तीनों राज्यों की कुल 424 ग्रामीण इलाकों की सीटों में से बीजेपी के हिस्से सिर्फ 153 सीटें आई हैं जबकि 236 सीटों पर कांग्रेस ने जीत हासिल की है.
साल 2014 में पीएम नरेंद्र मोदी को जब पूरे देश खासकर हिंदीभाषी राज्यों में सफलता मिली तो इसके पीछे की वजह ग्रामीण इलाकों में बीजेपी को मिला भारी समर्थन भी था. बीते साढ़े चार साल में मोदी सरकार ने ग्रामीण इलाकों में बड़े पैमाने पर टॉयलेट और घर बनाए हैं साथ ही महिलाओं तक LPG कनेक्शन पहुंचाने का काम भी किया है.
हालांकि 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों की माने तो इन्हीं ग्रामीण इलाकों में बीजेपी के लिए समर्थन लगातार घट रहा है. तीनों राज्यों की कुल 424 ग्रामीण इलाकों की सीटों में से बीजेपी के हिस्से सिर्फ 153 सीटें आई हैं जबकि 236 सीटों पर कांग्रेस ने जीत हासिल की है. सरकारी आंकड़ों पर नज़र डालें तो इसकी सबसे बड़ी वजह है कि यूपीए-2 के मुकाबले ग्रामीण परिवारों की आय की विकास दर 20 से घटकर 5 पर आ गई है.
एमपी, राजस्थान और छत्तीसगढ़ से बीजेपी के लिए संदेश
मध्य प्रदेश की बात करें तो इस राज्य की कुल 230 सीटों में से 184 ग्रामीण सीटें हैं. साल 2013 में बीजेपी ने इनमें से 122 पर जीत हासिल की थी लेकिन 2018 में उसके हिस्से सिर्फ 84 सीटें ही आई हैं.उधर कांग्रेस के पास 2013 में 56 सीटें थीं जबकि इस बार उसने ग्रामीण इलाके की 95 सीटों पर कब्ज़ा जमाया है. राजस्थान की कुल 200 विधानसभा सीटों में से 162 सीटें ग्रामीण हैं. साल 2013 में बीजेपी ने इनमें से 131 सीटें जीती थीं जबकि 2018 में उसके हिस्से सिर्फ 56 सीटें ही आई हैं. उधर कांग्रेस के पास 2013 में सिर्फ 18 सीटें थीं जबकि इस बार उसने ग्रामीण इलाकों की 83 सीटों पर जीत हासिल की है. छत्तीसगढ़ की कुल 90 सीटों में से 78 ग्रामीण इलाकों की हैं. बीजेपी ने 2013 में ग्रामीण इलाकों की 41 सीट जीती थीं लेकिन 2018 में ये आंकड़ा पर पहुंच गया है जबकि कांग्रेस की सीटें 35 से बढ़कर 58 हो गयी हैं.
टॉयलेट-घर बने, LPG कनेक्शन भी मिला
गौरतलब है कि बीते तीन सालों में इन तीन राज्यों में प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत 1 करोड़ से ज्यादा घरों का निर्माण हुआ. मध्य प्रदेश में 15.43 लाख, छत्तीसगढ़ में 5.99 लाख जबकि राजस्थान में 5.96 लाख घर बनाए गए. पूरे में देश में कुल बनाए गए घरों में से 27% से भी ज्यादा इन्हीं तीन राज्यों में बनाए गए हैं. प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना की बात करें तो तीनों राज्यों में एलपीजी कनेक्शन की संख्या 57.86% से बढ़कर 88.51% हो गयी है. एमपी में ये 39.12% से बढ़कर 73.49%, छत्तीसगढ़ में 27.63% से 71.23% जाकी राजस्थान में 58.21% से बढ़कर 94.80% हो गया है.
मोदी सरकार की सौभाग्य योजना की बात करें तो 25 सितंबर 2017 को जब ये लॉन्च हुई तो देश भर में 4 करोड़ ग्रामीण इलाकों के घरों में बिजली कनेक्शन नहीं था लेकिन अब इनकी संख्या सिर्फ 81.53 लाख ही बची है. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ क्रमशः 100%, 95.59% और 99.21% गांवों तक बिजली पहुंचाने का लक्ष्य पूरा कर चुके हैं. 2 अक्टूबर 2014 से अब तक स्वच्छ भारत मिशन के तहत देश भर के ग्रामीण इलाकों में 8.98 करोड़ टॉयलेट बनाए जा चुके हैं. इन तीनों ही राज्यों में टॉयलेट बनाने का लक्ष्य पूरा कर लिए गया जबकि 2014 में यहां के ग्रामीण इलाकों में इसका प्रतिशत क्रमशः मध्य प्रदेश-27.53%, राजस्थान- 29.74% और छत्तीसगढ़ में 40.26%.ही था. प्रधानमंत्री जनधन योजना के तहत देश भर में 33.38 करोड़ बैंक अकाउंट खोले गए हैं जिनमें से 19.75 करोड़ ग्रामीण इलाकों में खोले गए हैं.
सब मिला बस आय नहीं बढ़ी!
अब सवाल ये उठता है कि इतना काम करने के बावजूद भी आखिरकार ग्रामीण इलाकों में बीजेपी को हार का सामना क्यों करना पड़ा? इसका जवाब ग्रामीण इलाकों में बीजेपी के राज में हुई आय में ही बढ़ोत्तरी के प्रतिशत से समझा जा सकता है. यूपीए-2 के सालों में देखा जाए तो हर साल आय में करीब 19.91, 18.20 और 15.87 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई. जबकि बीते चार सालों में ये लगातार 7.2, 4.7, 5.5 और 5.2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है.
किसानी से जुड़े परिवार न सिर्फ आय में कम वृद्धि को झेल रहे हैं बल्कि अपनी उपजाई हुई फसलों पर भी उन्हें कम मुनाफा मिल रहा है जिसका सीधा असर चुनावों के नतीजों पर भी देखने को मिला है. भले ही मोदी सरकार ने कर्जमाफी की जगह किसानों की आय दोगुनी करने के का वादा किया हो लेकिन नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डवलपमेंट यानी नाबार्ड का सर्वे कह रहा है कि बीते चार सालों में किसानों की आय सिर्फ 2505 रुपए ही बढ़ सकी है. गांवों में रहने वाले 41% से ज्यादा परिवार अभी भी कर्जे में दबे हैं और इनमें से 43% वो हैं जिनकी आय कृषि पर निर्भर हैं.
किसानों की हालत क्या?
NAFIS सर्वे के मुताबिक गांव में रह रही आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी किसानी या दिहाड़ी मजदूरी से अपना खर्चा चला रहा है. गांव में रह रहे परिवार की औसत आमदनी 8,931 रुपए है जिसका सबसे बड़ा हिस्सा 3140 रुपए करीब 35% अभी भी किसानी से ही आ रहा है. इस आमदनी का दूसरा सबसे बड़ा हिस्सा 3025 रुपए करीब 34% दिहाड़ी मजदूरी से आ रहा है.
सरकारी या प्राइवेट नौकरी से अभी भी सिर्फ 1444 रुपए सिर्फ यानी ग्रामीण आमदनी का सिर्फ 16% हिस्सा ही आ रहा है. बकाया कर्ज के मामले में आईओआई की रिपोर्ट के मुताबिक कृषि से जुड़े 52.5 प्रतिशत परिवारों और 42.8 प्रतिशत गैर-कृषि परिवारों कर्ज में दबे हैं. किसान हर महीने क़रीब 1,700 से 1,800 रुपए में अपने परिवार को पाल रहा है. एसोचैम के एक अनुमान के मुताबिक देश में कृषि इसलिए घाटे का सौदा साबित हो रही है क्योंकि हम जिस फल या सब्जी के लिए दिल्ली में 50 रुपए देते हैं. उसका व्यापारी किसान को 5 से 10 रुपए ही देता है.
जो कर्ज माफ़ करेगा उसे ही वोट मिलेगा!
पिछले कुछ विधानसभा चुनावों के नतीजों के आधार ये बात सही नज़र आती है कि जिस भी पार्टी ने सत्ता में आकर किसानों का कर्ज माफ़ करने की घोषणा की, ग्रामीण इलाकों में उसे बढ़त मिलती हुई नज़र आई. उत्तर प्रदेश, पंजाब, कर्नाटक और हाल ही में हुए राजस्थान, मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों को इसके उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है. कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने साल 2008 में किसानों का 72 हजार करोड़ रुपए का कर्ज माफ किया और उसे 2009 लोकसभा चुनावों में इसका सीधा फायदा भी हुआ.
2014 में पीएम मोदी ने भी किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था. साल 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने कर्जमाफ़ी का वादा किया और ग्रामीण इलाकों में उसे अभूतपूर्व सफलता हासिल हुई. 2017 के पंजाब विधानभा चुनाव और 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनावों में भी कर्जमाफी का ये फॉर्मूला हिट रहा. मध्य प्रदेश और राजस्थान विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने 10 दिन में किसानों का कर्ज माफ करने का वादा किया था और अब दोनों ही जगह कांग्रेस की सरकार बनती नज़र आ रही है. हालांकि अब सवाल यही उठ रहा है कि क्या 2019 लोकसभा चुनावों से पहले मोदी सरकार 26.3 करोड़ किसानों का 4 लाख करोड़ रुपए का कर्ज माफ़ करने के लिए तैयार है?
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