चुनावों में राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त की घोषणा किए जाने पर रोक लगाने की मांग वाली याचिका पर जल्द सुनवाई की मांग की गई. Photo: News 18
चुनावों में राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त की घोषणा किए जाने पर रोक लगाने की मांग वाली याचिका पर जल्द सुनवाई की मांग की गई. इस याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश यू यू ललित ने कहा कि इसमे जल्दबाजी क्या है? इस पर याचिकाकर्ता ने कहा कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव होने वाले है, लेकिन राजनीतिक दल लगातार मुफ्त की घोषणाएं कर रहे हैं. मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि इस मैटर को हम चैंबर मे आज देखेंगे फिर फैसला लेंगे कि कब सुना जाए.
आपको बता दें कि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस केस की सुनवाई करते हुए कहा था कि करदाताओं के पैसों का इस्तेमाल करके दिया गया मुफ्त उपहार सरकार को ‘आसन्न दिवालियापन’ की ओर ले जा सकता है. इसके साथ ही, न्यायालय ने चुनाव से पहले राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त उपहार के वादे का मुद्दा उठाने वाली याचिकाओं को तीन न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किए जाने का शुक्रवार को निर्देश दिया.
कोर्ट ने उसके समक्ष रखे गये पहलुओं की ‘व्यापक’ सुनवाई की आवश्यकता जताते हुए कहा कि हालांकि सभी वादों को मुफ्त उपहार के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है, क्योंकि वे कल्याणकारी योजनाओं या जनता की भलाई के उपायों से संबंधित होते हैं, लेकिन चुनावी वादों की आड़ में वित्तीय जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता है. कोर्ट ने कहा कि ये योजनाएं न केवल राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का हिस्सा हैं, बल्कि कल्याणकारी राज्य की जिम्मेदारी भी हैं.प्रधान न्यायाधीश एन. वी. रमण, न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति सी. टी. रविकुमार की पीठ ने इस बात का संज्ञान लिया कि इन याचिकाओं में उठाये गये कुछ प्रारम्भिक मुद्दों पर विचार किये जाने की आवश्यकता है.
सुप्रीम कोर्ट ने 2013 के फैसले में क्या कहा था
कोर्ट ने 2013 के अपने फैसले में कहा था कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 में निर्धारित मापदंडों की समीक्षा करने और उन पर विचार करने के बाद, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि चुनावी घोषणा पत्र में किए गए वादों को धारा 123 के तहत भ्रष्ट आचरण नहीं कहा जा सकता.
पीठ ने कहा कि आखिरकार, ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीतिक दलों द्वारा उठाए गए मुद्दों को किसी भी आदेश को पारित करने से पहले व्यापक सुनवाई की आवश्यकता है. पीठ ने कहा कि इन याचिकाओं में उठाए गए सवाल राजनीतिक दलों द्वारा अपने चुनावी घोषणापत्र के हिस्से के रूप में या चुनावी भाषणों के दौरान मुफ्त उपहार बांटने के वादे से संबंधित हैं. कोर्ट ने आगे कहा कि याचिकाकर्ताओं की मुख्य दलील यह है कि इस तरह के चुनावी वादों का राज्य की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है और इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती है.
पीठ ने कहा था कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हमारे जैसे चुनावी लोकतंत्र में, सच्ची शक्ति अंततः मतदाताओं के पास होती है. शीर्ष अदालत ने कहा कि यह मतदाता ही तय करता है कि कौन सी पार्टी या उम्मीदवार सत्ता में आएगा और वे विधायी कार्यकाल के अंत में उक्त पार्टी या उम्मीदवार के प्रदर्शन का भी आकलन करते हैं.
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