क्या जेएनयू में लेफ्ट के आखिरी दिन चल रहे हैं?
जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी (जेएनयू) और वहां की स्टूडेंट यूनियन बीते कुछ सालों से लगातार चर्चाओं में रही है. जेएनयू को लेफ्ट पॉलिटिक्स का गढ़ माना जाता रहा है और इस यूनिवर्सिटी ने देश की लगभग सभी बड़ी पार्टियों को लीडर्स भी दिए हैं. आने वाली 14 सितंबर को एक बार फिर जेएनयू में छात्रसंघ का चुनाव है और लगातार तीसरे साल लेफ्ट पार्टियां साथ मिलकर लड़ने के लिए मजबूर नज़र आ रही हैं. बापसा और एबीवीपी की कैंपस में बढ़ती लोकप्रियता ने एक बार फिर ये सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या जेएनयू में भी लेफ्ट के दिन अब लद गए हैं ?
साथ आए चारों लेफ्ट संगठन
लेफ्ट संगठनों में सीपीआई-एमएल का छात्र संगठन ऑल इंडिया स्टूडेंट्स असोसिएशन (आइसा) बीते कई सालों से जेएनयू की छात्र राजनीति में काफी सफल रहा है. इसके आलावा सीपीएम का स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) और सीपीआई का ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (एआईएसएफ) भी कैंपस की राजनीति में हिस्सेदारी रखता है. लेफ्ट छात्र संगठनों में डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स फेडरेशन (डीएसएफ) भी है जो कि साल 2012 में एसएफआई से ही टूटकर अस्तित्व में आया है. असल में सीपीएम ने राष्ट्रपति पद के लिए प्रणब मुखर्जी का समर्थन कर दिया था जिससे जेनयू की एसएफआई यूनिट ने नाराज़ होकर विद्रोह कर दिया और एसएफआई-जेएनयू संगठन बना लिया, इसी का नाम बाद में डीएसएफ हो गया.
बहरहाल इस बार ये चारों ही लेफ्ट छात्र संगठन 'लेफ्ट यूनिटी' के नाम से साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं. लेफ्ट पैनल से प्रेजिडेंट पोस्ट के लिए आइसा के एनसाई बाला मैदान में हैं. वाइस प्रेजिडेंट के लिए डीएसएफ की सारिका चौधरी, सेक्रेटरी के लिए एसएफआई के एजाज अहमद और जॉइंट सेक्रेटरी के लिए एआईएसएफ की अमुथा जयदीप को मैदान में उतारा गया है. हालांकि जेएनयू की स्टूडेंट राजनीति को कई सालों से नजदीक से देख रहे लोगों का मानना है कि लेफ्ट को उतना नुकसान एबीवीपी ने नहीं पहुंचाया जितना बापसा पहुंचा रही है.
बिरसा-आंबेडकर-फुले स्टूडेंट असोसिएशन (बापसा) की तरफ से 2016 में अध्यक्ष पद का चुनाव लड़कर दूसरे नंबर पर रहे राहुल सोनपिंपले दावा करते हैं कि जबसे बापसा ने जेएनयू स्टूडेंट इलेक्शन में एंट्री ली है उसके अगले साल से ही लेफ्ट संगठन साथ चुनाव लड़ने के लिए मजबूर हो गए हैं. वैसे ये दावा इसलिए भी ठीक नज़र आता है क्योंकि साल 2015-16 में बापसा ने पहली बार चुनाव लड़ा था और उस साल लेफ्ट संगठनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था और एआईएसएफ के कन्हैया कुमार ने जीत हासिल की.
साल 2016-17 में आइसा और एसएफआई ने लेफ्ट यूनिटी बनाई और साथ चुनाव लड़ा और लेफ्ट यूनिटी के मोहित पांडे ने जीत हासिल की लेकिन इसी साल बापसा के राहुल दूसरे नंबर पर रहे. साल 2017-18 में आइसा, एसएफआई और डीएसएफ ने साथ चुनाव लड़ा और लेफ्ट यूनिटी की ही गीता कुमारी ने जीत हासिल की लेकिन इस साल एबीवीपी की निधि त्रिपाठी ने दूसरे नंबर पर रहकर सबको चौंका दिया. निधि और गीता के बीच करीबन 400 वोट का ही फासला रहा था. इस साल लेफ्ट के चारों संगठन लेफ्ट यूनिटी के बैनर तले साथ-साथ चुनाव के मैदान में हैं. आइसा कि नेशनल प्रेजिडेंट और जेएनयूएसयू की अध्यक्ष रहीं सुचेता डे ये तो मानती हैं कि एबीवीपी कैंपस में मजबूत हुई है लेकिन उनका मानना है कि लेफ्ट यूनिटी चारों सीटें आसानी से निकाल लेगी.
बापसा हो रही है मजबूत
पिछले चुनावों पर भी नज़र डालें तो बापसा ने सबसे ज्यादा वोट हासिल करने वाली दूसरे नंबर की पार्टी रही थी. बापसा ने इस बार भी चारों सीटों के लिए अपने उम्मीदवार उतारे हैं. बापसा की तरफ से अध्यक्ष पद के लिए टी प्रवीण, उपाध्यक्ष के लिए पी नाइक, जनरल सेक्रेट्री के लिए विश्वंभर नाथ प्रजापति और जॉइंट सेक्रेट्री के लिए कनकलता यादव को मैदान में उतारा है. बासपा से जुड़े राहुल सोनपिंपले के मुताबिक दलित और पिछड़े जेएनयू में दूर होते गए क्योंकि लेफ्ट की लीडरशिप भी हमेशा से चंद सवर्णों के हाथ में ही सिमटी रही है. रिजर्वेशन लागू करने के मामले में जेएनयू में हमेशा से भेदभाव होता आया है और लेफ्ट भी या तो इस मामले में चुप रही या फिर खुद भी शामिल रहे. एडमिशन के लिए होने वाले वाइवा में भी भेदभाव हो रहा था और नफे कमिटी की जांच में भी ये सामने आया था.
राहुल एक कदम आगे जाकर ये तक कहते हैं कि लेफ्ट और एबीवीपी दलित-पिछड़ों के अधिकार की लड़ाई से जुड़े मामलों में एक जैसे साबित होते हैं. राहुल बताते हैं कि साइंस के जुड़ी फैकल्टीज पर राइट विंग सवर्णों का कब्ज़ा है तो सोशल साइंसेज पर लेफ्ट विंग सवर्णों ने अपना कब्ज़ा जमाया हुआ है. इसका नतीजा ये होता है कि आरक्षण के बावजूद जेएनयू में एक भी ओबीसी प्रोफ़ेसर नहीं है. बापसा इस बार मुस्लिमों के लिए भी 5 डिप्राइवेशन पॉइंट देने की मांग कर रहा है.
एबीवीपी का निशाना है नए स्टूडेंट
जेएनयू को भले ही वामपंथी किला माना जाता हो लेकिन एबीवीपी ने भी यहां अपनी मजबूत दावेदारी दर्ज करानी शुरू कर दी है. एबीवीपी ने अध्यक्ष पद के लिए ललित पांडे, उपाध्यक्ष के लिए गीताश्री बरुआ, सेक्रेट्री के लिए गणेश गुर्जर और जॉइंट सेक्रेट्री के लिए वेंकट चौबे को पैनल में उतारा है. पिछले साल चुनावों में अध्यक्ष पद की रेस में दूसरे नंबर रही निधि त्रिपाठी का दावा है कि नए स्टूडेंट्स का बड़ा हिस्सा उनके साथ है. निधि के मुताबिक एबीवीपी इस साल भी स्टूडेंट सेंट्रिक मुद्दों को लेकर ही चुनाव लड़ने जा रही है. निधि बताती हैं कि कैंपस में वाईफाई और ईरिक्शा जैसी सुविधाएं एबीवीपी की मेहनत से ही संभव हो पायी हैं. निधि आरोप लगाती हैं कि सालों से जेएनयूएसयू में लेफ्ट का दबदबा है लेकिन हॉस्टल्स की इमारत जर्जर हो गयीं हैं, वाटर कूलर में प्यूरीफायर नहीं हैं और क्लास रूम में एसी और प्रोजेक्टर तक मौजूद नहीं है.
हालांकि जानकारों का मानना है कि एबीवीपी ने नॉर्थ ईस्ट के तीन राज्यों के सीएम बुलाकर जो बवाल खड़ा किया उससे उसे नुकसान उठाना पड़ सकता है. एबीवीपी ने अपनी ताकत दिखाने के लिए बीते दिनों असम के मुख्यमंत्री सर्बानन्द सोनोवाल, अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू और मणिपुर के मुख्यमंत्री श्री एन बिरेन सिंह को बुलाया था. हालांकि नॉर्थ-ईस्ट स्टूडेंट फेडरेशन (एनईएसएफ) ने आरोप लगाया कि उन्हें कार्यक्रम में अंदर नहीं जाने दिया गया और लोगों को सवाल पूछने से भी रोका गया. इसके अगले दिन नॉर्थ-ईस्ट के स्टूडेंट और आइसा, डीएसएफ, एसएफआई, एनएसयूआई, बापसा ने गंगा ढाबा से चंद्रभागा हॉस्टल तक मार्च भी किया था. यहां तक कि पिछड़ों-दलितों का वोट बैंक हाथ से जाते देख एबीवीपी ने स्कॉलरशिप की राशि बढ़ाने और दलित पिछड़ों के आरजीएनएफ को सुचारू रूप से जारी रखने को अपने एजेंडे में शामिल कर लिया और वीसी के खिलाफ रैली भी निकाल दी.
लेफ्ट यूनिटी का खेल बिगाड़ सकती है एनएसयूआई
बीते एक साल में जेएनयू कैंपस में भी एनएसयूआई के कैडरों की संख्या बढ़ी है. कैंपस में उसकी गतिविधि भी पहले से बेहतर है और इसका नुकसान भी लेफ्ट यूनिटी को उठाना पड़ सकता है. एनएसयूआई ने इस बार शशि थरूर, सलमान खुर्शीद और पी चिदंबरम जैसे नेताओं को भी कैंपेन के लिए बुलाया था. जानकारों की माने तो एनएसयूआई के हिस्से अगर वोट बढ़ते हैं तो वो लेफ्ट यूनिटी के खाते में जाने वाले ही होंगे. एनएसयूआई खासकर मुसलमान वोटों को टार्गेट कर रही है जो जेएनयू में लेफ्ट को वोट करता है. एनएसयूआई की तरफ से अध्यक्ष पर के उम्मीदवार विकास यादव का कहना है कि उनका संगठन फासीवादी ताकतों से लड़ने के लिए प्रतिबद्ध है और कैंपस में भी वो ये लड़ाई जारी रखेंगे.
प्रेसिडेंट पद के लिए आठ उम्मीदवार मैदान में
अध्यक्ष पद पर आठ उम्मीदवार मैदान में हैं. लेफ्ट यूनिटी से एनसाईं बालाजी, बापसा से थल्लापल्ली प्रवीण, एबीवीपी से ललित पाण्डेय, छात्र राजद से जयन्त कुमार 'जिज्ञासु' और एनएसयूआई से विकास यादव चुनाव लड़ रहे हैं. निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर सैब बिलावल, निधि मिश्रा, जह्नु कुमार हीर मैदान में हैं. एबीवीपी से जुड़े रहे राघवेंद्र मिश्रा ने भी निर्दलीय अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ने की घोषणा की थी लेकिन उनका आरोप है कि जानबूझकर उनका फॉर्म नहीं स्वीकार किया गया. राघवेंद्र ने धमकी भी दी है कि अगर उनका आवेदन स्वीकार नहीं किया गया तो वे चुनाव समिति के सामने आत्मदाह कर लेंगे. हलाकि निधि मिश्रा को भी सवर्ण मोर्चा ने अपना उम्मीदवार घोषित किया है.
छात्र राजद से जयंत उम्मीदवार
राजद ने भी इस बार अध्यक्ष पद के लिए पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के कभी करीबी रहे जयंत कुमार जिज्ञासु को मैदान में उतारा है. जयंत पहले एआईएसएफ में थे और उन्होंने बीते दिनों कन्हैया पर जातिवादी और संगठन को कमजोर करने जैसे आरोप लगाकर इस्तीफ़ा दे दिया था. निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर सैब बिलावल इससे पहले जीएस कैश का चुनाव लड़ चुके हैं और जानकारी के मुताबिक उन्हें 600 के आस-पास वोट हासिल हुआ थे. हालांकि उनका वोट बैंक भी लेफ्ट यूनिटी को ही नुकसान पहुंचाता नज़र आता है.
लेफ्ट क्यों हो रहा है कमज़ोर ?
लेफ्ट यूनिटी के नेता हालांकि सार्वजनिक तौर से इस बात को मानने से हिचकते नजर आते हैं कि जेएनयू में लेफ्ट अब पहले जितना मजबूत नहीं रहा. बापसा से जुड़े राहुल और एबीवीपी की निधि त्रिपाठी भी ये सवाल उठाते हैं कि लेफ्ट संगठनों के लोग लगातार कांग्रेस और अन्य दलों में जा रहे हैं. पूर्व जेएनयूएसयू अध्यक्ष संदीप सिंह कांग्रेस में हैं और शेहला रशीद के भी पीडीपी में जाने की चर्चाएं आम हैं. कई लेफ्ट लीडर्स पर सेक्सुअल हरासमेंट के आरोप लगे हैं. ऐसे में लेफ्ट की नई लीडरशिप के सामने स्टूडेंट्स में भरोसा बनाए रखने का संकट भी है. हालांकि लेफ्ट संगठनों से जुड़े पुराने लोग ये मानते हैं कि दलित-पिछड़ों के दूर होने के चलते लेफ्ट के संगठन सिमट कर एक साथ आने के लिए मजबूर हो गए हैं. आने वाले दिनों में जेएनयू छात्र नजीब की गुमशुदगी का मामला भी फिर से तूल पकड़ सकता है.
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