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Indo-Pak War 1971: जब 'बैटल ऑफ बोगरा' में जीत के बाद पाक ब्रिगेडियर को जनता ने सड़क पर दौड़ा-दौड़ा कर पीटा....

Know Your Army Pride: 'बैटल ऑफ बोगरा' (Battle of Bogura) भारत और पाकिस्‍तान के बीच 1971 में लड़े गए युद्ध की सबसे क्रूर ...अधिक पढ़ें

Know Your Army Pride: 1971 के भारत-पाक युद्ध (Indo-Pakistan War 1971) में ‘बैटल ऑफ बोगरा’ (Battle of Bogura) की अहमियत कई मायनों में बिल्‍कुल अलग है. दरअसल, बैटल ऑफ बोगरा ही एक ऐसी लड़ाई थी, जो 1971 के युद्ध के पहले शुरू हो गई थी और युद्ध खत्‍म होने के बाद समाप्त हुई. 23 नवंबर 1971 को शुरू होने वाली बैटल ऑफ बोगरा की लड़ाई 18 दिसंबर 1971 को अंतिम आत्‍मसमर्पण के बाद खत्‍म हुई थी. इसके अलावा, 1971 के भारत-पाक युद्ध में बैटल ऑफ बोगरा इकलौती लड़ाई थी, जो रिहायशी इलाके में लड़ी गई थी.

लेफ्टिनेंट जनरल जेबीएस यादव ने अपने एक लेख में बैटल ऑफ बोगरा का जिक्र करते हुआ लिखा था कि बोगरा की लड़ाई 1971 के भारत-पाक युद्ध के इतिहास में अद्वितीय थी. यह शायद एकमात्र ऐसी लड़ाई थी, जो रिहायशी क्षेत्रों में लड़ी गई थी. इस लड़ाई में दुश्मन की तरफ से एक अकल्पनीय स्तर की क्रूरता देखने को मिली थी. यह लड़ाई हर इंच जमीन के लिए लड़ी गई थी. बोगरा पर कब्जा भारतीय सेना की एक ऐतिहासिक जीत थी, जिसमें 5/11 गोरखा राइफल्‍स के हर एक सैनिक ने दुश्मन के खिलाफ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

सामरिक दृष्टि से बेहद महत्‍वपूर्ण था बैटल ऑफ बोगरा
बांग्‍लादेश लिबरेशऩ वॉर को सफल बनाने में बैटल ऑफ बोगरा की अहम भूमिका रही है. दरअसल, पूर्वी पाकिस्‍तान (मौजूदा बांग्‍लादेश) का बोगरा शहर पाक सेना की 16 इन्फैंट्री डिवीजन और 205 इन्फैंट्री ब्रिगेड का सामरिक मुख्‍यालय था. पाकिस्‍तान ने इस शहर को एक बड़े लॉजिस्‍टिक बेस के रूप में विकसित किया था. इसके अलावा, उत्‍तर पश्चिम क्षेत्र में बसा यह बोगरा शहर पाक सेना का न केवल महत्‍वपूर्ण संचार केंद्र था, बल्कि रेल, सड़क और ऑपरेशन एयर स्ट्रिप के जरिए ढाका को पूर्वी पाकिस्‍तान के अन्‍य हिस्‍सों से जोड़ता था.

बोगरा के सामरिक महत्‍व को देखते हुए भारतीय सेना का इस शहर पर कब्‍जा करना बेहद महत्‍वपूर्ण था. इस शहर पर कब्‍जा कर पूर्वी पाकिस्‍तान के शेष हिस्‍सों से पाक सेना के संपर्क को तबाह किया जा सकता था. साथ ही, पाक सेना को मिलने वाली सामरिक मदद, रसद सामग्री और सैन्‍य मदद पर लगाम लगायी जा सकती थी. बोगरा पर कब्‍जे की जिम्‍मेदारी मेजर जनरल लक्ष्मण सिंह के नेतृत्‍व में 20 माउंटेन डिवीजन को मिली. वहीं, पाकिस्‍तान की तरफ से इस लड़ाई का नेतृत्‍व ब्रिगेडियर तजम्मुल हुसैन मलिक को मिला था.

बोगरा पर कब्‍जे के बाद हुआ पाक सेना का सरेंडर
बोगरा पर कब्‍जा करने के लिए भारतीय सेना की 5/11 जीआर ने दक्षिण और दक्षिण पूर्व से शहर पर हमला किया. वहीं भारतीय सेना की 6 गार्ड्स और 69 आर्म्‍ड रेजिमेंट ने टी-55 टैंकों के साथ बोगरा शहर पर चढ़ाई कर दी. भारतीय सेना से मुकाबला करने के लिए पाकिस्‍तान ने 205 इन्फैंट्री ब्रिगेड को तैनात किया था, जिसमें 32 बलूच, 8 बलूच और 4 फ्रंटियर फोर्स शामिल थीं. भारतीय सेना के आक्रामक रुख को देखते हुए पाक सेना ने बोगरा शहर को किले में तब्‍दील कर चारों तरफ पाकिस्तानी स्निपिंग और एम-24 चाफ़ी टैंकों को तैनात कर दिया था.

भारतीय सेना के जांबाजों की वीरता और साहस के सामने दुश्‍मन की कोई भी कोशिश काम नहीं आई. देखते ही देखते भारतीय सेना ने एक-एक कर सामरिक महत्‍व वाले सभी इलाकों और इमारतों को अपने कब्‍जे में ले लिया. पाक सेना की तमाम चौकियों पर भारतीय टैंकों ने गोलाबारी कर उन्‍हें तबाह कर दिया. जिसके बाद, हर मोर्चे पर हार चुकी पाकिस्‍तानी सेना के जवानों और अधिकारियों के सरेंडर का दौर शुरू हो गया. सबसे पहले 32 बलूच के कमांडर मेजर रज़ा, मेजर जनरल राव अली और 205 इन्फैंट्री ब्रिगेड के सूबेदार सरकार ने सरेंडर किया.

पाक ब्रिगेडियर को गुरूर पड़ा भारी, दौड़ा-दौड़ा कर जनता ने पीटा
16 दिसंबर 1971 की दोपहर 2 बजे तक पाकिस्‍तान सेना के 54 जूनियर कमीशंड ऑफिसर, 48 अधिकारी और विभिन्‍न रैंक के 1538 अधिकारियों ने भारतीय सेना के सामने समर्पण कर दिया था. भारतीय सेना ने सरेंडर करने वाले पाक सैनिकों से 79 एलएमजी, 1030 राइफल और 238 स्टेन गन जब्त कीं. हालांकि, बोगरा में युद्ध की अगुआई कर रहे ब्रिगेडियर तजम्मुल हुसैन मलिक ने आत्‍मसमर्पण करने से इनकार कर दिया. जिसके बाद, मेजर जनरल नज़र हुसैन शाह को खासतौर पर सरेंडर करने के लिए भेजा गया.

मेजर जनरल नज़र हुसैन शाह ने पाकिस्तानी सेना की पूरी 16 इन्फैंट्री डिवीजन ने भारतीय सेना के मेजर जनरल लक्ष्मण सिंह की 20 इन्फैंट्री डिवीजन के सामने सरेंडर कर दिया. वहीं, अपनी जीप से नटोर से भागने की कोशिश कर रहे ब्रिगेडियर तजम्मुल हुसैन मलिक को उनके एस्‍कार्ट के साथ स्‍थानीय लोगों ने पकड़ लिया. स्‍थानीय लोगों ने तजम्‍मुल को सड़क पर दौड़ा-दौड़ा कर पीटा और उसके हाथ-पैर तोड़ दिए. स्‍थानीय जनता ने बुरी तरह से जख्‍मी हालत में तजम्‍मुल को मुक्ति वाहिनी को सौंप दिया. हालत गंभीर होने पर तजम्मुल को मुक्ति वाहिनी ने युद्ध बंदी के तौर पर भारतीय सेना को सौंप दिया था.

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