दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक्ती तौर पर मौजूं हों तो बेहतर. न हों,biबीते दौर के हों तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज…
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जनाब, हिन्दुस्तान की आज़ादी के वक़्त या यूं कहिए कि मुल्क के बंटवारे के दौर में जो इलाके सबसे ज़्यादा लहू-लुहान हुए, उनमें बंगाल सबसे ऊपर था. इस सूबे को भी दो हिस्सो में बांट दिया गया था. एक पूरब का बंगाल, दूसरा पश्चिम का. पूरब का बंगाल पाकिस्तान के हिस्से में आया और पश्चिम का हिन्दुस्तान के. दोनों तरफ़ से लाखों लोग पुश्तैनी ज़मीन-जायदाद, मकान-दुकान, खेत-खलिहान छोड़कर इधर से उधर हो रहे थे. मज़हबी फ़सादात भी लंबे वक़्त तक जारी रहे, जिनमें लाखों लाशें सड़कों पर बिछा दी गईं थीं. बे-क़सी, लाचारी का आलम था. बेघरों की भीड़ दोनों तरफ़ लगी हुई थी, जिसे मुफ़लिसी के हालात में तंबुओं में पनाह मिली हुई थी. इस भीड़ में शुमार बच्चों, बुज़ुर्गों, औरतों की सेहत का क्या होगा? नौनिहालों की तालीम का क्या होगा? उनका मुस्तक़बिल उन्हें कहां से कहां ले जाएगा, किसी को भी पता नहीं था. कुछ सूझ नहीं रहा था.
मतलब कुल जमा ये कि यह इस तरह के मर्ज़ आ लगे थे आज़ादी के साथ ही, कि जिनका इलाज़ किसी के लिए भी आसान न था. बताते हैं कि तब महात्मा गांधी के मशविरे पर उन्हीं के एक डॉक्टर को कांग्रेस पार्टी ने बंगाल की मरहम-पट्टी का ज़िम्मा सौंपा था. डॉक्टर बिधान चंद्र रॉय, जो उस वक़्त गांधी जी के साथ दिल्ली में ही थे. कहते हैं, शुरू में राज़ी नहीं हुए डॉक्टर बिधान क्योंकि वे डॉक्टरी के अपने पेशे से ही लोगों की मदद करना चाहते थे. लेकिन जब महात्मा गांधी ने जोर दिया तो फिर मना नहीं कर सके वे. बतौर वज़ीर-ए-आला (मुख्यमंत्री) बंगाल की कमान संभाल ली उन्होंने. ये बात हुई, साल 1948 के जनवरी महीने की 23 तारीख़ की. कहते हैं, इसके बाद महज़ तीन बरस के भीतर उनकी अगुवाई में बंगाल के हालात पूरी तरह दुरुस्त हो गए. हालांकि इसके बाद भी वे जून 1962 तक वज़ीर-ए-आला की हैसियत से बंगाल को तरक़्क़ी देते रहे.
जून 1962 तक क्यों? क्योंकि ये महीना पूरा होते ही अगले रोज़ यानी पहली जुलाई को बिधान चंद्र रॉय इस दुनिया को अलविदा कह गए. वह साल था 1962 का. इत्तिफ़ाक़न इसी तारीख़ पर उनकी पैदाइश भी हुई थी, 1882 में. कुल 80 बरस रहे डॉक्टर बिधान चंद्र इस दुनिया में और इस दौरान सैकड़ों ऐसे काम कर गए कि बंगाल में तो लोग उन्हें ‘मसीहा’ मानने और कहने लगे थे. मिसाल के तौर पर, जिस दौर में उन्होंने वज़ीर-ए-आला का ओहदा संभाला, हजारों-लाखों लोगों के पास रहने, गुज़र-बसर करने की दिक़्क़तें थीं. लिहाज़ा उन्होंने पुरानी बसाहटों को नया आकार देना शुरू किया. पूरी मंसूबा-बंदी (योजना) के साथ. इसके नतीज़े में कल्याणी, दुर्गापुर, बिधाननगर, हाबड़ा, अशोकनगर जैसे शहर उस शक्ल-ओ-सूरत में सामने आए, जिनमें आज उन्हें देखा जाता है. इनमें से बिधाननगर की तो पहचान ही डॉक्टर बिधान चंद्र के नाम से हुई आगे फिर.
और लोगों की सेहत का ख़्याल रखना, ये तो पेशा ही था उनका. सो, इस ज़ानिब उन्होंने वज़ीर-ए-आला बनने से काफ़ी पहले काम शुरू कर दिया था. साल 1911-12 से ही, जब वे लंदन से डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी कर के हिन्दुस्तान लौटे. तब से लेकर सूबे के वज़ीर-ए-आला होने तक वे कई मेडिकल कॉलेजों, अस्पतालों को बनाने, उन्हें नई सूरत देने में अहम किरदार अदा कर चुके थे. बतौर मिसाल- चितरंजन सेवा सदन (कलकत्ता), कमला नेहरू अस्पताल (प्रयागराज), आरजी कर मेडिकल कॉलेज (कलकत्ता), चितरंजन कैंसर अस्पताल (कलकत्ता), जादवपुर टीबी अस्पताल (जादवपुर) वग़ैरा. इतना ही नहीं, लोगों की सेहत का ख़्याल रखने के काम को डॉक्टर बेहतर तरीके से कर सकें, इस मक़सद से उन्होंने साल 1928 में हिन्दुस्तानी डॉक्टरों की एक तंज़ीम (संगठन) बनवाई. इसका नाम रखा गया, ‘इंडियन मेडिकल एसोसिएशन’. यानी आईएमए, जो आज भी है.
डॉक्टर बिधान चंद्र को इस बात की भी चिंता रहती थी कि डॉक्टरों की पढ़ाई में कोई कोताही (नुक़्स या कमज़ोरी) न हो. साथ ही, वे लोग भी पढ़-लिख लेने के बाद अपने पेशे में कोई कोताही न बरतें. लिहाज़ा फिर कुछ बरस बाद उन्हीं की पहल पर ‘मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया’ (एमसीआई) ने सूरत पाई. यह साल था 1934 का. डॉक्टरों की पढ़ाई और पेशे पर नज़र रखने का ज़िम्मा एमसीआई के दायरे में आया. आगे चलकर 1939 से 1945 के बीच ख़ुद डॉक्टर बिधान चंद्र एमसीआई के मुखिया भी रहे. यही नहीं, दिमाग़ी और छुआछूत से फैलने वाली बीमारियों के इलाज़ के लिए उन्होंने अपनी तरफ़ से कोशिशें कर बंदोबस्त करवाए. इन कोशिशों के नतीज़े में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ और इन्फेक्शस डिजीज़ हॉस्पिटल वग़ैरा को सूरत मिली. बताते हैं कि कलकत्ते का पहला पोस्ट-ग्रेजुएट मेडिकल कॉलेज भी डॉक्टर बिधान चंद्र की पहल पर खुला था.
इसीलिए साल 1991 में पहली बार जब हिन्दुस्तान की सरकार ने ‘डॉक्टर्स-डे’ मनाने का फ़ैसला किया तो उसके लिए तारीख़ चुनी एक जुलाई की. यानी वह दिन, जो डॉक्टर बिधान चंद्र की पैदाइश और इंतक़ाल से तअल्लुक़ रखता है. और किसी को अचरज न हुआ सरकार के फ़ैसले पर, बल्कि तारीफ़ ही की सबने. अपने शागिर्दों और जानने वालों से अक्सर कहा करते थे डॉक्टर बिधान, ‘हम आप लोगों में क़ाबिलियत कम नहीं है. इसलिए अगर हम अपने मुस्तक़बिल (भविष्य) पर भरोसा रख पूरा जोर लगाकर मेहनत करें तो कोई मुश्किल ऐसी नहीं, जिससे पार न पाया जा सके. मुश्किलात कुछ अज़ीम (बड़ी) लग सकती हैं. अहसास दिला सकती हैं कि उनसे पार नहीं पाया जा सकता. लेकिन बावज़ूद इसके वे हमारे हौसले के सामने हारेंगी. वे हमारी तरक़्क़ी की राह नहीं रोक सकतीं.’ इस तरह के पक्के इरादे वाले थे डॉक्टर बिधान चंद्र रॉय, जिनके सामने सेहत के महात्मा में, महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसे दिग्गजों की भी एक न चलती थी.
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* दास्तान-गो : सेहत के मामले में गांधी-नेहरू की भी नहीं चलती थी बिधान चंद्र के सामने
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