अहमद पटेल (गेट्टी इमेज)
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल की जीत वैसे तो राज्यसभा की एक सीट भर है, लेकिन इसने कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं में भरोसा पैदा किया है कि अगर वो लड़ेंगे तो जीत भी सकते हैं.
अहमद पटेल को कांग्रेस का चाणक्य कहा जाता है. लेकिन इस बार उनका मुकाबला उनकी ही जमीन गुजरात से आने वाले दूसरे चाणक्य बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के बुने हुए चक्रब्यूह से था. अहमद पटेल ने सफलता के घोड़े पर सवार अमित शाह का चक्रव्यूह तोड़कर ये साबित किया है कि उनमें अब भी दम है.
ये जीत कांग्रेस के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न थी. अहमद पटेल के हारने का उतना नुकसान नहीं होता जितना उनके जीतने का फायदा हुआ है. कांग्रेस के लिए ये जीत संजीवनी बूटी की तरह है.
अहमदाबाद में अहमद पटेल के माथे पर आधी रात को पसीना था तो दिल्ली में सोनिया गांधी भी चैन की नींद नहीं ले पा रही थीं. पटेल की जीत की घोषणा होने तक सोनिया तीन बार उनसे बात कर चुकी थीं. चौथी बार जब मैडम का फोन आया तो गले में गुलाब के फूल की माला पहने अहमद पटेल चहक पड़े थे. उस वक्त रात के पौने दो बजे थे.
इस जीत का सबसे पड़ा फायदा कांग्रेस को इसी साल नवंबर-दिसंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव में मिलेगा. बीजेपी इस बार मिशन 150 का लक्ष्य लेकर चल रही है. विधायकों की टूट से बिखर चुकी कांग्रेस अब पूरे दमखम और उत्साह से अगला विधानसभा चुनाव लड़ेगी. अहमद पटेल कहते हैं, 'बीजेपी को सबक सिखाने का समय आ गया है.'
काफी दिनों से सुर्खियां बटोरने वाले शंकर सिंह वाघेला का कद भी उनके समधी की हार से छोटा हुआ है. हारी हुई बाजी लगाने वाले वाघेला अब बीजेपी के लिए कितने फायदेमंद साबित होंगे इसका आंकलन बीजेपी भी जरूर करेगी. हालांकि, वाघेला खेमे का कहना है कि उन्होंने सफलतापूर्वक विधायक तोड़ लिए थे बस रणनीतिक चूक हो गई और भाग्य ने अहमद पटेल का साथ दे दिया.
पार्टी में कमजोर हो चुके अहमद पटेल के लिए भी ये जीत बेहद जरूरी थी. राहुल गांधी की युवा टीम में पुराने हो चुके अहमद पटेल फिट नहीं बैठ रहे थे. इस जीत से न सिर्फ उनका इकबाल कायम हुआ है, बल्कि उन्होंने खुद के लिए ही सही लेकिन साबित किया है कि वो कांग्रेस के सबसे बड़े मैनेजर हैं.
यह जीत भले ही अहमद पटेल की बताई जा रही है, लेकिन ये बात जाहिर थी कि हार सोनिया गांधी की होती. अहमद पटेल की हार का सीधा मतलब 10 जनपथ की कम होती हनक से लगाया जाता. पटेल 20 साल से सोनिया गांधी की आंख, नाक और कान बने हुए हैं.
अहमद पटेल इस कदर घिरे थे कि अनजाने ही सही लेकिन पार्टी को एकजुट होने का मौका मिल गया. चिदंबरम से लेकर आनंद शर्मा तक इलेक्शन कमीशन में डटे रहे. पटेल फोन पर बड़े नेताओं से लगातार संपर्क में रहे. पार्टी के भविष्य के लिए एकजुटता का संकेत अच्छा रहा.
इस चुनाव पर देश भर की नजर थी. मोदी और शाह की जोड़ी के अश्वमेध यज्ञ के सरपट दौड़ रहे घोड़े की लगाम पकड़कर अहमद पटेल ने पार्टी को काफी राहत दिलाई है. कांग्रेस अब नई ऊर्जा से लबरेज है, लेकिन रास्ता बहुत मुश्किल है. इसी साल गुजरात की चुनौती है और आगे साल 2019 के लोकसभा चुनाव की. नीतीश जैसे सहयोगी साथ छोड़ चुके हैं और राहुल गांधी एक कुशल नेता के रूप में अपनी छाप छोड़ने में असफल रहे हैं.
कांग्रेस के लिए वक्ती तौर पर खुश होने का मौका जरूर है, लेकिन पैर जमीन पर रखकर हाड़तोड़ मेहनत ही उसको वापस लड़ाई में ला सकती है.
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