर्ष जेल में रहे.
नागार्जुन से मिली लेखन की प्रेरणा
भारत भारती सम्मान से सम्मानित उषाकिरण खान बताती हैं कि बाबा नागार्जुन उनके पिता के मित्र थे और मित्रता भी ऐसी कि हर कोई उन्हें आपस में भाई बताता था. आजादी की लड़ाई के दौरान जेल में दोनों की मुलाकात हुई थी.
वह बताती हैं जब पिताजी नहीं रहे तो बाबा नागार्जुन पिता की भूमिका में आ गए. वे हमेशा मुझे लिखने के लिए प्रेरित करते रहते थे. बाबा ही मेरे सबसे पहले पाठक हुआ करते थे. हालांकि, फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियों ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया और उन्हीं कहानियां मेरे लेखन की प्रेरणा बनीं.
उषाकिरण खान बताती हैं कि बाबा नागार्जुन मुझे अपने साथ कवि सम्मेलनों में ले जाते थे. पढ़ाई के दौरान ही मैंने लिखना शुरू कर दिया था. स्कूल-कॉलेज की पत्रिकाओं में भी मेरी कविताएं प्रकाशित होने लगी थीं.
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वह बताती हैं- जब मैंने अपने समकालीनों को लिखते-पढ़ते देखा तो मुझे भी लगा कि मेरी रचनाएं छपनी चाहिए, लेकिन कविता की ओर मेरा मन रमा नहीं. कहानियों की ओर मेरा मन रमा. इसमें नागार्जुन जी का भी कहीं न कहीं प्रभाव पड़ा. रेणुजी के मेला आंचल से मैं बहुत प्रभावित हुई थी. क्योंकि रेणुजी की रचनाओं में जो गांव होता उनसे कहीं पिछड़ा गांव हमारा था, बल्कि आज भी है. हमारे गांव जाने के लिए आज नदी पार करके जाना पड़ता है. गांव को जाने के लिए कोई पुल नहीं है. मैं पहली लेखिका हूं जिसने वहां की जीवन-पद्धति को लोगों के सामने रखा. बाढ़ से कोसी क्षेत्र हमेशा डूब जाता है लेकिन वहां के लोग पुनः घर बनाकर हर्षोल्लास के साथ रहते हैं. रेणु और नागार्जुन मिथिला की कहानी कहते हैं. मुझे लगा कि हिंदी की दुनिया को अपने क्षेत्र की कहानी बनानी चाहिए.
मैंने पहली रचना श्रीपत राय को भेजी. उनकी पत्रिका ‘कहानी’ में छपना बड़ी बात हुआ करती थी. मेरी दूसरी रचना ‘धर्मयुग’ में छपी. धर्मवीर भारती ने मुझे बहुत बढ़ावा दिया.
उषाकिरण खान का समग्र लेखन
उषाकिरण खान ने अपने लेखन कविताएं भी लिखी हैं, लेकिन वे विशुद्ध रूप से कथाकार के रूप में स्थापित हुईं. उन्होंने हिंदी और मैथिली, दोनों ही भाषाओं में कविता, कहानी, नाटक और उपन्यास लिखे हैं.
हिंदी उपन्यासों की बात करें तो फागुन के बाद (1994), सीमांत कथा (2004), रतनारे नयन (2005), पानी पर लकीर (2008), सिरजनहार (2011), अगन हिंडोला (2015), गई झुलनी टूट (2017), गहरी नदिया नाव पुरानी (2022) और आशा: बारहखड़ी विधाता बांचे (2003) उनके चर्चित उपन्यास रहे हैं.
अनुत्तरित प्रश्न (1980), मैं उप- दूर्वाक्षत (1987), हसीना मंजिल (1989), भामती (2008), पोखरि रजोखरि (2016), मनमोहना रे (2019), गहरी नदिया, नाव पुरानी (2022) और आशा (2022) उषाकिरण खान के मैथिली उपन्यास हैं.
‘दस प्रतिनिधि कहानियां’, ‘संकलित कहानियां’, ‘लोकप्रिय कहानियां’, ‘मौसम का दर्द’ उषाकिरण खान के चर्चित कहानी संग्रह हैं.
मैथिली में ‘गोनू झा क्लब’ उनका बेहद चर्चित कथा संग्रह है. इसके बाद कांचहि बांस और सदति यात्रा भी सुर्खियों में रहे. ‘सिय पिय कथा’ उनका खंड काव्य है.
कविता संग्रह की बात करें तो ‘विवश विक्रमादित्य’, ‘दूबधान’, ‘गीली पांक’, ‘कासवन’, ‘जलधार’, ‘जनम अवधि’, ‘घर से घर तक’ और ‘खेलत गेंद गिरे यमुना में’ उषाकिरण खान के हिंदी कविता संग्रह हैं.
उषाकिरण खान ने बच्चों के लिए भी कहानी और नाटक लिखे हैं. इनमें उडाकू जनमेजय (बाल उपन्यास, हिंदी), डैडी बदल गए हैं (बाल नाटक, हिंदी), सातभाई चंपा (हिंदी कहानी), बाल महाभारत (मैथिली) और राधोक खिस्सा (मैथिली) शामिल हैं.
मैथिली भाषा में उषाकिरण खान के नाटक भी काफी चर्चित रहे हैं. इनमें चानो दाई, भुसकौल बला, फागुन और एक्सरि ठाढ़ी शामिल हैं.
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