दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक्ती तौर पर मौजूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज…
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…मतलब देवेगौड़ा को अच्छी तरह पता था कि कुछ कर दिखाने का उनके पास वक्त बहुत कम है और शायद आख़िरी भी. क्योंकि ये ऐसा अवसर था, जो दोबारा मिलेगा इसका पता नहीं था. और इसके बाद वे किसी दूसरे बड़े कार्यकारी पद को संभाल पाएंगे, यह भी मुश्किल था. बल्कि बताते तो यहां तक हैं कि उन्होंने वामदल के बड़े नेता और तब पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु से साफ कह दिया था, ‘सर, रहने दीजिए न. मैं आपकी तरह लंबे समय मुख्यमंत्री बने रहना चाहता हूं. प्रधानमंत्री के तौर पर दिल्ली आने की मेरी इच्छा नहीं है. वैसे भी, कांग्रेस इस सरकार को चलने नहीं देगी. परस्थितियां जो भी हों, मेरा कार्यकाल पूरा नहीं होने दिया जाएगा. ऐसे में, अधूरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री पद छोड़ने के बाद जब मुझे कर्नाटक लौटना पड़ेगा, तो मैं यहां मुख्यमंत्री भी नहीं बन पाऊंगा.’ लेकिन ज्योति बसु नहीं माने. जोर देकर देवेगौड़ा को समझाते हुए बोले, ‘यह ज़िम्मेदारी आपको लेनी ही चाहिए. समय की मांग है.’ और देवेगौड़ा ने हथियार डाल दिए.
इधर, दिलचस्प ये जानना भी हो सकता है कि ज्योति बसु के सामने ख़ुद उस वक्त प्रधानमंत्री पद संभालने का विकल्प था. लेकिन उन्होंने उसी तरह की आशंकाओं के कारण ख़ुद को दूर कर लिया था, जिस तरह की देवेगौड़ा ने जताई थीं. बहरहाल, देवेगौड़ा ने इस चुनौती को स्वीकार किया और देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री बने जिसका अनुसूचित जाति वर्ग से ताल्लुक था. यही नहीं, महज 10 महीने 20 दिन के कार्यकाल में इतना कुछ कर दिया, जो पूर्व के प्रधानमंत्रियों के लिए दूर की कौड़ी थी. मसलन, जम्मू-कश्मीर उस वक्त आतंकवाद के गंभीर दौर से गुजर रहा था. बीते छह साल से चुनाव नहीं हुए थे. राज्यपाल का शासन चल रहा था. लिहाज़ा, देवेगौड़ा ने सबसे पहले उसी को प्राथमिकता में रखा. कार्यभार संभालने के एक महीने के भीतर जुलाई में जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर पहुंच गए. सभी पक्षों से बात की. विश्वास बहाली का रास्ता तलाशा. विकास की परियोजनाओं का खाका लोगों के सामने रखा. उनमें आशा की किरण जगाने के बाद वापस लौट आए.
जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक़ अब्दुल्ला उस दौरान लंदन में थे. देवेगौड़ा ने दिल्ली लौटकर सीधे उन्हें फोन लगाया और बोले, ‘फारूक़ साहब आइए, चुनाव कराते हैं.’ फारूक़ को तब यक़ीन नहीं हुआ. क्योंकि हालात तो चुनाव के लायक थे ही नहीं. पर देवेगौड़ा पर भरोसा कर के वे लौटे और महज़ दो महीने के भीतर सितंबर में जम्मू-कश्मीर में चुनाव होते हुए उन्होंने देखे. इसके बाद फारूक़ फिर मुख्यमंत्री ही नहीं बने बल्कि देवेगौड़ा के मुरीद भी बन गए. फिर कुल तीन बार और देवेगौड़ा जम्मू-कश्मीर के दौरे पर गए. एक बार तो सुरक्षा चेतावनी को नज़रंदाज़ कर खुली जीप में सीमा के पास तक उरी में जनसभा को संबोधित कर के आ गए. वहां 300 मेगावॉट की जलविद्युत परियोजना का उद्घाटन किया जाना था. लेकिन प्रधानमंत्री का सुरक्षा दस्ता इसके लिए तैयार नहीं था कि देवेगौड़ा वहां जाएं. जान को ख़तरा था. तब केंद्र के एक मंत्री ने फारूक़ अब्दुल्ला को फोन पर बताया, ‘प्रधानमंत्री नहीं आ रहे हैं. सुरक्षा के लिहाज़ से उन्हें हरी झंडी नहीं मिल रही है.’
बताते हैं कि इसके बाद फारूक़ अब्दुल्ला ने फोन पर उन मंत्री से कह दिया, ‘अगर देश के प्रधानमंत्री को जम्मू-कश्मीर में ख़तरा है, तो फिर मैं मुख्यमंत्री के तौर पर क्या कर रहा हूं. कह दीजिए उनसे, मैं इस्तीफ़ा दे रहा हूं.’ यह संदेश देवेगौड़ा तक पहुंचना था कि उन्होंने रात 12 बजे फारूक़ को फोन लगा दिया. और बोले, ‘मैं आ रहा हूं. हमें जम्मू-कश्मीर का भरोसा जीतना है.’ इसके बाद खुली जीप में राजौरी हवाई अड्डे से उरी तक गए. सभा की और लोगों को भरोसा दिलाया कि उनकी समस्याओं का जल्द समाधान होगा. सिर्फ़ यही नहीं, पंजाब में भी उस वक्त हालात ठीक नहीं थे. देवेगौड़ा के कार्यकाल के दौरान ही फरवरी 1997 में वहां भी विधानसभा चुनाव हुए. नगालैंड के उग्रवादियों को संघर्ष-विराम के लिए राजी करना और पूर्वोत्तर में 6,100 करोड़ रुपए की विकास परियोजनाओं की शुरुआत भी उनके समय हुई. इनमें असम की ब्रह्मपुत्र नदी पर बोगीबील पुल के निर्माण की शुरुआत भी एक थी. इसका उद्घाटन अभी कुछ समय पहले नरेंद्र मोदी ने किया था.
विदेश नीति के मोर्चे पर भी कमी नहीं रही. पहली बार चीन और इजराइल के राष्ट्रपति भारत आए तो देवेगौड़ा के दौर में. बांग्लादेश से जल-बंटवारे का समझौता हुआ. नेपाल के साथ महाकाली संधि की पुष्टि हुई. ऐसे कई बड़े काम उनके छोटे कार्यकाल में हो गए. और शायद यही ‘उनके अपनों’ को रास नहीं आया. उनकी छवि ऐसी बनाई जाने लगी कि वे संसद में या अहम कार्यक्रमों के दौरान सोते रहते हैं. मनमानी करते हैं. सभी पक्षों को भरोसे में नहीं लेते. इसके अलावा, उनके बारे में एक और बात कही जाती कि हर वक्त उनकी नज़र कर्नाटक के सियासी घटनाक्रमों पर रहा करती है. हरकिशन सिंह सुरजीत तो यहां तक कहते कि देवेगौड़ा ‘प्रधानमंत्री जैसे पद पर बैठकर भी कर्नाटक के पंचायत चुनावों तक के गुणा-भाग में लगे रहते हैं.’ यह कुछ हद तक सही भी था.
इसकी वज़ह ये रही शायद कि देवेगौड़ा जानते थे कि उन्हें ‘लौटना तो कर्नाटक ही है. उनका सियासी भविष्य वहीं है, दिल्ली में नहीं.’ हालांकि ऐसा बहुत लोगों का मानना है कि देवेगौड़ा ने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका को वैसा विस्तार नहीं दिया, जैसा वह दे सकते थे. उनका व्यक्तित्त्व ‘दूर-दर्शी’ हुआ. इस नाते वे अपना दृष्टिकोण विस्तारित करते, अपनी संभावनाओं को थोड़ा और खंगालते उन्हें धकियाते, तो शायद देश उनकी दूर-दर्शिता से अधिक लाभान्वित होता. लेकिन बेहद अंतर्मुखी व्यक्तित्त्व वाले देवेगौड़ा ने ऐसी कोई महात्त्वाकांक्षा प्रदर्शित नहीं की. कर्नाटक की राजनीति का मोह भी रहा हो संभवत:, जिससे उनकी नज़रें वहां से हट नहीं पाईं. इसका नतीज़ा ये हुआ कि प्रधानमंत्री पद से मुक्त होने के बाद सच में, वे सीमित भी कर्नाटक तक ही रहे फिर.
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