दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक्ती तौर पर मौजूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज…
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कभी-कभी कुछ चीज़ें किसी शख़्स की शख़्सियत पर ऐसी हावी हो जाती हैं कि उससे जुड़ी बाकी बातें पीछे छूट जाया करती हैं. मसलन- गायत्री देवी. राजपूताने के जयपुर राजघराने की महारानी. इनका भी मामला कुछ-कुछ ऐसा ही है. इनकी ख़ूबसूरती बला की थी. दुनियाभर में चकाचौंध थी उसकी. ऐसी कि फैशन जगत की सुर्खियां समेटने वाली पत्रिका ‘वोग’ ने एक वक़्त इन्हें दुनिया की 10 सबसे ख़ूबसूरत महिलाओं में शुमार किया. ये बात है 1954 की. गायत्री देवी को 10 में ऐसी महिलाओं के बीच छठें पायदान पर रखा गया. मग़र यह वाक़या आगे ऐसा साबित हुआ गोया कि गायत्री देवी ख़ूबसूरती की जागती मूरत ही हों, बस. जबकि हक़ीक़त इतर भी थी बहुत कुछ.
गायत्री देवी नाम था एक ऐसी शख़्सियत का जो सत्ता को सीधे चुनौती देती थी. जो सरेआम समाज की बंदिशों को जब मर्ज़ी, ठेंगा दिखा दिया करती थी. जिसे रियाया की फ़िक्र किया करती थी. ऐसे कि इसके लिए वह चुनावी जलसे में चुनी गई सरकारों की परवा न करती. जो मर्दों को उन्हीं के खेल, उन्हीं के मैदान में मात दिया करती थी. और ऐसी गायत्री की यह शख़्सियत कोई बरस-दो बरस में नहीं बनी थी. पहले की दो पीढ़ियां लगीं थीं, इसमें. तब कहीं इस पर ऐसा निख़ार आया था. शुरुआत इसकी मध्य प्रदेश के देवास की मराठा रियासत से हुई. साल 1872, जब रियासत के प्रमुख सरदार बाजीराव अमृतराव घाटगे के घर एक बेटी का जन्म हुआ.
सरदार बाजीराव ने बड़े चाव से बेटी का नाम रखा गजराबाई देवी. वह दौर बेटियों, बहुओं को पर्दे में रखने का था. बचपन में उनके ब्याह करा दिए जाते थे. पढ़ाई-लिखाई का उनकी कोई बंदोबस्त न हो पाता था. ऐसे में, किसी को भान तक नहीं था कि इस दौर में जन्मी गजराबाई एक रोज ये तीनों ही पायदान उलट देगी. मग़र ऐसा हुआ. गजराबाई जब बड़ौदा के मराठा शासक सयाजीराव गायकवाड़ की दूसरी पत्नी बनकर महल में दाख़िल हुई तो वहां उसका नाम ही नहीं बदला. उसने ख़ुद ही अपनी पहचान भी बदल डाली. यहां अब वह महारानी चिमनाबाई (द्वितीय) हुईं. ख़ुद के साथ-साथ अपनी सी तमाम औरत-जात को जकड़नों, बंदिशों से बाहर निकालने वाली.
महारानी चिमनाबाई ख़ुद तो पढ़ी हीं, महिलाओं की शिक्षा के लिए उन्होंने संस्थान स्थापित किए. उनकी शिक्षा के लिए माली-मदद की. उनके स्वास्थ्य के लिए विशेष अस्पताल बनवाए. वे आर्थिक रूप से सक्षम हों, इसलिए औद्योगिक उपक्रम किए. विधवाओं के लिए भी ऐसे इंतज़ामात किए. महिलाएं अपनी बात खुलकर किसी मंच पर रखें, इसके लिए औरतों के क्लब बनवा डाले. एक किताब भी लिख डाली, ‘द पोज़ीशन ऑफ वूमन इन इंडियन लाइफ़’ (1911). यह सब चिमनाबाई 1914 के आस-पास तक कर चुकी थीं. लेकिन इस किस्म के कामों में तब तक एक रोड़ा बना हुआ था, पर्दा. चिमनाबाई ने उस बाधा को भी आख़िरकार हटा दिया.
साल 1914 का ही था वह, जब बड़ौदा के नया मंदिर में हुई एक सभा के दौरान महारानी चिमनाबाई सयाजीराव के बगल में एक ही सिंहासन पर बैठीं, बिना पर्दे के. इतना ही नहीं, हिंदुस्तान से बाल-विवाह ख़त्म कराने के लिए जो सबसे पहली आवाज़ें उठीं, उनमें एक चिमनाबाई की बुलंद रही. यही वज़ह हुई कि जब 1927 में पहली ऑल इंडिया वूमंस कॉन्फ्रेंस अस्तित्त्व में आई तो उसकी पहली अध्यक्ष चिमनाबाई बनीं. ये चिमनाबाई महारानी गायत्री देवी की नानी हुईं. ऐसी जो सिर्फ़ बाहर ही नहीं, महल के भीतर भी ‘मुद्दों पर महाराज के मुकाबले’ भी खड़ी पाई गईं. बताते हैं, ऐसा एक वाक़या साल 1912 के आस-पास महल के भीतर घटा था.
चिमनाबाई की बेटी हुईं इंदिरा राजे गायकवाड़. फरवरी की 19 तारीख, साल 1892 की पैदाइश. अभी कुल 18 बरस की भी नहीं हुईं थीं कि सयाजीराव ने उनकी शादी ग्वालियर रियासत के तत्कालीन प्रमुख माधोराव सिंधिया से तय कर दी. सगाई भी हो गई. लेकिन बेटी को रिश्ता मंज़ूर नहीं था. दो कारण थे. एक तो उन्हें प्रेम किसी और से था. दूसरा- उम्र नहीं हुई थी. हालांकि इस सबके बावज़ूद पिता का दबाव था. लेकिन मां चिमनाबाई ने इस दबाव को अपने ऊपर लिया. वे बेटी के साथ खड़ी हुईं. सगाई टूटी और उसके कुछ वक़्त बाद उसका विवाह उसकी पसंद से हुआ. बंगाल की कूचबिहार रियासत के राजा जीतेंद्रनारायण से, लंदन में. साल 1912.
महारानी गायत्री देवी की मां इंदिरा राजे, ख़ूबसूरती और फैशन में अपने दौर से बहुत आगे थी. कहते हैं, इंदिरा राजे को जूते-चप्पलों का बहुत शौक था. उनमें भी वे हीरे-जवाहरात जड़वाया करती थीं. इसके लिए ख़ास तौर जूते-चप्पल बनाने वाली नामी कंपनियों के पास पसंद के हीरे-मोती भिजवाया करती थीं. यही नहीं, पहली बार हिंदुस्तान में शिफॉन की साड़ी पहनने का चलन भी इंदिरा राजे ने ही शुरू किया था, ऐसा कहते हैं. इस तरह 23 मई 1919 को जब गायत्री देवी का जन्म हुआ, तो वे अपनी मां और नानी दोनों के गुणों को आत्मसात करके इस दुनिया में आई थीं. इसलिए आगे जो भी उनके हिस्से में आया उस पर किसी को अचरज नहीं हुआ.
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* इंदिरा की बेटी गायत्री, जिससे इंदिरा (गांधी) को ही सबसे अधिक दिक्कत रही
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