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कितनी मजबूरी में बोलनी पड़ती हैं बेचारे मर्दों को इस तरह की बातें

औरतों पर मर्द नेताओं के कैसे-कैसे बयान

औरतों पर मर्द नेताओं के कैसे-कैसे बयान

“सौ टका टंच माल” मर्दों को बताने लगे कि सियायत कैसे होती है तो वीर जवानों का खून नहीं खौलेगा? वीर जवानों का खून तो इस ब ...अधिक पढ़ें

    जम्बूद्वीप में पुरुष नहीं होते, महापुरुष होते हैं. इन महापुरुषों की महिमा अपरंपार है. ये जब भी औरतों पर मुंह खोलते हैं तो भर-भर फूल झरने लगते हैं. ऐसे-ऐसे शब्‍द, ऐसे वाक्‍य, ऐसे जुमले बहते हैं कि जैसा उदाहरण दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलेगा.

    अभी संडे की ही बात ले लीजिए. समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान रामपुर में एक चुनावी सभा को संबोधित कर रहे थे. उनकी विपक्षी वहां एक महिला हैं, बीजेपी प्रत्‍याशी जया प्रदा. अब आजम खान ने जया प्रदा पर मुंह खोला तो ऐसा खोला कि बाकी सबके मुंह खुले रह गए. वे बोले, “जिसे हम उंगली पकड़कर रामपुर लाए, आपने 10 साल जिससे अपना प्रतिनिधित्व कराया... उनकी असलियत समझने में आपको 17 बरस लगे, मैं 17 दिन में पहचान गया कि इनके नीचे का अंडरवियर खाकी रंग का है.”

    “अंडरवियर” से बेहतर मेटाफर और क्‍या हो सकता है जया प्रदा को संघी बताने के लिए? महिला पर बात करें और उसके अंडरवियर पर न करें तो ये कहां के मर्द? हिंदुस्‍तानी मर्द कहलाने लायक तो बिल्‍कुल नहीं. अपनी परंपराओं के प्रति ऐसी निष्‍ठा, ऐसा समर्पण ब्रम्‍हांड में कहीं न मिले, जैसा हिंदुस्‍तानी मर्दों में मिलता है. इनकी सूक्तियों को एक जगह संकलित किया जाए तो महाकाव्‍य बन जाए.

    अगर हमारी संस्‍कृति औरत को वस्‍तु समझती है तो हमारे नेताजी कैसे न बोलें, औरत को “सौ टका टंच माल.” इसलिए 2013 में मध्य प्रदेश में एक रैली में दिग्विजय सिंह ने मंदसौर से तत्कालीन सांसद मीनाक्षी नटराजन को “सौ टका टंच माल” बोला. वो बोले तो लोग बिलबिलाने लगे. भूल गए कि उनकी यही संस्‍कृति है. सिंह साहब तो सिर्फ संस्‍कृति का निर्वाह कर रहे थे.

    संस्‍कृति निबाहने में कोई पीछे नहीं. सबमें होड़ लगी है कि मुझसे बढ़कर कौन? इसलिए पिछले साल जब सपा ने जया बच्चन को राज्यसभा के लिए दोबारा नामांकित किया तो बीजेपी नेता नरेश चंद्र अग्रवाल सीना तानकर आगे आए और बोले, ये “फिल्मों में नाचने वाली” हैं. उनका गुस्‍सा भी जायज था. राज्‍यसभा में उनका कार्यकाल खत्‍म हो रहा था. वो ठहरे मर्द के पट्ठे, फिर भी उन्‍हें दोबारा कोई पूछ नहीं रहा था और जया बच्‍चन को महिला होने के बावजूद दोबारा नामांकित किया जा रहा था. जिस कुर्सी पर सदियों से सिर्फ मर्द बैठते आ रहे हैं, उस कुर्सी पर अब औरतें दावा कर रही हैं और दावा ही नहीं कर रहीं, कह रही हैं “संसद में 33 फीसदी आरक्षण दो.” गजब कलियुग आ गया है. साक्षी महाराज ने मेरठ में औरतों को जो काम सौंपा था, वो छोड़कर अब इन्‍हें संसद की कुर्सी चाहिए. उस बात पर तो औरतों ने ठीक से कान भी नहीं धरे कि “हर हिंदू औरत चार-चार बच्‍चे पैदा करे.”

    ये कलियुग ही है कि अपना काम छोड़कर अब औरतें राजनीति सिखाने लग पड़ी हैं. इसीलिए 2012 में एक टीवी शो के दौरान कांग्रेस नेता संजय निरूपम ने स्मृति ईरानी का दिमाग ठिकाने लगाते हुए कहा, “कल तक आप पैसे के लिए ठुमके लगा रही थीं और आज राजनीति सिखा रही हैं.”

    “सौ टका टंच माल” मर्दों को बताने लगे कि सियायत कैसे होती है तो वीर जवानों का खून नहीं खौलेगा? वीर जवानों का खून तो इस बात पर भी खौलने लगा कि रेप की सजा फांसी क्‍यों हो. मुलायम सिंह यादव का दिल पिघला. उनसे देखा न गया अपने बेटों का दर्द तो फट पड़े, “लड़के हैं, लड़कों से गलती हो जाती है. अब रेप करने के लिए उन्हें फांसी पर थोड़े न टांग देंगे.” देश के नौजवान सपूतों ने भाव-विभोर होकर खूब तालियां पीटीं. आखिर नेताजी ने वही तो कहा था, जो उनके शहर-मुहल्ले के लड़कों के दिल की बात थी. गलती हो गई. हो गई, हो गई. कर दिया रेप. अब क्‍या जान लोगे बच्चे की.

    मर्द आखिर चाहते क्‍या हैं? यही न कि औरतें मर्यादा में रहें, अपनी लक्ष्‍मण रेखा न लांघें. जब कैलाश विजयवर्गीय ने कहा था कि “उन्हें ऐसा श्रृंगार करना चाहिए, जिससे श्रद्धा पैदा हो, न कि उत्तेजना. उन्हें लक्ष्मण रेखा में रहना चाहिए, रेखा लांघेगी तो रावण उठा ले जाएगा,” तो क्‍या गलत कहा था. रावण का तो काम ही है उठा ले जाना. औरत का काम है लक्ष्‍मण रेखा में रहना. लक्ष्‍मण रेखा मतलब घर. “सौ टका टंच माल” मर्द की संपत्ति है, वो घर की तिंजोरी में रहती है और चार बच्‍चे पैदा करती है. माल लक्ष्‍मण रेखा के बाहर और डेंजर अंदर. ये “परकटी महिलाएं” इसके लिए मर्दवाद को दोष देती हैं. मर्द की नीयत खराब, मर्द की आदत खराब. हद है कठहुज्‍जत की. अरे कुत्‍ता भौंकता है तो हम उस पर ज्ञान ठेलते हैं क्‍या कि भौंकना गंदी बात है, काहे भौंके, मत भौंको. वैसे ही अगर लड़की उत्‍तेजित करने वाला श्रृंगार करेगी तो लड़के तो उत्‍तेजित होंगे ही. उत्‍तेजित होंगे तो रेप करेंगे. गलती किसकी हुई? जिसने श्रृंगार किया उसकी, या जिसने रेप किया उसकी? और मान लो कभी गलती भी हुई तो नेताजी की बात समझो. “लड़के हैं, गलती हो जाती है.”

    मर्द इतनी इज्‍जत दे रहे हैं, इतना ख्‍याल कर रहे हैं. उस दिन जदयू नेता शरद यादव के फिक्र की इंतहा हो गई, जब वे राजस्थान की एक सभा में भरे मंच से वसुंधरा राजे के मोटापे पर बोलने लगे, “वसुंधरा को आराम दो, बहुत थक गई हैं, बहुत मोटी हो गई हैं. पहले पतली थीं.”

    लेकिन इससे बड़ी इंतहा तो ये है कि मर्दों की फिक्र भी औरतों को उनकी बदजुबानी जान पड़ती है. बात के मर्म को नहीं समझतीं, लगती हैं कुतर्क करने. अगर यादव जी कह रहे हैं कि वोट की इज्‍जत, बेटी की इज्‍जत से बड़ी होती है तो इसमें गलत क्‍या है? क्‍या बेटी घर की इज्‍जत नहीं होती? क्‍या बेटी की इज्‍जत उसके पैरों के बीच नहीं होती? क्‍या बाप-भाई, पति का काम नहीं कि उस इज्‍जत की रक्षा करे? उसे बाकी दुनिया के मर्दों की गंदी नजर से बचाए? वो मर्द, जिनकी एक नजर अपनी बहू-बेटी की इज्‍जत बचाने पर और दूसरी नजर दूसरे की बहू-बेटी की इज्‍जत उतारने में लगी हुई है. ऐसी मल्‍टीटास्किंग कोई कर सकता है भला? एक साथ इतने मोर्चों पर तैनात मर्द. दुनिया के विकसित देश चाहे कितने भी विकसित हो गए हों, उनके मर्द आज भी इतने विकसित नहीं हुए कि ऐसी मल्‍टीटास्किंग कर लें. उन्‍होंने अपनी औरतों को खुल्‍ला छोड़ रखा है. 18 साल की होते ही बेटी से पल्‍ला छुड़ा लेते हैं. अपनी बॉडी का जो करना है करो. हमारी तरह नहीं, शील रक्षा हेतु तैनात एक गार्ड (पिता) तब तक नहीं हिलेगा, जब तक दूसरा गार्ड (पति) ड्यूटी पर न आ जाए.

    इसलिए औरतों! हर बात पर पश्चिम से आयातित नारीवाद ठेलने की बजाय बात के मर्म को समझो. मर्दों को फिक्र है तुम्‍हारी. इसलिए जब कहते हैं सुब्रमण्‍यम स्‍वामी प्रियंका गांधी को “शराबी” तो मारे चिंता के कह रहे होते हैं. मनोहर पर्रीकर तो सचमुच चिंतित ही थे, जब बोले थे, “अब तो लड़कियां भी लड़कों की तरह शराब पीने लगी हैं. बड़ी चिंता की बात है.”

    और है ही चिंता की बात. औरतें मर्दों वाले काम करने लगेंगी तो औरतों वाले काम कौन करेगा? और मर्द बेचारे क्‍या करेंगे? इतना काम है मर्दों के सिर. ये जो फूल झरते हैं इनके मुंह से आए दिन, क्‍या उसमें मेहनत नहीं लगती. अपने मोबाइल में इतने सीक्रेट व्हॉट्सएप ग्रुप बनाने पड़ते हैं, इतने पोर्न और अश्लील जोक पढ़ने, सुनाने, फॉरवर्ड करने पड़ते हैं. वो तो भला हो हमारे संस्‍कारों और परंपराओं का, जो बचपन से ही ये बात हम लड़कों के भेजे में ठूंस दी गई कि लड़की “माल” होती है. अब ये हमारे डीएनए का हिस्‍सा है. हमें मेहनत नहीं करनी पड़ती औरतों को माल समझने के लिए. हम मन-वचन-प्राण से यही विश्‍वास करते हैं. इसलिए रेप होते ही पहला सवाल लड़की से पूछते हैं, “तुमने कपड़े क्‍या पहने थे? तुम्‍हारा दुपट्टा सही जगह पर क्‍यों नहीं था?” छाती के उभार देखकर मर्द तुम्‍हारी आरती थोड़े न उतारेंगे, वो तो ताड़ेंगे ही.
    और देखो हमारी निष्‍ठा, हमारा समर्पण, हम अपना काम पूरी मुस्‍तैदी से कर रहे हैं. दुपट्टा बाद में सरकता है, ताड़ना हम पहले ही शुरू कर देते हैं. हमने औरतों की दो कैटेगरी बना दी है- बदचलन और देवी. एक का संबंध श्रद्धा से है, दूसरे का उज्‍जेतना से. अब ये औरत पर निर्भर है कि वो किस कैटेगरी में अपना नाम लिखवाना चाहती है.

    हम मर्दों का क्‍या है? हम तो ठहरे यमराज के मुनीम चित्रगुप्‍त. जैसा तुम्‍हारा आचरण होगा, उसी कैटगरी में तुम्‍हारा नाम लिख देंगे.

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