सूरत दुनियाभर में कपड़ों के लिए नहीं, हीरों के काम लिए भी जाना जाता है.
दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, कल, एक दिसंबर को द्वारका में हुए बिगाड़ की दास्तान कहते-कहते आख़िर में बात यहां छूटी थी कि आज यानी दो दिसंबर को उसी सिलसिले की अगली कड़ी के बारे में बात करेंगे. बताएंगे कि किस तरह साल 1965 में पाकिस्तान ने एक बार द्वारका में बिगाड़ करने का मंसूबा बांधा था. मगर कामयाब न हो सका. यह वाक़ि’आ था सितंबर महीने का. हालांकि उस बारे में दास्तान अभी मुल्तवी करते हैं क्योंकि द्वारका के बारे में खोजते-खोजते हमें ‘द्वारका-पुरी’ का एक सिरा मिला गुजरात के ही सूरत में. और इस सूरत शहर में द्वारका से इतर एक दास्तान ऐसी मिल गई, जो आज की तारीख़ में मौज़ूं बन पड़ी है. इसमें भोपाल जैसे शहरों के लिए एक सबक है कि कोई चाह ले, इरादा कर ले तो सालों-साल नहीं, दिन-महीनों में ही सूरत-ए-हाल बदली जा सकती है. फिर चाहे वह इरादा करने वाला कोई अफ़सर हो, मंत्री-संतरी या फिर आम ‘अवाम.
दरअस्ल, सूरत और भोपाल का ये मेल इस तरह बैठा कि बीते वक़्त में इन दोनों ही शहरों में दो मुख़्तलिफ़ हादसे पेश आए. हालांकि तारीख़ी-पन्नों में भोपाल-हादसा (गैस-त्रासदी) यक़ीनन ज़्यादा ख़ौफ़नाक ठहरा है. और सूरत का हादसा उसके बराबर ठहरता नहीं. बावजूद-ए-कि सूरत के हादसे को कमतर नहीं आंका जा सकता और उसके बाद वहां जो हुआ, उसे तो बिल्कुल भी नहीं. ये बात है, सितंबर 1994 की. सूरत शहर में उन दिनों ‘न्यूमॉनिक प्लेग’ फैला था. यर्सिनिया पेस्टिस नाम के एक वायरस की वजह से ये बीमारी होती है. वैसे, जानकार लोग प्लेग को दुनिया की सबसे पुरानी बीमारियों में से एक गिनते हैं, जो चूहों की वजह से फैली गंदगी से भी होती है. बीते सालों में ये कई मरतबा दुनिया के तमाम मुल्कों में महामारी की तरह फ़ैली है. लाखों, करोड़ों लोगों की मौत की वज़ह बनी है. इसीलिए जैसे ही ‘न्यूमॉनिक प्लेग’ फैला, सूरत के लोग दहशत में आ गए.
दहशत में आ जाने की वज़ह एक ये भी थी कि ‘प्लेग’ कोई भी हो, एक से दूसरे इंसान में तेजी से फैलता है. जहां से बीमारी शुरू हुई, वहां हालात संभाले न जाएं तो उस इलाक़े से बाहर दूसरे इलाक़ों में भी इसे फ़ैलने में ज़्यादा देर नहीं लगती. इतना ही नहीं, बीमारों को वक़्त पर इलाज़ न मिले तो उनकी जान भी चली जाती है. बताते हैं, कुछ दिनों-हफ़्तों के फ़ासले से सूरत में भी इस बीमारी से 55-60 लोगों की जान चली गई थी. सो, लोगों के दिलों में डर बैठना कोई बड़ी बात नहीं थी. और इस डर का असर ये हुआ कि कहते हैं, तब लगभग आधा सूरत-शहर खाली हो गया था. तमाम लाेग महफ़ूज़ ठिकाने तलाशते हुए दूसरे इलाक़ों में चले गए थे. जाते जा रहे थे. इससे वहां के सबसे बड़े कारोबारों में शुमार होने वाला कपड़े और हीरे का कारोबार चरमराने लगा. दिन-पर-दिन कारख़ाने बंद होने लगे. बाज़ारों में सनाका-सा (औचक लगी चोट से बने हाल) खिंचने लगा.
ज़ाहिर तौर पर इस सबका असर सरकार के माली मु’आमलात पर भी हुआ. और वह एक-दम से सचेत हो गई और उसने अपने एक क़ाबिल अफ़सर को सूरत भेजा. सूर्यदेवरा रामचंद्र राव नाम हुआ है उनका. उन्हें लोग ‘राव-साहब’ भी कहा करते हैं. मई- 1995 में ‘राव-साहब’ ने बतौर नगर-निगम कमिश्नर अपने हाथ में सूरत की कमान संभाली और चंद महीनों के भीतर ही पूरे शहर के हालात पर क़ाबू कर लिया. क़रीब एक साल बाद उन्होंने ख़द ‘आउटलुक मैगज़ीन’ के नुमांइदे के साथ बातचीत में इस बारे में बताया कि वह कैसे कर पाए यह सब. राव-साहब के मुताबिक, ‘जब मुझे सूरत भेजा गया तो मेरे सामने करने-या-मरने जैसे हाल थे. कोई रास्ता ही नहीं था, इसके अलावा कि मैं जितनी ज़ल्द हो, शहर को साफ़-सुथरा करूं. सूरत वैसे भी बड़ा कारोबारी शहर है. ऐसे में गंदगी फ़ैलना यहां आम बात है. लेकिन इसी से बीमारी के हालात बिगड़ भी सकते थे’.
‘बल्कि बिगड़ते जा ही रहे थे. लोगों में इसी वज़ह से दहशत भी थी. लिहाज़ा सबसे पहले मुझे उनके दिल-दिमाग़ से वह डर दूर करना था. सो, मैंने एक कार्यक्रम शुरू किया ‘एसी-टु-डीसी’. यानी अफ़सर लोग अपने एयर-कंडीशंड कमरों से बाहर निकलें और डायरेक्ट कनेक्ट हों, लोगों से. उनसे बात करें. उनकी दिक़्क़तें सुनें. और जो भी हल मुमकिन हो, तुरंत करें, तेजी से करें. साथ ही, साफ़-सफ़ाई वग़ैरा के जो काम चल रहे हैं, उनका मौक़ा-मुआयना करें. यह सिलसिला मैं ख़ुद सुबह सात से ही शुरू करता था. इससे हमें दो फ़ायदे हुए. पहला ये कि हमने आम लोगों का भरोसा जीता. उनमें भरोसा जगाया भी. दूसरा- हम लोग मौक़े पर दूसरे हालात से भी वाक़िफ़ हो सके. मसलन- अतिक्रमण वग़ैरा जो हमेशा ही हर जगह गंदगी की बड़ी वज़ह होता है. लोगों के व्यवहार का मसला भी था. इस शहर में ज़्यादातर धनी-मानी और रसूख वाले लोग रहते हैं.’
‘इस क़िस्म के लोगों को नगर-निगम का कोई सफ़ाई-वाला ये नहीं कह सकता न, कि- जनाब अपने घरों के बाहर सड़क पर कचरा मत फेंकिए. इधर-उधर बे-तरतीब लगी हुईं बड़ी-बड़ी गाड़ियां हटा लीजिए, ताकि मैं सफ़ाई कर सकूं. ऐसे मु’आमलों में तो सरकार और कानून का क़ाइदा ही काम आता है. वह भी तब जब सरकार में से ही कोई क़ाइदे-पर, क़ाइदे-से अमल करना चाहे. लिहाज़ा, हमने यही किया. सबसे पहले तो बड़े रसूख वाले एक विधायक का अतिक्रमण हटाया. इससे मिसाल क़ायम हुई. और दूसरे अतिक्रमण भी हटाए जा सके. फिर उन लोगों को खंगाला, जिनके ऊपर नगर-निगम का एक लाख रुपए से ज़्यादा टैक्स बक़ाया था और वे बरसों से दे नहीं रहे थे. उनसे सख़्ती से टैक्स-वसूली की. सिर्फ़ यही नहीं, नगर-निगम के ओहदेदार भी, जो अपना काम ठीक से नहीं करते थे, सख़्ती के दायरे में लाए गए. ऐसे क़रीब 1,200 लोगों पर कार्रवाई की गई’.
‘इस सबके बाद फिर गंदगी फ़ैलाने, अतिक्रमण करने या टैक्स न देने वाले दीगर लोग तो क्या ही बचते. सो, हमने ऐसे क़रीब 35,000 लोगों को नोटिस (राव-साहब ने अक्टूबर-1996 में ऐसा इंडिया टुडे मैगज़ीन के नुमांइरे को बताया था) दिए. उन पर ज़ुर्माना लगाने जैसी कार्रवाई की. साथ ही हम साफ़-सफ़ाई से जुड़ी अपनी सीधी-ज़िम्मेदारी पर भी ध्यान दे रहे थे. जैसे, नालियों की सफ़ाई, उन्हें अच्छे से ढंकने का बंदोबस्त, तमाम इलाक़ों से रोज़ कचरा उठवाने और सही जगह फिकवाने का इंतज़ाम, सड़कें चौड़ी करना, आम लोगों के लिए शौचालय बनवाना, वग़ैरा. इसका कुल-जमा नतीज़ा ये हुआ कि नवंबर-दिसंबर- 1995 तक, महज़ छह-सात महीनों ही शहर की सूरत-ए-हाल बदल गई. न्यूमॉनिक-प्लेग की बीमारी तो क़ाबू में आई ही, ख़त्म हो गई. साथ में, लोगों का भरोसा क़ायम हुआ और सूरत ने एक साफ़-सुथरे शहर के तौर पर भी पहचान बनाई’.
तो जनाब, सूरत के बाद अब बात भोपाल की. मध्य प्रदेश की राजधानी. बड़े-बड़े अफ़सरों, वज़ीरों, वज़ीर-ए-आला समेत पूरी सरकार यहां बैठती है. साल 1984 की दो-तीन दिसंबर की दरम्यानी रात भी ये पूरा ‘सरकारी अमला’ यहीं था, जब दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदियों में शुमार ‘गैस-हादसे’ ने इस शहर के बड़े हिस्से को जकड़ लिया था. उस हादसे को अपनी आंखों से देखने वाले कुछ चश्म-दीद आज भी भोपाल में मौज़ूद हैं. वे पुख़्तगी करते हैं कि शहर के पुराने इलाक़े में गैस की मार खाने वालों की लाशें पत्तों की तरह बिछ गईं थीं. क्या बच्चे, क्या बड़े, क्या बूढ़े. क्या औरत, क्या मर्द. दौड़ते-भागते सब बे-जान ज़िस्मों में तब्दील होते जा रहे थे. सरकार ने उस वक़्त ‘गैस-हादसे’ में मारे गए करीब 2,259 लोगों का आंकड़ा पुख़्ता किया था. हालांकि बाद में जब मुआवज़ा बांटा, तो मरने वालों का यह आंकड़ा बढ़ाकर 3,700 से कुछ ज़्यादा मान लिया.
अलबत्ता, लोगों ने, जानकारों ने, ख़बर-नवीसों ने सरकार का ये आंकड़ा कभी नहीं माना. इन सभी के जो मिले-जुले अंदाज़े हैं, उनके मुताबिक भोपाल गैस-हादसे में क़रीब 15 से 20 हजार लोग मारे गए. क्योंकि मरने वालों का सिलसिला सिर्फ़ दिन-महीनों तक नहीं ठहरा. बल्कि सालों-साल तक चला और आंकड़ा बढ़ता रहा. और इस हादसे में जो लोग बच रहे, उनमें भी तमाम ऐसे हैं, जो ज़िंदा लाश की तरह घूमते नज़र आए. यहां तक उनकी अगली पीढ़ियां भी ‘गैस-की-मार’ के असर में दिखाई दीं. उनके ज़िस्म पर, शरीर के भीतरी हिस्सों में इसकी निशानियां पाई गईं, जिनके साथ ही उन्हें जिंदगी गुज़ारनी पड़ी. इस सबके बावजूद आज तक, आज 38 सालों बाद तक भी भोपाल-शहर इस हादसे के साए में पाया जाता है. उस हादसे के निशान अब तक इस शहर में जस-के-तस दिखते हैं. बस, नहीं दिखता तो उन निशानियों को हमेशा के लिए हटाने का इरादा.
सूरत ने छह महीनों में अपनी ‘सूरत’ बदल ली. भोपाल आज 38 साल बाद भी गैस-हादसे के धब्बे अपने दामन से हटा नहीं पाया है. लोगों को फ़िक्र है. वे हर साल इस हादसे की बरसी पर दो-तीन दिसंबर की तारीख़ों में झंडा बलंद करते हैं. नारे लगाते हैं. आवाज़ें उठाते हैं. लेकिन ये आवाज़ें कहीं अंधेरी खोह में ग़ुम हो जाती हैं. ख़बर-नवीसों की फ़िक्र भी नज़र आती है. लेकिन अब सिर्फ़ इन्हीं दो तारीख़ों पर, कुछ-कुछ रस्म-अदायगी की तरह. और सरकार? वह तो रस्म-अदायगी भी भूलने को है शायद. काश! भोपाल-शहर को भी सूरत की तरह कोई ‘राव-साहब’ मिले होते. लेकिन इस शहर की क़िस्मत में तो आए दो ऐसे ‘साहब’ जो इतने ख़ौफ़नाक हादसे के सबसे बड़े अपराधी को बा-‘इज़्ज़त शहरी-हद ही नहीं, कानून के दायरे से भी बाहर छोड़ आए थे. कभी वक़्त मिले, तो पढ़िएगा इस हादसे के बारे में. नाम बड़े-बड़े अक्षरों में मिलेंगे तारीख़ी दस्तावेज़ में.
आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़.
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