उमरिया के आदिवासी बहुल गांवों में प्रधानमंत्री आवास बने कबाड़खाना

बैगा आदिवासियों को मिले पीएम आवास योजना के मकानों के आधे-अधूरे होने की हकीकत बयान करती तस्वीर
उमरिया जिले के आदिवासी बाहुल्य गांवों में प्रधानमंत्री आवास कबाड़खाना बन गए हैं. यहां इन घरों को अंदर से देखने पर हकीकत पता चलती है कि यहां सिर्फ बाहरी रंग-रोगन से योजना की खानापूर्ति हो रही है.
- News18 Madhya Pradesh
- Last Updated: July 6, 2018, 1:09 PM IST
उमरिया जिले के आदिवासी बाहुल्य गांवों में प्रधानमंत्री ْआवास योजना के मकान कबाड़खाना बन गए हैं. यहां इन घरों को अंदर से देखने पर हकीकत पता चलती है कि यहां सिर्फ बाहरी रंग-रोगन से योजना की खानापूर्ति हो रही है. इन घरों के रहने लायक न बन पाने के कारण आदिवासी अपने पुराने मकानों में ही रहकर गुजारा कर रहे हैं. जिले में पीएम आवासों में लापरवाही का यह सिलसिला कोई सिर्फ बैगा गांव लदेरा का नहीं है बल्कि गांव-गांव यही हालात जिम्मेदार अफसरों को कठघरे में खड़ा करते हैं.ऐसे में चुनावी साल में मात्र कागजों में जो उपलब्धि दर्शायी जा रही हैं, वह अगर जमीन पर वास्तविक्ता में नहीं हैं तो यह सरकार को महंगा पड़ सकता है.
उमरिया जिले में संरक्षित जनजाति बैगा बाहुल्य गांव लदेरा निवासी रामरती बाई कागजों में प्रधानमंत्री आवास योजना के बने मकान में रह रही है.सरकारी आंकड़ों में रामरती पक्के मकान में रहने लगी हो लेकिन हकीकत इसके उल्ट.उसका आवास आज भी अधूरा है और कबाड़खाना में उपयोग हो रहा है.इसकी महज कागजों में खानापूर्ति पूरी हो रही है.
कमोवेश गांव के 38 बैगा परिवार को स्वीकृत हुए हर आवास की लगभग यही हालत है.यह सारे आधे-अधूरे मकान इसके लिए जिम्मेदार अफसरों को कठघरे में खड़ा करते हैं.खासबात तो यह है कि हितग्राहियों को योजना के मुताबिक निश्चित रकम भी दी जा चुकी है लेकिन मकान पूरा क्यों नहीं हुआ इसका जवाब किसी के पास नहीं है.यह अलग बात है कि अफसर अपनी जिम्मेदारी में कुछ कार्यवाही का हवाला जरूर दे रहे हैं लेकिन गरीबों का पक्के मकान में रहने का सपना कब पूरा होगा,यह कोई नहीं जानता.
उमरिया जिले में संरक्षित जनजाति बैगा बाहुल्य गांव लदेरा निवासी रामरती बाई कागजों में प्रधानमंत्री आवास योजना के बने मकान में रह रही है.सरकारी आंकड़ों में रामरती पक्के मकान में रहने लगी हो लेकिन हकीकत इसके उल्ट.उसका आवास आज भी अधूरा है और कबाड़खाना में उपयोग हो रहा है.इसकी महज कागजों में खानापूर्ति पूरी हो रही है.
कमोवेश गांव के 38 बैगा परिवार को स्वीकृत हुए हर आवास की लगभग यही हालत है.यह सारे आधे-अधूरे मकान इसके लिए जिम्मेदार अफसरों को कठघरे में खड़ा करते हैं.खासबात तो यह है कि हितग्राहियों को योजना के मुताबिक निश्चित रकम भी दी जा चुकी है लेकिन मकान पूरा क्यों नहीं हुआ इसका जवाब किसी के पास नहीं है.यह अलग बात है कि अफसर अपनी जिम्मेदारी में कुछ कार्यवाही का हवाला जरूर दे रहे हैं लेकिन गरीबों का पक्के मकान में रहने का सपना कब पूरा होगा,यह कोई नहीं जानता.