West Bengal Election 2021: क्या बंगाल के रण में ममता बनर्जी को मात दे पाएंगे 'हिंदू हृदय सम्राट' मोदी?

पश्चिम बंगाल का चुनाव एक तरह से ममता बनाम मोदी का मुकाबला बनता दिख रहा है.
West Bengal Assembly Elections 2021: बंगाल में तेजी से ध्रुवीकृत हो रहे राजनीतिक परिदृश्य में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की चुनावी रणनीतियां बहुत हद तक समान हैं: अपने प्रतिद्वंद्वी के लिए उम्मीद के मुताबिक अपने संबांधित धर्म-आधारित वोटबैंक को मजबूत करना.
- News18Hindi
- Last Updated: March 4, 2021, 10:45 AM IST
(भवदीप कांग)
कोलकाता. पश्चिम बंगाल में इस बार का विधानसभा चुनाव (West Bengal Assembly Elections 2021) दो बातों में सिमट गया है. पहला- क्या भारतीय जनता पार्टी (BJP) हिंदू वोट को मजबूत कर सकती है? दूसरा- क्या टीएमसी का मुस्लिम वोट (Muslim vote) बंट जाएगा? बंगाल में तेजी से ध्रुवीकृत हो रहे राजनीतिक परिदृश्य में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की चुनावी रणनीतियां बहुत हद तक समान हैं: अपने प्रतिद्वंद्वी के लिए उम्मीद के मुताबिक अपने संबांधित धर्म-आधारित वोटबैंक को मजबूत करना.
कोई भी दल राज्य के ऐतिहासिक धर्मनिरपेक्ष लोकाचार का प्रतिनिधित्व करने का दावा नहीं कर सकता है, बंगाल के चुनावी समर में लेफ्ट और कांग्रेस का गठबंधन तीसरी ताकत के तौर पर उतरी है. लेफ्ट-कांग्रेस ने इसके लिए मुस्लिम धर्मगुरु पीरजादा अब्बास सिद्दीकी को भी साथ में कर लिया है. पीरजादा ने हाल ही में भारतीय धर्मनिरपेक्ष मोर्चा (ISF) नाम से नई पार्टी बनाई है. विवाद से बचने के लिए कांग्रेस ने तर्क दिया कि बंगाल में अकेले वामपंथियों ने आईएसएफ के साथ गठजोड़ किया है, लेकिन, दूसरे राज्यों में लेफ्ट के साथ गठजोड़ होने के कारण कांग्रेस को भी बंगाल में इस फैसले में लेफ्ट का साथ देना पड़ा.
ममता बनर्जी को पिछले एक दशक में विभाजनकारी बयानबाजी से मुक्त राज्य में मुस्लिम समुदाय को आक्रामक तरीके से लुभाने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. अब बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति के लिए भी यहां जगह बन गई है.
साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बंगाल में बीजेपी 57 प्रतिशत हिंदू वोट हासिल किया था. कुल मिलाकर पार्टी को 40 प्रतिशत जीत मिली थी. अब भगवा पार्टी को बंगाल में तीन तलाक कानून से लाभ पाने की उम्मीद है. साथ ही जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाने, राम जन्मभूमि मंदिर की नींव रखने और नागरिकता (संशोधन) कानून बनाने को लेकर भी बीजेपी 'मुस्लिम तुष्टिकरण' करना चाहेगी.
दक्षिण में अपने प्रभुत्व को बरकरार रखने का मतलब है कि पार्टी 2019 में 65 प्रतिशत मुस्लिम वोटशेयर पर लटक गई. कुल मिलाकर, अल्पसंख्यक समुदाय राज्य की 27 प्रतिशत आबादी है, जो बेशक वोट शेयर के लिहाज से एक बड़ा नंबर है. ये 100 से अधिक विधानसभा सीटों के नतीजे पलट सकता है.
वहीं, पश्चिम बंगाल में असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM (ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन) की एंट्री स्वाभाविक रूप से चिंता का कारण है. ओवैसी ने बिहार से अपने पांच विधायकों को बंगाल की सीमा से लगे निर्वाचन क्षेत्रों में पर्यवेक्षक के रूप में तैनात किया है. इन क्षेत्रों में अल्पसंख्यक आबादी 25 प्रतिशत से अधिक है. ओवैसी के काउंटर के रूप में ममता बनर्जी आरजेडी नेता तेजस्वी यादव और समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव के पास पहुंच गई हैं. ISF ने ओवैसी के खिलाफ मैदान में उम्मीदवार नहीं उतारे, लेकिन फिर भी अल्पसंख्यक वोट में दो या तीन तरह से विभाजन करने में सक्षम है.
नागरिकता कानून ने इस प्रक्रिया को बढ़ा दिया है. गृहमंत्री अमित शाह कोविड-19 वैक्सीनेशन अभियान के बाद तेज-तर्रार मटुआ समुदाय को नागरिकता का वादा करके उनकी उम्मीदें बढ़ा दी हैं.
ओबीसी, दलित और एसटी के लिए बीजेपी की पहुंच की बात करें, तो ये 12 संसदीय आरक्षित सीटों में से 7 में ही है. ऐसे में बीजेपी ममता बनर्जी की उप-राष्ट्रवाद और बाहरी-बाहरी बयानबाजी के सामने एक समग्र हिंदू पहचान बनाने का प्रयास करती है. बेशक हिंदू पहचान में बंगाली पहचान को स्वीकार करना एक चुनौती है. लिहाजा बीजेपी नेताजी सुभाष चंद्र बोस और रवींद्रनाथ टैगोर जैसे प्रतीकों का विनियोग कर रही है. पीएम मोदी के बदले लुक को इसी से जोड़कर देखा जा रहा है.
ममता बनर्जी ने अपेक्षाकृत छोटे, लेकिन चुनावी रूप से महत्वपूर्ण हाशिए के समुदायों के लिए हर कदम पर बीजेपी के कदमों को गिनाया है. बीजेपी की तरह वह भी मटूओं और राजबंशी (उत्तर बंगाल में एक प्रभावशाली जातीय समूह) का चयन कर रही हैं.
लेकिन, 2019 के आम चुनाव के बाद हालात बदल गए हैं. बंगाल में टीएमसी के लिए मैदान बदल गया है और सामने खेल रहा खिलाड़ी भी. हाल ही में टीएमसी के कई दिग्गज नेता बीजेपी में शामिल हो चुके हैं, जो चुनाव में टीएमसी के लिए बड़ी बाधा बन सकते हैं. इसमें पूर्व मंत्री सुवेंदु अधिकारी और लोकसभा सांसद सुनील मंडल जैसे दिग्गज शामिल हैं. वहीं, एक दर्जन से अधिक सिटिंग विधायकों का उल्लेख यहां नहीं किया जा रहा है. दक्षिण बंगाल में सुवेंदु अधिकारी का दबदबा ऐसा है कि सीएम ने उन्हें कोलकाता के बजाय नंदीग्राम से चुनाव लड़ाने की मांग की है.
हमें यहां टीएमसी के शासनकाल में हुए वित्तीय घोटालों को भी नहीं भुलना चाहिए. सारदा घोटाला और नारद स्टिंग स्कैम, कोयला घोटाला को लेकर एजेंसियों ने हाल ही में अभिषेक बनर्जी की पत्नी से पूछताछ की थी. वहीं, कई ठिकानों पर छापा भी मारा गया था. इस बीच, TMC को संसाधन संकट का सामना करना पड़ रहा है.
अब आठ चरणों में होने जा रहे बंगाल चुनाव में टीएमसी को बड़ी आर्थिक चुनौती का सामना करना पड़ सकता है. बेशक चुनाव आयोग ने इसे चुनावी हिंसा से बचने का तरीका बताया है, मगर साफ है कि इससे टीएमसी बड़े सोच में पड़ गई है.
चुनाव में बहुत कुछ दीदी के खिलाफ बीजेपी के 'चेहरे' की अनुपस्थिति एक फायदा हो सकती है. लेकिन यहां इसका भी जवाब है. ऐसा देखा गया है कि बीजेपी चुनाव में शायद ही सीएम चेहरे का ऐलान करती हो? मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आने के बाद से चुनाव उन्हीं के नाम पर लड़े जाते हैं
व्यक्तित्व के संदर्भ में, बंगाल का चुनाव भी मोदी बनाम ममता होगा. बहुलवाद अब अतीत की बात है; अब पारसवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद प्रचलन में हैं. यह सब ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि क्या 'हिंदू हृदय सम्राट' मोदी बंगाल की 'बेटी' ममता बनर्जी को चुनावी युद्ध में मात दे पाते हैं?
(डिस्क्लेमर: लेखक सीनियर जर्नलिस्ट हैं. ये उनके निजी विचार हैं)
कोलकाता. पश्चिम बंगाल में इस बार का विधानसभा चुनाव (West Bengal Assembly Elections 2021) दो बातों में सिमट गया है. पहला- क्या भारतीय जनता पार्टी (BJP) हिंदू वोट को मजबूत कर सकती है? दूसरा- क्या टीएमसी का मुस्लिम वोट (Muslim vote) बंट जाएगा? बंगाल में तेजी से ध्रुवीकृत हो रहे राजनीतिक परिदृश्य में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की चुनावी रणनीतियां बहुत हद तक समान हैं: अपने प्रतिद्वंद्वी के लिए उम्मीद के मुताबिक अपने संबांधित धर्म-आधारित वोटबैंक को मजबूत करना.
कोई भी दल राज्य के ऐतिहासिक धर्मनिरपेक्ष लोकाचार का प्रतिनिधित्व करने का दावा नहीं कर सकता है, बंगाल के चुनावी समर में लेफ्ट और कांग्रेस का गठबंधन तीसरी ताकत के तौर पर उतरी है. लेफ्ट-कांग्रेस ने इसके लिए मुस्लिम धर्मगुरु पीरजादा अब्बास सिद्दीकी को भी साथ में कर लिया है. पीरजादा ने हाल ही में भारतीय धर्मनिरपेक्ष मोर्चा (ISF) नाम से नई पार्टी बनाई है. विवाद से बचने के लिए कांग्रेस ने तर्क दिया कि बंगाल में अकेले वामपंथियों ने आईएसएफ के साथ गठजोड़ किया है, लेकिन, दूसरे राज्यों में लेफ्ट के साथ गठजोड़ होने के कारण कांग्रेस को भी बंगाल में इस फैसले में लेफ्ट का साथ देना पड़ा.

अगर लेफ्ट-कांग्रेस के पास पीरजादा सिद्दीकी हैं, तो बीजेपी के पास योगी आदित्यनाथ हैं. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मंगलवार को 'जय श्री राम', 'लव जिहाद' और गौ तस्करी सहित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सभी दृष्टिकोणों को रेखांकित करते हुए मालदा में रैली की. इसके साथ ही बीजेपी के हाई वोल्टेज इलेक्शन कैंपेन की शुरुआत भी कर दी.
ममता बनर्जी को पिछले एक दशक में विभाजनकारी बयानबाजी से मुक्त राज्य में मुस्लिम समुदाय को आक्रामक तरीके से लुभाने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. अब बीजेपी की हिंदुत्व की राजनीति के लिए भी यहां जगह बन गई है.
साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बंगाल में बीजेपी 57 प्रतिशत हिंदू वोट हासिल किया था. कुल मिलाकर पार्टी को 40 प्रतिशत जीत मिली थी. अब भगवा पार्टी को बंगाल में तीन तलाक कानून से लाभ पाने की उम्मीद है. साथ ही जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाने, राम जन्मभूमि मंदिर की नींव रखने और नागरिकता (संशोधन) कानून बनाने को लेकर भी बीजेपी 'मुस्लिम तुष्टिकरण' करना चाहेगी.
2019 के लोकसभा परिणामों के आधार पर अगर नजर दौड़ाया जाए, तो 'मुस्लिम तुष्टीकरण' का फायदा दीदी को हुआ था. कुल मिलाकर टीएमसी ने 22 सीटें जीतीं और 164 विधानसभा क्षेत्रों में नेतृत्व किया, जो कि 147 के आंकड़े से आधे तक पहुंच गए थे. हालांकि, टीएमसी उत्तर बंगाल और दक्षिण-पश्चिम में बीजेपी से हार गई. टीएमसी ने दक्षिण में क्लीनस्वीप किया, जहां उसने 19 सीटों पर जीत हासिल की.
दक्षिण में अपने प्रभुत्व को बरकरार रखने का मतलब है कि पार्टी 2019 में 65 प्रतिशत मुस्लिम वोटशेयर पर लटक गई. कुल मिलाकर, अल्पसंख्यक समुदाय राज्य की 27 प्रतिशत आबादी है, जो बेशक वोट शेयर के लिहाज से एक बड़ा नंबर है. ये 100 से अधिक विधानसभा सीटों के नतीजे पलट सकता है.
वहीं, पश्चिम बंगाल में असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM (ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन) की एंट्री स्वाभाविक रूप से चिंता का कारण है. ओवैसी ने बिहार से अपने पांच विधायकों को बंगाल की सीमा से लगे निर्वाचन क्षेत्रों में पर्यवेक्षक के रूप में तैनात किया है. इन क्षेत्रों में अल्पसंख्यक आबादी 25 प्रतिशत से अधिक है. ओवैसी के काउंटर के रूप में ममता बनर्जी आरजेडी नेता तेजस्वी यादव और समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव के पास पहुंच गई हैं. ISF ने ओवैसी के खिलाफ मैदान में उम्मीदवार नहीं उतारे, लेकिन फिर भी अल्पसंख्यक वोट में दो या तीन तरह से विभाजन करने में सक्षम है.
जाति के संदर्भ में, बीजेपी फिर से वामपंथियों की पहचान-अज्ञेयवादी राजनीति के साथ ममता को तोड़ने की चाल चल रही है. सीएम बनर्जी ने काउंटर अटैक करते हुए प्रभावशाली दलित मतुआ समुदाय, विभाजन के शरणार्थियों का मुद्दा उठाया और उन्हें चुनावी वादें से अपने साथ लाने की कोशिश की. राज्य में इनकी आबादी 17 प्रतिशत है. ये समुदाय वामपंथियों से दूर हैं, लेकिन अब बीजेपी की ओर रुख कर रहे हैं.
नागरिकता कानून ने इस प्रक्रिया को बढ़ा दिया है. गृहमंत्री अमित शाह कोविड-19 वैक्सीनेशन अभियान के बाद तेज-तर्रार मटुआ समुदाय को नागरिकता का वादा करके उनकी उम्मीदें बढ़ा दी हैं.
ओबीसी, दलित और एसटी के लिए बीजेपी की पहुंच की बात करें, तो ये 12 संसदीय आरक्षित सीटों में से 7 में ही है. ऐसे में बीजेपी ममता बनर्जी की उप-राष्ट्रवाद और बाहरी-बाहरी बयानबाजी के सामने एक समग्र हिंदू पहचान बनाने का प्रयास करती है. बेशक हिंदू पहचान में बंगाली पहचान को स्वीकार करना एक चुनौती है. लिहाजा बीजेपी नेताजी सुभाष चंद्र बोस और रवींद्रनाथ टैगोर जैसे प्रतीकों का विनियोग कर रही है. पीएम मोदी के बदले लुक को इसी से जोड़कर देखा जा रहा है.
ममता बनर्जी ने अपेक्षाकृत छोटे, लेकिन चुनावी रूप से महत्वपूर्ण हाशिए के समुदायों के लिए हर कदम पर बीजेपी के कदमों को गिनाया है. बीजेपी की तरह वह भी मटूओं और राजबंशी (उत्तर बंगाल में एक प्रभावशाली जातीय समूह) का चयन कर रही हैं.
लेकिन, 2019 के आम चुनाव के बाद हालात बदल गए हैं. बंगाल में टीएमसी के लिए मैदान बदल गया है और सामने खेल रहा खिलाड़ी भी. हाल ही में टीएमसी के कई दिग्गज नेता बीजेपी में शामिल हो चुके हैं, जो चुनाव में टीएमसी के लिए बड़ी बाधा बन सकते हैं. इसमें पूर्व मंत्री सुवेंदु अधिकारी और लोकसभा सांसद सुनील मंडल जैसे दिग्गज शामिल हैं. वहीं, एक दर्जन से अधिक सिटिंग विधायकों का उल्लेख यहां नहीं किया जा रहा है. दक्षिण बंगाल में सुवेंदु अधिकारी का दबदबा ऐसा है कि सीएम ने उन्हें कोलकाता के बजाय नंदीग्राम से चुनाव लड़ाने की मांग की है.
इस चुनाव में ममता बनर्जी के लिए एक और नकारात्मक विवाद भतीजे अभिषेक बनर्जी को लेकर है. उन्हें लेकर टीएमसी के भीतर असंतोष बढ़ रहा है. बीजेपी इसे वंशवाद के तौर पर उठा रही है.
हमें यहां टीएमसी के शासनकाल में हुए वित्तीय घोटालों को भी नहीं भुलना चाहिए. सारदा घोटाला और नारद स्टिंग स्कैम, कोयला घोटाला को लेकर एजेंसियों ने हाल ही में अभिषेक बनर्जी की पत्नी से पूछताछ की थी. वहीं, कई ठिकानों पर छापा भी मारा गया था. इस बीच, TMC को संसाधन संकट का सामना करना पड़ रहा है.
अब आठ चरणों में होने जा रहे बंगाल चुनाव में टीएमसी को बड़ी आर्थिक चुनौती का सामना करना पड़ सकता है. बेशक चुनाव आयोग ने इसे चुनावी हिंसा से बचने का तरीका बताया है, मगर साफ है कि इससे टीएमसी बड़े सोच में पड़ गई है.
चुनाव में बहुत कुछ दीदी के खिलाफ बीजेपी के 'चेहरे' की अनुपस्थिति एक फायदा हो सकती है. लेकिन यहां इसका भी जवाब है. ऐसा देखा गया है कि बीजेपी चुनाव में शायद ही सीएम चेहरे का ऐलान करती हो? मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आने के बाद से चुनाव उन्हीं के नाम पर लड़े जाते हैं
व्यक्तित्व के संदर्भ में, बंगाल का चुनाव भी मोदी बनाम ममता होगा. बहुलवाद अब अतीत की बात है; अब पारसवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद प्रचलन में हैं. यह सब ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि क्या 'हिंदू हृदय सम्राट' मोदी बंगाल की 'बेटी' ममता बनर्जी को चुनावी युद्ध में मात दे पाते हैं?
(डिस्क्लेमर: लेखक सीनियर जर्नलिस्ट हैं. ये उनके निजी विचार हैं)