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2019 में कांग्रेस नहीं बसपा है बीजेपी के लिए बड़ा खतरा

आंकड़े बताते हैं कि बसपा यूपी से बाहर भी बड़ी राजनीतिक ताकत बन सकती है

आंकड़े बताते हैं कि बसपा यूपी से बाहर भी बड़ी राजनीतिक ताकत बन सकती है

पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश में बसपा के फॉलोअर हैं. वहां बसपा के बेस वोट का ध्रुवीकरण हो सकता है. पार्टी जिन राज्यों ...अधिक पढ़ें

    "बीजेपी व अन्य सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता में आने से रोकने के लिए बीएसपी गठबंधन के बिल्कुल खिलाफ नहीं है. लेकिन पार्टी गठबंधन तभी करेगी जब बंटवारे में सम्मानजनक सीटें मिलेंगीं." मायावती ने नवंबर 2017 में यह बात कही थी. इशारा साफ है, बसपा गठबंधन करना चाहती है, लेकिन अपनी शर्तों पर.

    मायावती ने कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा की पार्टी जनता दल (सेक्युलर) से हाथ मिलाकर बता दिया है कि गठबंधन के लिए ज्यादा चिंता कांग्रेस को करनी है. सूत्रों का कहना है कि बसपा राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन करना चाहती है. जबकि कांग्रेस जिन राज्यों में मजबूत है वहां उसे शेयर नहीं देना चाहती और यूपी जैसे राज्य जहां पर वह कमजोर है वहां उसका साथ चाहती है.

    लोकसभा चुनाव का बिगुल बजने में अभी एक वर्ष है लेकिन अपने प्रदर्शन को लेकर चिंतित राजनीतिक दलों ने गोटियां सजानी शुरू कर दी हैं. सियासी जानकारों के मुताबिक मायावती ने शायद महसूस कर लिया है कि उनके पास मौजूद दलित वोट बैंक की वजह से कांग्रेस गठबंधन के लिए मजबूर होगी. कांग्रेस और बसपा दोनों को अच्छी तरह पता है कि भाजपा की जीत में दलित समाज का भी समर्थन रहा है. इसलिए 2019 में इस वोटबैंक को दोनों अपने पाले में करने के लिए कोशिश में जुटे हुए हैं. कांग्रेस ने अनुसूचित जाति आयोग के पूर्व चेयरमैन पीएल पूनिया को राष्ट्रीय महासचिव बनाया है.

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    यूपी से बाहर बसपा की क्या है सियासी हैसियत?

    आईए जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार बना चुकी बसपा की सियासी हैसियत आखिर यूपी से बाहर कितनी है? दलित अस्मिता के नाम पर उभरी बसपा ने अपना पूरा ध्यान यूपी की राजनीति में लगाया है. लेकिन जिन प्रदेशों में दलित वोट ज्यादा हैं वहां पर अपने प्रत्याशी जरूर उतारते रही है. हमने चुनाव आयोग के आंकड़ों का विश्लेषण किया तो पाया कि मध्य प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, राजस्थान, बिहार, दिल्ली, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और कर्नाटक में उसे न सिर्फ वोट मिले हैं बल्कि उसने विधानसभा में सीट पक्की करने में भी कामयाबी पाई है. यूपी से बाहर बसपा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 1 से लेकर 11 विधायकों तक रहा है.

    एमपी, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली में मजबूत

    दिल्ली जैसे राज्य जहां 16.75 फीसदी दलित हैं वहां बसपा ने 2008 में 14.05 फीसदी तक वोट हासिल किया था, जबकि उसके वरिष्ठ नेताओं ने यहां उत्तर प्रदेश जैसी मेहनत नहीं की थी. बाद में दलित वोट कभी कांग्रेस तो कभी आम आदमी पार्टी के पास शिफ्ट होता रहा. सबसे ज्यादा दलित आबादी वाले राज्य पंजाब में जब 1992 में उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था तो उसे 9 सीटों के साथ 16.32 फीसदी वोट मिले थे. पार्टी के संस्थापक कांशीराम पंजाब के ही रहने वाले थे. मध्य प्रदेश और राजस्थान में वह समीकरण बिगाड़ने की हैसियत रखती है.


    हमने जिन राज्यों में बसपा को मिले वोटों का विश्लेषण किया उनमें दलित 15 से लेकर 32 फीसदी तक है. दलितों की पार्टी माने जाने वाली बसपा इन वोटों का स्वाभाविक हकदार बताती है. हालांकि, 2014 के आम चुनावों में मोदी लहर की वजह से पंजाब में भी उसे सिर्फ 1.91 फीसदी ही वोट मिले. जबकि पूरे देश में उसे 4.14 फीसदी वोट हासिल हुआ था. वैसे बसपा नेता इसे खराब प्रदर्शन नहीं मानते. गैर हिंदी भाषी राज्यों आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में भी बसपा का कभी एक-एक विधायक हुआ करता था. विपक्ष को दलित वोटों की दरकार है इसलिए बसपा उससे अपनी शर्तों पर ही समझौता कराना चाहती है.

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    क्षेत्रीय क्षत्रप न पैदा करना मायावती की भूल

    बसपा प्रमुख मायावती पर 'बहनजी: द राइज एंड फॉल ऑफ मायावती' नामक किताब लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार अजय बोस कहते हैं "बसपा के राजनीतिक उदय के समय उसमें कई राज्यों के दलितों ने अपना नेता खोजा था लेकिन मायावती ने न तो ध्यान दिया और न ही कांग्रेस और बीजेपी की तरह क्षेत्रीय नेता पैदा किए, जिसके सहारे उनकी राजनीति आगे बढ़ सकती थी. पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश में बसपा के आगे बढ़ने का बहुत स्कोप था लेकिन क्षेत्रीय क्षत्रपों के अभाव में वह धीरे-धीरे जनाधार खोती गई. यही वजह है कि चंद्रशेखर और जिग्नेश जैसे नेताओं का उभार हो रहा है जो मायावती की सियासी जमीन खा सकते हैं. हालांकि ये इलेक्टोरल पॉलिटिक्स में कितने सफल होंगे यह नहीं कहा जा सकता."

    बोस कहते हैं "मायावती को जनता ने 2014 के लोकसभा चुनाव में नकार दिया. फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा का बहुत खराब प्रदर्शन देखने को मिला. इसलिए बीजेपी को सत्ता से बाहर करने के लिए सपा-बसपा-कांग्रेस के गठबंधन की जरूरत है. साथ में राष्ट्रीय लोकदल के अजीत सिंह को लेना चाहिए."

    कांशीराम का विजन छोटा नहीं था

    कांशीराम की जीवनी कांशीराम 'द लीडर ऑफ द दलित्स' लिखने वाले बद्रीनारायण कहते हैं " कांशीराम का विजन छोटा नहीं था. वह राष्ट्रीय स्तर की बात करते थे जबकि मायावती सिर्फ यूपी में सिमट गई हैं. हालांकि उनके पास संभावना बहुत है. पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश में बसपा के फॉलोअर हैं. वहां बसपा के बेस वोट का ध्रुवीकरण हो सकता है. बसपा जिन राज्यों में खुद अच्छा नहीं कर सकती वहां अपना वोटबैंक शिफ्ट करवाकर गठबंधन के दूसरे दलों के लिए अच्छा कर सकती है."


    राजनीतिक विश्लेषक बद्री नारायण के अनुसार " दलित कभी कांग्रेस का कोर वोटबैंक हुआ करता था. लेकिन बाद में यह बसपा में शिफ्ट हो गया. माना जा सकता है कि कांग्रेस को बसपा ने खत्म किया. इसलिए बसपा से कांग्रेस को थोड़ा डर तो है. कांग्रेस के पास यह वोट लेने का कोई और तरीका नहीं है वह बसपा के साथ गठबंधन से ही दलितों का वोट ले सकती है.

    गुजरात-हिमाचल: कांग्रेस गफलत में थी!

    सियासी जानकारों का कहना है कि दलित वोट हर राज्य में हैं. इसलिए अगर मुस्लिम-दलित गठजोड़ बनता है तो ही विपक्ष बीजेपी को चुनौती दे पाएगा. इस बात को बसपा के वरिष्ठ नेता उम्मेद सिंह भी मानते हैं. सिंह के मुताबिक "पार्टी ने अपने लिए गुजरात में 25 और हिमाचल में कांग्रेस की हारी हुई 10 सीटें मांगी थीं. लेकिन उसने नहीं दिया. कांग्रेस को भ्रम था कि वह गुजरात चुनाव जीत जाएगी. उसका बसपा से गठबंधन होता तो वहां बीजेपी की सरकार नहीं बनती. कांग्रेस को यह सच्चाई समझनी चाहिए. गठबंधन न होने से नुकसान कांग्रेस को हुआ है."

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    कांग्रेस-बसपा, कौन किसकी मजबूरी

    सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक प्रोफेसर एके वर्मा कहते हैं "कांग्रेस के सितारे गर्दिश में हैं इसलिए वह तो चाहेगी कि किसी तरह एंटी मोदी ध्रुवीकरण बनाया जाए. दलित वोटों की वजह से बसपा को गुमान रहता है लेकिन उसे भी अपनी पॉलिटिक्स को ठीक करना होगा क्योंकि अब पहले जैसे हालात नहीं हैं. नए दलित क्षत्रप उभर रहे हैं. दलित वोटरों के लिए भी विकल्प तैयार हो रहे हैं. इसलिए दोनों अपने हितों के लिए गठबंधन कर लें तो कोई बड़ी बात नहीं."

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