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पश्चिम बंगाल: 'बामेर वोट रामे' यानी लेफ्ट हुआ राइट, बीजेपी ने ऐसे खींची ममता की ज़मीन

न्यूज़18 क्रिएटिव

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हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण से पश्चिम बंगाल में भाजपा ने टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी को चौंकाया तो लेफ्ट फ्रंट को हाशिए पर ध ...अधिक पढ़ें

    (आहना बोस)
    लोकसभा चुनाव 2019 के नतीजों के बाद 2014 की कहानी दोहराते हुए ज़बरदस्त जीत दर्ज की. हिंदी पट्टी पर किए कमाल के अलावा भी भारतीय जनता पार्टी ने पश्चिम बंगाल में जो धमक दर्ज की, उसकी चर्चा देर तक होगी. जब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया था कि बंगाल में भाजपा 23 सीटें जीतेगी, तब जवाब में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने इस दावे को सिरे से नकारते हुए कहा था कि उनकी पार्टी ही राज्य में सारी लोकसभा सीटें जीतेगी. ममता ने तमाम एग्ज़िट पोल्स को भी खारिज कर दिया था जिनमें भाजपा के बेहतरीन दखल का दावा किया गया था.

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    अब जबकि संसद में बंगाल की 18 सीटों से भाजपा के सांसद होंगे, तब ये सवाल उठता है कि बंगाल में भगवा पार्टी के इस ज़बरदस्त उठान के कारण क्या हैं? क्योंकि अब तक भी बंगाल को देश का सेक्युलर हब कहा जा रहा था. कुछ बातें और आंकड़े हैं, जो इन कारणों का खुलासा करते हैं.

    पश्चिम बंगाल में भाजपा का उठान
    पश्चिम बंगाल में 2016 में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को 291 में से सिर्फ 3 सीटें मिली थीं. इससे पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को राज्य में 42 में से सिर्फ 2 सीटें मिली थीं. इस तरह के प्रदर्शन के बाद पार्टी ने राज्य में संगठन स्तर पर रहीं खामियों को दूर करने की कवायद की क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने बेहतर प्रदर्शन का इरादा किया था.

    राज्य में भाजपा के लिए राहुल सिन्हा और पूर्व प्रेक्षक सिद्धार्थ नाथ सिंह का नेतृत्व संगठन स्तर पर नतीजों के लिहाज़ से बेहद फायदेमंद साबित हुआ और संगठन के स्तर पर कई खामियों को दूर करने में सक्षम भी. टीएमसी की राज्य सरकार के बावजूद राज्य में भाजपा को 39 फीसदी वोट शेयर मिला, जो स्पष्ट सबूत है कि पार्टी को बड़ी कामयाबी हाथ ​लगी.

    ऐसे तैयार हुआ भाजपा के लिए मंच
    भाजपा का बंगाल में दबदबा होने की शुरूआत कुछ बदलावों से हुई थी. टीएमसी के पूर्व उपाध्यक्ष मुकुल रॉय ने 2017 में भाजपा का दामन थामा. ये बताने की ज़रूरत नहीं है कि ममता बनर्जी से खफा होकर रॉय के भाजपा में आने से भाजपा को किस कदर फायदा हुआ. जॉन बारला और निशीथ प्रमाणिक ने क्रमश: अलीपुरद्वार और कूचबिहार सीटें जीतीं, जो दोनों पार्टी बदलकर भाजपा में आए थे. भाजपा ने राज्य में अपने लिए सियासी मंच तैयार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और हर असंतुष्ट को आश्रय देकर खुद को मज़बूत किया.

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    दूसरी तरफ, लेफ्ट फ्रंट और कांग्रेस के बीच राज्य में सीट शेयरिंग की बात चल रही थी, जो ​आखिरकार नाकाम हो गई. इस वार्ता के विफल होने के बाद भाजपा के पास अच्छा मौका था क्योंकि राज्य में विपक्षी खेमा बड़ी चुनौती नहीं रह गया था. टीएमसी 45 फीसदी वोट शेयर पर काबिज़ दिख रही थी और लेफ्ट फ्रंट व्याव​हारिक तौर पर शून्य दिख रहा था, ऐसे में साफ था कि भाजपा को फायदा होगा.

    किसके वोट किसके खाते में गए?
    ये कोई छुपी हुई बात नहीं रह गई है कि ममता बनर्जी ने तुष्टिकरण की राजनीति करते हुए अल्पसंख्यकों के वोट पाने की कोशिश की. ममता ने भाजपा के हिंदुत्ववादी नैरेटिव का खुलकर विरोध किया और अगर विश्लेषण किया जाए तो इससे ममता को नुकसान हुआ क्योंकि हिंदू वोटरों ने भाजपा को वोट दिया. दूसरी तरफ, ये भी कहा जा सकता है कि ममता ने अल्पसंख्यकों के वोट बैंक के ज़रिए ही अपनी सीटें हासिल कीं.

    अस्ल में, भाजपा को 2018 में हुए पंचायत चुनाव में हिंसा के बाद भी 18 फीसदी वोट मिले थे. भाजपा को पंचायत चुनावों से एक नया जोश मिला और मोदी व शाह ने ममता बनर्जी सरकार पर पंचायत चुनावों में हिंसा करवाने के आरोप लगाते हुए धावा बोला, जो वाकई ट्रंप कार्ड कहा जा सकता है. मीडिया ने भी बड़ी भूमिका अदा की. एग्ज़िट पोल के दौरान, दिल्ली के रास्ते में स्थानीय या क्षेत्रीय पार्टियों के महत्व को एक तरह से नकार दिया गया. भारत जैसे संघीय प्रणाली वाले देश में, राष्ट्रीय और स्थानीय मुद्दों का अंतर खत्म हो जाना महत्वपूर्ण घटना रही.

    हिंदुत्व की लहर ने किया चमत्कार
    इसके बाद हिंदुत्व की लहर कारगर हुई ही. राजनीतिक विश्लेषक शिबाजी प्रतिम बसु के मुताबिक, न केवल मोदी और शाह बल्कि राज्य के अन्य भाजपाई नेताओं ने हिंदू वोटरों के भीतर हिंदुत्व का मुद्दा भरने का काम किया. संगठन सुधार, विपक्षी खेमों में विभाजन के अलावा भाजपा के हिंदुत्व के मुद्दे ने तकरीबन चमत्कार का काम किया.

    एनआसी और घुसपैठ के मुद्दों को लेकर राज्य में चुनाव अभियान के दौरान भाजपा ने हिंदुत्व के परिदृश्य को पूरी तरह भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इन तमाम कारणों का नतीजा ये हुआ कि 2014 लोकसभा चुनाव में भाजपा का जो वोट प्रतिशत 17 था और 2016 के विधानसभा में 10 था, वो 2019 के लोकसभा चुनावों में 39 फीसदी हो गया. हिंदुत्व के फॉर्मूले ने हिंदू वोटों में सेंध लगाई और टीएमसी के वोटर भाजपा की तरफ खिंच गए.

    वरिष्ठ पत्रकार देबाशीष भट्टाचार्य के मुताबिक, हुगली, आरामबाग, बनगांव जैसी सीटों पर जहां टीएमसी बेहद मज़बूत रही, वहां भी वोटों का तबादला हुआ. राज्य में ओवरआल टीएमसी के कम से कम 7 फीसदी वोट भाजपा के पक्ष में गए. दूसरी तरफ, लेफ्ट के पक्ष में रहे अल्पसंख्कों के करीब 9 फीसदी वोट टीएमसी को मिले क्योंकि इन वोटरों ने राज्य की सत्ताधारी पार्टी को बेहतर समझा.

    बंगाल में ये जुमला लोकप्रिय हो रहा है कि 'बामेर वोट रामे' (यानी लेफ्ट फ्रंट के वोट राम के नाम पर गए). लेफ्ट के वफादार हिंदू वोटरों का एक बड़ा हिस्सा यानी करीब 15 फीसदी इस बार भाजपा के पक्ष में गया. दूसरी तरफ, आंकड़ों के मुताबिक लेफ्ट के जो वफादार अल्पसंख्यक वोटर थे, उनमें से बड़े हिस्से यानी 40 से 45 फीसदी ने इस बार टीएमसी को वोट दिया.

    लेकिन सांप्रदायिक और अल्पसंख्यकों के वोटिंग पैटर्न ने बंगाल के सियासी कल्चर में बड़ा बदलाव किया है इसलिए यह कहना जल्दबाज़ी हो सकती है, लेकिन जायज़ तो है कि 2021 में राज्य में होने वाला विधानसभा चुनाव भाजपा बनाम टीएमसी ही होगा क्योंकि लेफ्ट अब राज्य में प्रासंगिक नहीं रह गया.

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