दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक्ती तौर पर मौजूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज…
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वह अप्रैल का महीना था जनाब. साल 1962 का. हिन्दुस्तान के पहले वज़ीर-ए-आज़म (प्रधानमंत्री) पंडित जवाहरलाल नेहरू की तबीयत नासाज़ थी उस वक़्त. तमाम डॉक्टर उनकी तीमारदारी में लगे हुए थे. डॉक्टर उन्हें मशविरा दिया करते कि कुछ रोज़ ‘आराम फ़रमा लिया जाए. सेहत ठीक हो जाए तो फिर बाकी दिनों की तरह मेहनत कर लिया कीजिए.’ लेकिन पंडित जी हैं कि किसी की सुनते नहीं थे. बताते हैं, तब पंडित जी के डॉक्टरों को तब के पश्चिम बंगाल के वज़ीर-ए-आला (मुख्यमंत्री) डॉक्टर बिधान चंद्र का ख़्याल आया. उन्हें पैग़ाम भेजा गया कि ‘पंडित जी को समझाइए. नहीं तो वे अपनी तबीयत और बिगाड़ लेंगे.’ कहते हैं, यह ख़बर मिलते ही डॉक्टर बिधान चंद्र की तरफ़ से ज़वाबी पैग़ाम आया, जो पंडित जी के लिए था. इसमें ताकीद थी कि ‘आप को आपकी देख-रेख करने वाले डॉक्टरों का मशविरा मानना है.’ तब कहीं पंडित जी नरम पड़े.
अमेरिका का बड़ा पुराना अख़बार है जनाब. ‘वॉशिंगटन टाइम्स हेराल्ड’ नाम का. वहां के इंडियाना सूबे से निकला करता है. उसी में तब पंडित नेहरू के एक डॉक्टर के हवाले यह ख़बर छपी थी. और उसमें लिखा था, ‘डॉक्टर बिधान का क़द इतना बड़ा है कि वे सेहत के मामले में नेहरू को भी ये हिदायत दे सकते हैं कि डॉक्टरों के मशविरे मानिए.’ और नेहरू जी तो क्या डॉक्टर बिधान महात्मा गांधी को भी ऐसे मामलों में ज़्यादा छूट नहीं दिया करते थे, ऐसा कहा जाता है. वे बापू के निजी डॉक्टरों में शुमार होते थे. फरवरी 1943 की बात है ये. हिन्दुस्तान के सियासी मामलों में मुल्क के नेताओं और अंग्रेज वायसराय के बीच जारी बातचीत से कोई नतीज़ा नहीं निकल रहा था. तब महात्मा गांधी पुणे में थे. उन्होंने वहीं के आगा खान पैलेस में 21 दिनों की भूख हड़ताल का एलान कर दिया. इस मांग के साथ कि जल्द ही बातचीत से कोई पुख़्ता नतीज़ा निकाला जाए.
हिन्दुस्तान के आला नेताओं ने इतना सुनते ही सबसे पहले तो डॉक्टरों की टीम बापू की देखभाल के लिए भेजी. इसके बाद सियासी मसले पर जारी बातचीत में नतीज़े की तरफ़ पहल की. बताते हैं, बापू के पास पहुंची डॉक्टरों की उस टीम की अगुवाई तब डॉक्टर बिधान चंद्र रॉय ही कर रहे थे. वे ही 21 दिनों तक लगातार दिन में दो-तीन मर्तबा ख़बरनवीसों को बापू की सेहत की जानकारी दिया करते थे. और बापू से इन डॉक्टर साहब का रिश्ता कैसा था, वह भी जान लीजिए. इसी पूना में इस वाक़्ये से करीब 10 बरस पहले यानी 1933 में भी बापू ने 21 दिन की ही भूख हड़ताल की थी. मई महीने की आठ तारीख़ को यह सिलसिला शुरू हुआ था. एक अज़ीम मुसन्निफ़ (लेखक) हुए सुधीर चंद्र. उनकी किताब, ‘गांधी का सर्वोत्तम उपवास और अहिंसा की असहायता’ में इसका ज़िक्र है. पर्णकुटी में यह भूख हड़ताल की थी बापू ने. दवाई लेने से मना कर दिया था.
उस वक़्त भी उनकी देख-रेख का ज़िम्मा डॉक्टर बिधान चंद्र के पास था. उन्होंने बार-बार गुज़ारिश की बापू से कि ‘दवा ले लीजिए. नहीं तो, आपकी सेहत गिर जाएगी.’ लेकिन बापू ने अपनी दलील पेश कर दी, ‘मुझे आपसे इलाज़ क्यों लेना चाहिए? क्या आप मेरे देश के 40 करोड़ लोगों का मुफ़्त में इलाज़ करते हैं?’ ज़वाब में डॉक्टर रॉय बोले, ‘नहीं गांधी जी, मैं अपने सभी मरीज़ों का मुफ़्त में इलाज़ नहीं कर सकता. लेकिन मैं यहां भी मोहनदास कर्मचंद गांधी का इलाज़ करने नहीं आया हूं. बल्कि उनका इलाज़ करने आया हूं, जो मेरे देश के 40 करोड़ लोगों के प्रतिनिधि हैं.’ बताते हैं, इसके बाद गांधी जी कुछ नहीं कह सके. उन्होंने चुपचाप डॉक्टर बिधान चंद्र की दी हुई दवा ली और इलाज़ को भी मंज़ूरी दी आगे. पर ज़नाब ठहरिए, डॉक्टर बिधान चंद्र का ये रुतबा सिर्फ़ हिन्दुस्तान के भीतर था, ऐसा भी नहीं है. कुछ किस्से इससे आगे का भी बताते हैं.
साल 1961 की बात है ये. डॉक्टर बिधान चंद्र बंगाल के वज़ीर-ए-आला की हैसियत से अमेरिका के दौरे पर गए थे. वहां के सद्र-ए-रियासत (राष्ट्रपति) जॉन एफ़ कैनेडी हुआ करते थे. उम्र महज़ 44 साल थी उनकी. लेकिन कमर में दर्द रहा करता था. बा-हैसियत डॉक्टर, बिधान चंद्र की मशहूरियत से ख़ूब वाक़िफ़ थे कैनेडी. लिहाज़ा, उनसे मेल-मुलाक़ात का वक़्त तय कर लिया. सियासी बातों के साथ लगे हाथ कमर का दर्द भी दिखवा लेने का इरादा था उनका. बताते हैं, उस दौरान डॉक्टर बिधान चंद्र ने कैनेडी के मर्ज़ का जो इलाज़ किया वो तो किया ही. मगर उससे अलहदा कैनेडी की एक बात तब ख़बरों की दुनिया में बड़ी सुर्ख़ी बनी थी. वहां के एक अख़बार ‘न्यू यॉर्क टाइम्स’ ने तब लिखा था, ‘मिस्टर प्रेसिडेंट ने मंशा जताई है कि क़ाश! डॉक्टर साहब की उम्र तक पहुंचकर वे भी उनकी तरह ही जोशीले और फ़ुर्तीले बने रहें.’ डॉक्टर बिधान तब 79 बरस के थे.
इसके बाद अमेरिका से थोड़ा मुल्क-ए-ब्रितानिया (इंग्लैंड) की ज़ानिब आइए. मई 1911 का वाक़्या है ये. डॉक्टर बिधान चंद्र के हयात-नामे (बायोग्राफ़ी) में ज़िक्र है, इसका. उस साल तक डॉक्टर बिधान को वहां दो बड़ी कामयाबियां मिल चुकी थीं. एक- वे वहां के रॉयल कॉलेज ऑफ फ़िजीशियंस के मेंबर बन चुके थे. दूसरा- रॉयल कॉलेज और सर्जंस में भी उन्हें शामिल किया गया था. इसके बाद कोई एक जलसा हुआ. उसमें सेंट बार्थोलोम्यू मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल के डीन डॉक्टर शॉ भी थे. पछतावा जता रहे थे, ‘मैं सच में, बहुत शर्मिंदा हूं कि जब आप (डॉक्टर बिधान) पहली बार मेरे पास आए तो मैंने आपको इस कॉलेज में दाख़िला देने से मना कर दिया था.’ ग़ौर कीजिए, महज़ 1,200 रुपए लेकर लंदन पहुंचे डॉक्टर बिधान को 30 बार, पूरे 30 बार इस कॉलेज में दाख़िला लेने के लिए डॉक्टर शॉ के सामने अर्ज़ी लगानी पड़ी. तब दाख़िला हुआ उनका.
यही डॉक्टर बिधान, जब कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे तो उसी बीच वालिद प्रकाश चंद्र रॉय सरकारी नौकरी से रिटायर हो गए. पटना में नौकरी थी उनकी. वहीं बिधान की पैदाइश और शुरुआती पढ़ाई भी हुई. वालिद प्रकाश चंद्र का तअल्लुक़ जसोर के महाराजा प्रतापादित्य के ख़ानदान से था. इसके बावज़ूद माली हालात ऐसे हुए कि उन्हें सरकारी नौकरी करनी पड़ गई. और जब रिटायर हुए तो उनके हाथ में बहुत ज़्यादा बचत नहीं बची थी कि वे बिधान की पढ़ाई के लिए ख़र्च दे पाएं. तब बताते हैं, बिधान ने कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में ही कुछ वक़्त तक मरीज़ों की तीमारदारी का काम भी किया था. मुल्क की आज़ादी की लड़ाई में उतरने की इच्छा भी थी. लेकिन रोका ख़ुद को, यह सोचकर कि पहले ऊंची तालीम हासिल करेंगे, फिर उसके ज़रिए मुल्क की ख़िदमत करेंगे. और फिर आगे चलकर यही किया भी उन्होंने, ता-ज़िंदगी.
साल 1911 में ही, जुलाई के महीने में लंदन से हिन्दुस्तान लौट आए थे डॉक्टर बिधान. यहां आकर सबसे पहले ग़रीबों की ख़िदमत शुरू की. मुफ्त में इलाज़ किया करते थे उनका. लेकिन जो पैसे दे सकते, उनसे आठ रुपए लिया करते. मुख़्तलिफ़ कॉलेजों में पढ़ाने का काम भी करते साथ ही साथ. इसके बाद साल 1925 में सियासत में उतर आए. सबसे पहले बैरकपुर से चुनाव लड़ा आज़ाद कैंडीडेट की तरह. पहली ही बार में सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे बड़े नेता को हराकर बंगाल विधान परिषद में चुन लिए गए. हालांकि साल-दो साल बाद ही कांग्रेस में शामिल हो गए. और फिर पूरी ज़िंदगी उसी का हिस्सा रहे. इसी बीच 1931-33 तक कलकत्ते के महापौर भी रहे. इस ओहदे पर रहते हुए उन्होंने जो काम किए, बताते हैं, आज तक उनकी नकल की जाती है. मसलन- ग़रीबों के लिए सेहत, उनके बच्चों को तालीम वग़ैरा के मुफ़्त इंतज़ामात करना.
इस तरह के काम ही थे डॉक्टर बिधान चंद्र के कि बंगाल ने उन्हें ‘मसीहा’ कहा. हिन्दुस्तान ने ‘भारत रत्न’ से नवाज़ा. साथ ही एक ख़ास दिन (नेशनल डॉक्टर्स डे) उन्हें हर साल याद करने और रखने के लिए मुक़र्रर किया. और दुनिया ने? कहते हैं, उनके इंतक़ाल के वक़्त ‘ब्रिटिश मेडिकल जर्नल’ ने जुलाई 1962 में ही लिखा था, ‘भारतीय उपमहाद्वीप के पहले डॉक्टर थे डॉक्टर बिधान, जो कई क्षेत्रों में अपने समकालीन लोगों से बहुत आगे रहे. और डॉक्टरी के पेशे के मामले में तो वे शायद दुनिया के सबसे बड़े नामों में शुमार हुए. किसी जगह जिनके पहुंचने पर रेलवे स्टेशनों समेत पूरे शहर में बड़े होर्डिंग लगाए जाते थे. ताकि मरीज़ों को उन तक पहुंचने की सुविधा हो.’
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