टांट्या मामा की आदमकद प्रतिमा.
अभिषेक त्रिपाठी/जबलपुर. टंट्या भील या दूसरे शब्दों में कहें तो टंट्या मामा या और कोई नाम दें तो भारतीय रॉबिन हुड जी हां टंट्या मामा का योगदान ही ऐसा था की उनकी याद हर नागरिक के दिल में बसी है. 4 दिसंबर को टंट्या मामा का बलिदान दिवस है. आज जानेंगे टंट्या मामा से जुड़े अनोखे तथ्य.
26 जनवरी 1842 को तत्कालीन पूर्वी निमाड़ जिसे आजखंडवा के नाम से जाना जाता है, यहीं की पंधाना तहसील में टंट्या मामा का जन्म हुआ था. टंट्या,आदिवासी नायक तो थे ही लेकिन सबसे अहम बात टंट्या मामा लोगों के लिए एक बड़ी मिसाल थे. उनके सामाजिक योगदान को आज भी याद किया जाता है. 1878 से 1889 के बीच भारत में सक्रिय एक जननायक की भूमिका में थे टंट्या मामा.
कैसे पड़ा टंट्या मामा नाम
टंट्या आदिवासी भील समुदाय के सदस्य थे दरअसल उनका वास्तविक नाम टंड्रा था आपको बताएं टंड्रा से सरकारी अफसर या पैसे वाले लोग काफी भयभीत रहते थे, और आम जनमानस इन्हें टंटिया मामा कहकर बुलाताथा. दिलचस्प बात यह है कि उनके बारे मेंयह भी कहा जाता है कि टंट्या ने कई बहन बेटियों का विवाह संपन्न कराया और उन बहन बेटियों ने उन्हें मामा कहना शुरू किया जो नामअब तक चल रहा है.
यहां हुआ टंट्या का जन्म
टंट्या मामा का जन्म खंडवा जिले की पंधाना तहसील के ग्राम बड़दा में 1842 में हुआ था. टंट्या मामा को आदिवासियों का रॉबिनहुड भी कहा जाता है इसके पीछे की खास वजह यह है, इन्होंने अंग्रेजों के राज में फल फूल रहे जमाखोरों द्वारा लूटे गए माल को गरीबों, शोषितो और आदिवासियों में बांट दिया करते थे.
टंट्या मामा की पहली गिरफ्तारी
टंट्या मामा की पहली गिरफ्तारी वर्ष तकरीबन 1874 में खराब तरीकों से आजीविका चलाने के लिए की गई थीऔर यहां उन्होंने एक साल की सजा काटी उसके बाद इनके जुर्म को चोरी और अपहरण के गंभीर अपराधों में बदल दिया गया था.
छल करके टंट्या को फांसी के फंदे तक पहुंचाया गया
आपको बताएं इंदौर के सेना के एक अफसर ने टंट्या को माफी देने का वादा किया, लेकिन छल करके उन्हें जबलपुर ले जाया गया, और फिर जबलपुर में उन पर मुकदमा चलाकर 4 दिसंबर 1889 को उसे फांसी दे दी गई. आज भी टंट्या मामा आदिवासियों ही नहीं बल्कि हर गरीब शोषित के दिलों दिमाग में बने रहते हैं. क्योंकि उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है.
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