कुदरत ने फल तो बहुत दिए हैं लेकिन फलों का राजा आम ही है. चिकित्साशास्त्र में आम के गुणों का खूब बखान है. पूरी दुनिया में मशहूर हो चुका आम सिर्फ अपने भारत का ही नहीं बल्कि, पाकिस्तान और फिलीपींस का भी राष्ट्रीय फल है. यह बांग्लादेश का राष्ट्रीय वृक्ष है. दुनिया के नक्शे पर गौर करें तो आज जहां जहां बेहतरीन आम पैदा होते हैं उन सभी देशों के भूगोल में एक समानता है. पृथ्वी के इक्वेटर से 35 डिग्री ऊपर और 35 डिग्री नीचे वाले इन इलाकों में गर्मी ज्यादा पड़ती है सो सबसे लाजवाब खुशबू और बेमिसाल स्वाद वाला आम आज भी पृथ्वी के इसी भूभाग पर पैदा होता है. अपना देश संयोग से पृथ्वी के इसी विलक्षण जलवायु वाले क्षेत्र में है.
माना भी यही जाता है कि कुदरत के इस करिश्मे की पहचान सबसे पहले भारत के लोगों ने की. और इसीलिए आधुनिक जीवविज्ञानियों ने जब वनस्पतियों का वर्गीकरण किया तो मेंगीफेरा जाति के इस फल की प्रजाति को इंडिका नाम दिया. रही बात इसकी जाति यानी मेंगीफेरा की तो इस जाति में ज्यादातर मेवे और फल आते हैं और पुर्तगाली व्यापारियों ने ऐसे फलों और मेवों को पूरी दुनिया में इधर से उधर ले जाकर बेचा. इसीलिए जब वनस्पति जगत में वर्गीकरण हुआ तो पुर्तगाली शब्द मेंगा के इस्तेमाल से इस फल की जाति यानी जीनस का नामकरण मेंगीफेरा किया गया .
जिस तरह आम फलो का सरताज है उसी तरह आम की सैकड़ों किस्मों के बीच भी प्रतियोगिताएं होती रहती हैं. अमूमन हर साल जुलाई के महीने में दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय आम महोत्सव आयोजित होता है. और अक्सर इसमें आम की किसी एक अनोखी किस्म को ताज भी पहनाया जाता है. सन 1987 से लेकर आजतक कई किस्म के आमों को खिताब मिल चुका है. कभी लंगड़ा आम ने ये खिताब पाया, कभी रटौल ने तो कभी अलफांसों को ताज पहनाया गया. इसी अंतरराष्ट्रीय महोत्सव के बहाने दुनियाभर के आम के शौकीन लोग इसकी नई पुरानी कई किस्मों से परिचित होते हैं.
वैसे तो आम की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण इसका बेमिसाल सुगंधित स्वाद है. लेकिन आम अगर डाल का पका हो तो उस आम के स्वाद का क्या कहना. कहते यह भी हैं कि अगर पेड़ पर पकते समय आम को तेज धूप मिल जाए तो उसका स्वाद और खुशबू कई गुनी बढ़ जाती है. इसीलिए आम के बागवान ही नहीं आम के मुरीद भी तेज गर्मी का इंतजार करते हैं.
बहरहाल आम के कारण पूरी दुनिया में अपने देश की बड़ी शौहरत है. खुद हम ही नहीं पूरी दुनिया मान चुकी है कि पृथ्वी पर आम भारत और उसके पड़ोसी देशो वाले इलाके की देन है. दरअसल इन देशों की खास आबोहवा ने ही आम को बेनजीर बना दिया. आम के लिए मशहूर इन देशों में अपना देश बहुत बड़ा है और उसके कई क्षेत्रों की जलवायु में भी खासा फर्क है सो भारत में आम की किस्मे भी अनगिनत हैं. सभी किस्मों की अपनी अपनी खुशबू हैं. और सबके अपने अपने स्वाद हैं. यहां तक कि रूप और रंग भी अलग हैं. इन्हीं खुशबुओं, स्वाद और रूप रंगों से आम की किस्में पहचानी जाती हैं.
आम की किस्मों की चर्चा करते समय हमें अपने उन पूर्वजों को जरूर याद करना चाहिए जिन्होंने सदियों तक आम की पारंपरिक किस्मों को बचा कर रखा. भले ही आज आम की सैकड़ों नई नई किस्में भी विकसित हो गई हों लेकिन आम की पारंपरिक किस्मों का रुतबा ही अलग है.
अपने देश के आमों की एक खासियत यह भी है कि देश भर में अलग अलग किस्म के आम अलग अलग समय पर पकते हैं. आमतौर पर आम गर्मियों की बहार है. सो मार्च के आखिरी हफते से लेकर अगस्त के पहले पखवाड़े तक, किसी न किसी इलाके का आम बाजार में आता रहता है.
आम के मामले में एक गौर करनेवाली बात है कि अपने देश के लगभग हर इलाके के पास अपना कोई न कोई नायाब आम है जो अपनी ख़ास खुशबू और स्वाद के साथ बस उसी इलाके मे फलता है. हो सकता है कि यह मौलिकता उस इलाके की अलग आबोहवा और मिट्टी के कारण हो. बहरहाल सभी इलाकों के लोग अपने इन्हीं आमों को देसी आम कहकर पुकारते हैं. ऐसे ही एक देसी आम को पिछली सदी में बड़ी शौहरत मिल गई थी. रटौल नाम का यह आम, पिछले कोइ सौ साल से देश विदेश में खासी शौहरत पा रहा है. पश्चिमी उप्र के एक छोटे से गांव रटौल में इस समय कोई तीन सौ प्रकार के आम फल रहे है. आजादी के बाद जब भारत और पाकिस्तान अलग अलग देश बने तो रटौल के कुछ नागरिक इस किस्म के आम के पौधे अपने साथ पाकिस्तान ले गए. अलग देश बन जाने के बाद भी उन्होंने इस आम का नाम नहीं बदला, वहां भी इसे रटौल ही कहा जाता है.
रटौल के इसी इलाके के आसापास का एक और नायाब देसी आम है ढिंग्गा. आकार में छोटा, रंग में सुनहरा और चूसकर खाया जाने वाला यह आम देश के सैकड़ों देसी आमों का प्रतिनिधित्व कर सकता है. लेकिन अब ये दुर्लभ हो चला है.
इसी तरह अपने पकने के समय के लिहाज से गर्मियों में सबसे बाद तक आने वाला एक आम है चौसा. जब दूसरे आम पेड़ों से उतर जाते हैं तो बाजार में सबसे ज्यादा चौसा ही दिखाई देता है. आमतौर पर डाल पर पका यह आम अगस्त के पहले हफते तक आसानी से मिल जाता है. इसकी खुशबू भी बेमिसाल है.
अगर मौजूदा दौर की बात करें तो कुछ दशकों से पूरी दुनिया में अलफांसो का डंका बज रहा है. आमतौर पर सबसे स्वादिष्ट अलफांसो महाराष्ट्र के नीलगिरि में होता है. वहां की मिट्टी पानी में अलफांसों अपने मूल स्वाद और खुशबू को बचाए हुए है. आम की वैश्विक प्रतियोगिता में एकबार ताजपोशी के बाद यह आम आज दुनियाभर में मशहूर है. कुछ सदियों पहले इस आम का नामकरण पुर्तगाली वायसराय अल्फ़ान्सो के नाम पर हुआ था. वैसे अपने देश में कुछ जगहों पर इस आम को हापुस और हाफूस भी कहते हैं. प्रचुर उत्पादन और अच्छे प्रचार के कारण आजकल यह आम कई देशों को बहुत बड़े पैमाने पर निर्यात हो रहा है.
आम की दूसरी मशहूर किस्में देखें तो अपने स्वाद के अलावा अपने रंग से लुभाने वाला एक और आम है, सिंदूरी. इसके पेड़ दिल्ली और उत्तर प्रदेश में भी हैं. इसकी खासियत यह है कि इसका पल्प या गूदा बहुत ही आकर्षक पीले रंग का होता है. हल्की सी खटास लिए इस आम से कई तरह के मेंगो शेक्स बनाए जाते है.
अपने देश के कई दूसरे आम भी कम मशहूर नहीं हैं. मसलन उत्तर भारत का माल्दा. यह अपने खटमिटठे स्वाद के कारण लोकप्रिय है. इसी तरह एक दिलचस्प नाम वाले तोतापरी आम की भी खूब शौहरत है. तोतापरी को यह नाम इसलिए मिला क्योंकि इसका एक सिरा तोते की चोंच जैसा दिखता है. यह आम के मौसम में सबसे पहले बाजारों में पहुंचने वाली किस्म है. आजकल बिहार में एक आम जर्दालु या जर्दा भी शौहरत पा रहा है.
अपने देश में कुछ आम ऐसे भी हैं जिनकी शुद्ध किस्में कई पीढ़ियों से संरक्षित हैं. अपने बुजुर्गो ने एक ऐसे ही आम का नाम रखा था, गुलाब खास. बाहर से कुछ लाली लिए इस आम की खुशबू गुलाब सी है. इसमें रेशे कम होते हैं. इसीलिए मिठाइयों और पकवान बनाने में इसका इस्तेमाल होता है.
कई दशकों से आम की बड़ी चर्चित किस्मों में एक है दशहरी. इसे यह नाम अपने जनक उप्र के मलीहाबाद के दशहरी गांव के कारण मिला. कहते हैं कि उस गांव में दो सौ साल पुराना दशहरी का एक पेड़ आज भी है. इस आम के पकने के बाद भी इसके छिलके का रंग आमतौर पर हरा बना रहता है.
आम की एक और लाजवाब किस्म है केसर. केसर जैसे रंग के कारण इसे यह नाम मिला. यह दक्षिण और पश्चिम भारत के बहुत बड़े भूभाग में उपजता है. यह भी खूब रसदार आम है और इसमें भी रेशे बहुत कम होते हैं इसीलिए केसर दुनियाभर के खानसामों की भी पसंद हे. वे इसका इस्तेमाल पकवानों में करते हैं.
आम की नायाब किस्मों की चर्चा हो रही हो तो तमिलनाडु और कर्नाटक के मलगोआ आम का जिक्र भी जरूर होना चाहिए. इसकी खासियत यह है कि कईबार मलगोआ या मलगुआ आम आकार में बहुत बड़ा हो जाता हे. पूरी तरह पके कुछ मलगोआ आम तीन किलो तक वजनी हो जाते हैं. दक्षिण भारत के एक और आम बंगनपल्ली का जिक्र भी होना चाहिए. इसके रस को सुखाकर यानी अमरस बनाकर भी रख लिया जाता है. इसीतरह गोवा और गुजरात के पैरी आम से भी अमरस या आमपापड़ बनाकर रखा जाता है.
बहरहाल आज आम की अनगिनत प्रजातियां पहचानी और विकसित की जा चुकी है. सफेदा, हिमसागर, रत्नागिरी, नीलम, जैसी बीसियों किस्में भी खासी मशहूर हैं और इसका कारण यह माना जाता है कि आम के मौसम के शुरुआती दिनों में बाजार में ये किस्में दिखने लगती हैं. अपने किसी न किसी विलक्षण गुण के कारण दूसरी सैकड़ों किस्में भी है लेकिन इन सभी को किसी एक आलेख में गिनवा पाना कठिन है.
वनस्पति जगत के ऐसे बेनज़ीर फल के इतिहास की बात न हो तो आम की चर्चा अधूरी रह जाएगी. कुछ शोध अध्ययनों से पता चलता है कि आम के वजूद का लंबा इतिहास है. इसके इतिहास में झांकने से ही पता चल पाया कि आम का जनक देश अपना भारत ही है. इसीलिए आधुनिकवनस्पति शास्त्रियों ने दो सौ साल पहले जब वनस्पति जगत का वर्गीकरण किया तो इसकी प्रजाति का नाम भारत देश के नाम पर ही रखा ‘मेंगीफेरा इंडिका’. यह नामकरण एक सबूत है कि पृथ्वी पर आम की जड़ें भारत में ही हैं . विश्व के जैव पुरातत्ववेत्ता, फूड हिस्टोरियन, और वनस्पतिशास्त्रियों के शोधअध्ययनों के बाद अब पूरी दुनिया मानने लगी है कि आम भारत की ही देन हैं.
अगर आम के पुरातात्विक अस्तित्व की बात करें तो पृथ्वी पर आम के ढाई करोड़ साल पहले के जीवाश्म मिल चुके हैं. गौर करने की बात है कि ये जीवाश्म पूर्वोत्तर भारत, म्यामां और बांग्लादेश में ही मिले. यह तथ्य इस बात को और पुख्ता करता है कि दुनिया को यह नायाब तोहफा हमने ही दिया .
अगर आम की व्यवस्थित बागवानी का पुरातत्व देखें तो इसकी बागवानी पांच हजार साल पहले शुरू होने के प्रमाण खोजे जा चुके हैं. पौराणिक कथा साहित्य छोड़ भी दें फिर भी अपने देश में आम का ढाई हजार साल का पुख्ता इतिहास हमारे पास है. मसलन बौद्ध इतिहास में आम्रपाली का जिक्र है. यह भी प्रमाणित इतिहास है कि सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने साम्राज्य में बड़े पैमाने पर आम का वृक्षारोपण करवाया. उसके बाद का तो ऐसा कोई कालखंड नहीं है जिसमें अमराइयों के बनने और आम के वृक्षारोपण का इतिहास न मिलता हो. और अगर पौराणिक कथाओं के आधार पर देखें तो धर्म क्षेत्र में आम की पत्तियों को पवित्र माना गया है. इसीलिए कई धर्म अनुष्ठानों में आम की पत्तियां ज़रूर उपस्थित रहती हैं.
यह घटना भी कम रोचक नहीं है कि भारत से आम दूसरे देशों में कब और कैसे पहुंचा. दरअसल आज से पांच सौ साल पहले जब पुर्तगाल के व्यापारी भारत आए तो उनकी नज़र इस अनोखे फल पर पड़ी. उन्होंने जब इसे चखा तो इसका स्वाद उन्हें बेमिसाल लगा. पुर्तगाल के व्यापारियों ने इस बेमिसाल फल में अंतरराष्ट्रीय व्यापार की गुंजाइश देखी. भारतीय मसालों की तरह पुर्तगाली व्यापारी आम को भी पश्चिमी देशों में ले गए. उसके बाद तो आम सारी दुनिया में शौहरत पाता चला गया. और जब दुनिया को पता चला कि यह अदभुत फल ट्रॉपिकल और सबट्रॉपिकल जलवायु में उगने वाला पेड़ है तो ऐसी जलवायु वाले दूसरे देशों में भी आम के पेड़ उगाए जाने लगे. इतिहासकारों ने पाया कि पुर्तगालियों ने ही भारत के आम के बीज ले जाकर दूसरे देशों को दिए. दूसरे देशों में आम के पेड़ उग तो गए लेकिन मिट्टी और आबोहवा के कारण अपने जनक देश भारत के आम जैसा स्वाद पैदा नहीं हो पाया. और इसीलिए आज तक भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश के आम ही पूरी दुनिया में मशहूर हैं.
बहरहाल आम का सबसे बड़ा उत्पादक होने के कारण भारत के पास आम के निर्यात की गुंजाइश सबसे ज्यादा है. बस जरूरत इस बात की है कि अपनी सरकार भी आम की अदभुत किस्मों के ज्यादा उत्पादन और विश्वस्तरीय भंडारण के बारे में गंभीरता से सोचे.
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