दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक्ती तौर पर मौजूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज…
हिंदुस्तान में वह मराठाओं के उद्भव का दौर था. उत्तर, दक्षिण, मध्य और पश्चिम के अधिकांश भारत में हिंदू पद-पदशाही का परचम लहरा रहा था. औरंगज़ेब की मौत के बाद मुग़लिया सल्तनत के वारिस आपस में लड़ रहे थे. उसी वक्त मराठा शासन की अगुवाई कर रहे पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट ने मुग़लिया सल्तनत के ताबूत में आख़िर कील ठोकने का अभियान चलाया. मराठा साम्राज्य उस वक्त उत्तर में ग्वालियर तक फैला हुआ था. लिहाज़ा पेशवा ने वहीं अपने तमाम सरदारों को जुटाया. वहां से बिजली की रफ्तार से दिल्ली पहुंचे और उसे हर तरफ से घेर लिया. यह बात है, 28 मार्च 1737 की. तीन दिनों तक बाजीराव की सेना ने दिल्ली की सल्तनत को बंधक बनाकर रखा. उनका इरादा मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह को गद्दी से हटाकर दिल्ली पर केसरिया परचम फहराने का था. लेकिन बताते हैं, तब मराठा साम्राज्य के प्रमुख शाहूजी महाराज ने कुछ अंदरूनी राजनयिक और सामरिक कारणों से उन्हें ऐसा करने से रोक दिया. पेशवा वापस लौट आए.
लेकिन पेशवा के तीन-चार बड़े सरदारों में से एक था, जिसे इस तरह जीती हुई जंग बीच में छोड़कर लौट जाना ठीक नहीं लगा था. मल्हारराव होल्कर, जिनकी बहादुरी से पेशवा पहले ही बहुत खुश थे. बहादुरी के इनाम में पेशवा ने 1732 में ही उन्हें मध्य प्रांत में पश्चिमी मालवा के साढ़े 28 परगनाओं का मुखिया बना दिया था. महज एक साल बाद 1738 में मल्हारराव ने भोपाल की जंग में निज़ाम की सेना को मात देकर पेशवा को और खुश कर दिया था. लेकिन वह ख़ुद बहुत ख़ुश नहीं थे. दिल्ली खटक रही थी उन्हें क्योंकि. इसी बीच 1740 में पेशवा बाजीराव अपने तमाम विश्वस्तों को बीच रास्ते में छोड़कर दुनिया से सिधार गए. यह शूल गहरे तक जा बैठी, मल्हारराव के सीने में. खटक एक और चीज रही थी उनको कि औरंगज़ेब ने अपने शासनकाल में जिन हिंदू मंदिरों को ढहाया, उनके लिए अभी बहुत कुछ हो नहीं पाया है. जबकि छत्रपति शिवाजी के लक्ष्यों में दूसरा हिंदू गौरव की पुनर्स्थापना का भी था. इसे पूरा करने का मौका उन्हें भी नहीं मिला था.
अब तक तमाम मराठा सिर्फ हिंदू साम्राज्य के विस्तार में ही लगे थे. लक्ष्य मल्हारराव के सामने भी पहला यही था. क्योंकि मुग़लिया सल्तनत की चूलें हिल जाने के बाद हिंदुस्तान पर बाहरी हमले होने लगे थे. अंदरूनी तौर पर विभिन्न सल्तनतों के बीच संघर्ष के कारण अस्थिरता की स्थिति थी. इस सबको पहले संभाले जाने की ज़रूरत थी. नए पेशवा नाना साहेब दक्ष शासक, कुशल कूटनीतिज्ञ तो थे लेकिन अपने पिता की तरह लड़ाके नहीं थे वे. इन हालात में मल्हारराव जैसे पेशवा के विश्वासपात्रों पर बड़ी ज़िम्मेदारी आन पड़ी. और मल्हारराव ने ज़िम्मेदारी उठाई भी. नाना साहेब पेशवा के भाई सदाशिवराव भाऊ को साथ लेकर निकल पड़े अगले अभियान पर. इन अभियानों के दौरान उन्होंने 1742 में एक मर्तबा वाराणसी का रुख़ किया. क़रीब 20,000 सैनिकों के साथ काशी पर चढ़ाई की. मंसूबा था, काशी-महादेव के जिस मंदिर को ढहाकर औरंगज़ेब ने मस्ज़िद बनवा दी थी, उसकी जगह फिर उस स्थल का गौरव लौटाना. उसका पुनुरुद्धार करना.
मल्हारराव की सेना तेजी से काशी की तरफ़ आगे बढ़ रही थी. कि तभी बताते हैं, काशी के कुछ बड़े लोगों का एक संदेश उन तक पहुंचा. कहते हैं, इसी तरह का एक संदेश उन लोगों की ओर से पेशवा नाना साहेब तक भी पहुंचाया गया था. मिन्नत की गई थी कि मल्हारराव को रोकें. हिंदुस्तान के हालात इस वक़्त ठीक नहीं हैं. काशी और उसके आसपास के इलाकों में मुग़ल बहुत मज़बूत हैं. उनके धर्मस्थल को नुकसान पहुंचाया गया तो वे ज़रूर मराठा सेना के लौटने के बाद बदला लेंगे. आम लोगों का इससे जीवन मुश्किल हो जाएगा. बात वक़्ती तौर पर जायज़ थी. उधर, एक और पहलू था, जिस पर नाना साहेब पेशवा ने विचार किया था. वह था, अवध का नवाब सफदरजंग. काशी, उसकी अधीनता में थी उस वक्त. उसने मराठाओं से अब तक सीधे दुश्मनी भी मोल नहीं ली थी. बल्कि वह आगे उनके लिए वर्चस्व की जंग में मददग़ार हो सकता (जो हुआ भी) था. यह देखते हुए नाना साहेब ने भी मल्हारराव को संदेश भेजा.
नाना साहेब पेशवा का फरमान था, ‘रुक जाइए, काशी का अभियान अभी उचित नहीं होगा.’ मल्हारराव के बढ़ते क़दम ठिठक गए और फिर वे अपने जीवनकाल में कभी काशी के गौरव का पुनरोत्थान नहीं देख सके. हालांकि ये काम हुआ उन्हीं के परिवार के हाथों, जब मल्हारराव की बहू रानी अहिल्याबाई होल्कर ने काशी विश्वनाथ धाम में उसी जगह के पास ही भव्य मंदिर बनवाया, जहां पहले उसे ढहाया गया. यह साल था 1780 का. इसके चार साल पहले 20 मई 1766 को मल्हार राव का निधन हो चुका था. लेकिन अपने जीवनकाल में अपना एक मंसूबा वे ज़रूर पूरा कर गए. दिल्ली जीतने का. यह बात है 1753-55 के बीच की. तब अफ़ग़ान शासक अहमदशाह अब्दाली हिंदुस्तान के उत्तरी इलाकों में भारी लूट-पाट मचा रहा था. तीन बार हमले कर चुका था और पंजाब के इलाकों में अपने नायब नियुक्त कर गया था. मराठाओं को यह हिंदुस्तान पर बड़ा ख़तरा महसूस हुआ.
दिल्ली का मुग़ल शासक अहमदशाह बहादुर क़मज़ोर था. लिहाज़ा मराठाओं ने उसे हटाने का निश्चय किया. मल्हारराव इस अभियान के अगुवा सरदार हुए. हालांकि कमान नाना साहेब पेशवा के छोटे भाई रघुनाथ राव के हाथ में रही. बताते हैं कि उस अभियान में रघुनाथ राव और मल्हार राव ने दिल्ली में अहमद शाह बहादुर को क़ैद कर लिया. उसकी जगह आलमग़ीर द्वितीय को गद्दी पर बिठाया, कठपुतली बनाकर. इस आश्वासन के साथ कि अब से मुग़ल सल्तनत की सुरक्षा का ज़िम्मा मराठाओं पर. लेकिन जनवरी 1757 में अब्दाली ने इतनी तेजी से हमला किया कि कोई कुछ कर न सका. आलमग़ीर ने हथियार डाल दिए और अब्दाली के सैनिक एक महीने तक दिल्ली में लूटमार करते रहे. इसके बाद ही लौटे. ताक़तवर मराठाओं के लिए यह सीधी चुनौती थी. लिहाज़ा उन्होंने भी ज़वाबी हमला किया. अगस्त 1757 से मार्च 1758 के बीच हमलावरों को खदेड़ते हुए मराठे लाहौर तक जा पहुंचे, वहां केसरिया फहराया. इस तरह मल्हारराव के जीवन का बड़ा ख़्वाब पूरा हुआ.
ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें News18 हिंदी | आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट News18 हिंदी |
Tags: Gyanvapi Mosque, Hindi news, News18 Hindi Originals