लंबे समय से पर्दे के पीछे चल रही बातचीत का परिणाम है भारत-पाक के बीच संघर्षविराम का समझौता!

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अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन के सलाहकारों का तर्क है कि स्थिर अफगानिस्तान भारत के लिए भी अच्छा होगा. उनका दावा है कि इससे अल-कायदा, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मुहम्मद जैसे जिहादी समूहों को सुरक्षित ठिकाने नहीं मिलेंगे.
- News18Hindi
- Last Updated: February 26, 2021, 1:22 PM IST
नई दिल्ली. भारत और पाकिस्तान (India Pakistan) के बीच गुरुवार को संघर्षविराम को लेकर समझौता हुआ. इस समझौते के बाद माना जा रहा है कि इस्लामाबाद और नई दिल्ली के बीच गुप्त तरीके से उच्च स्तर पर बातचीत जारी है. कुछ महीने पहले दावा किया जा रहा था कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की अगुआई में भारत-पाकिस्तान वार्ता हो रही थी. पहली बार अगस्त में News18 के सहयोगी संस्थान मनीकंट्रोल ने यह रिपोर्ट किया था. राष्ट्रीय सुरक्षा पर प्रधानमंत्री इमरान खान के सलाहकार, मोईद यूसुफ ने अब स्वीकार किया है कि गुरुवार का समझौता 'पर्दे के पीछे' जारी बातचीत का परिणाम था. उन्होंने दावा किया कि भविष्य में और रास्ते खुलेंगे.
दोनों देशों के बीच जारी वार्ता को लेकर कुछ और जानकारियां सामने आई हैं. लेकिन अब यह रहस्य नहीं है कि अमेरिका, नई दिल्ली को भी बातचीत की मेज पर साथ रख रहा. पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बार-बार कश्मीर पर मध्यस्थता करने की पेशकश की थी. यहां तक कि उन्होंने और पाक के प्रधानमंत्री खान ने कुछ सीमाओं पर एक साथ काम करने का खुलासा किया था.
अमेरिका को अपने पुराने क्लाइंट तालिबान पर दबाव डालने के लिए पाकिस्तान की जरूरत है, ताकि वह अफगान सरकार को निशाना बनाने वाली हिंसा को आसानी से खत्म कर सके. इस तरह युद्धग्रस्त देश से अमेरिकी सैनिकों की वापसी का रास्ता बनेगा. पाकिस्तान के समर्थन को जीतने के लिए उसे कश्मीर पर पाकिस्तान की चिंताओं को दूर करने की आवश्यकता है.
अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन के सलाहकारों का तर्क है कि स्थिर अफगानिस्तान भारत के लिए भी अच्छा होगा. उनका दावा है कि इससे अल-कायदा, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मुहम्मद जैसे जिहादी समूह को सुरक्षित ठिकाने नहीं मिलेंगे.समस्याओं का असली जवाब वाशिंगटन के पास!
नई दिल्ली का लंबे समय से मानना है कि इन समस्याओं का असली जवाब वाशिंगटन के पास है जो पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाने के साथ उसके जिहादी साथियों से उसके संबंध खत्म करा सकता है. हालांकि अमेरिका ने चिंता जताई है कि बहुत अधिक दबाव इस्लामाबाद को बीजिंग के करीब धकेल ले जाएगा. अमेरिका का मानना है कि यह भारत के हित में नहीं है.
नियंत्रण रेखा की घोषणा से कुछ घंटे पहले गुरुवार को इस्लामाबाद में पाकिस्तान सेना के ISPR प्रमुख मेजर-जनरल बाबर इफ्तिखार ने कहा कि पाकिस्तान 'काबुल को तालिबान द्वारा फिर से कब्जा नहीं करने देगा. हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अफगानिस्तान में शून्यता ना हो.'
नियंत्रण रेखा पर हिंसा को समाप्त करने के समझौते का उद्देश्य एक बड़ी राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा होना था. साल 2003 में शुरू हुई वार्ता के परिणामस्वरूप, जनरल परवेज मुशर्रफ और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कश्मीर पर एक गुप्त समझौते की रूपरेखा तैयार की. संक्षेप में, उन्होंने जिस समझौते की योजना बनाई थी उसने नियंत्रण रेखा को एक अंतरराष्ट्रीय सीमा बना दिया और आज़ाद कश्मीर के पाकिस्तान प्रशासित क्षेत्र और भारत में कश्मीर घाटी को उच्च स्तर की स्वायत्तता दे दी.
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता में आए, तो उन्होंने पाक के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ काम करके, शांति प्रक्रिया पर पाकिस्तान की सेना को अलग-थलग करने पर काम किया. लेकिन पाकिस्तानी जनरलों ने पठानकोट, उरी और पुलवामा जैसे हमलों को अंजाम दिलाया. 2014 के बाद जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पदभार संभाला, नई दिल्ली नियंत्रण रेखा पर आक्रामक हो गई. हालांकि कश्मीर के अंदर हिंसा लगातार बढ़ती गई.
(प्रवीण स्वामी का यह लेख मूलतः अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ है जिसे यहां पढ़ा जा सकता है- LoC Ceasefire Deal is The First Step in High-Stakes Secret Diplomatic Gamble Between Delhi, Islamabad)
दोनों देशों के बीच जारी वार्ता को लेकर कुछ और जानकारियां सामने आई हैं. लेकिन अब यह रहस्य नहीं है कि अमेरिका, नई दिल्ली को भी बातचीत की मेज पर साथ रख रहा. पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बार-बार कश्मीर पर मध्यस्थता करने की पेशकश की थी. यहां तक कि उन्होंने और पाक के प्रधानमंत्री खान ने कुछ सीमाओं पर एक साथ काम करने का खुलासा किया था.
अमेरिका को अपने पुराने क्लाइंट तालिबान पर दबाव डालने के लिए पाकिस्तान की जरूरत है, ताकि वह अफगान सरकार को निशाना बनाने वाली हिंसा को आसानी से खत्म कर सके. इस तरह युद्धग्रस्त देश से अमेरिकी सैनिकों की वापसी का रास्ता बनेगा. पाकिस्तान के समर्थन को जीतने के लिए उसे कश्मीर पर पाकिस्तान की चिंताओं को दूर करने की आवश्यकता है.
नई दिल्ली का लंबे समय से मानना है कि इन समस्याओं का असली जवाब वाशिंगटन के पास है जो पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाने के साथ उसके जिहादी साथियों से उसके संबंध खत्म करा सकता है. हालांकि अमेरिका ने चिंता जताई है कि बहुत अधिक दबाव इस्लामाबाद को बीजिंग के करीब धकेल ले जाएगा. अमेरिका का मानना है कि यह भारत के हित में नहीं है.
नियंत्रण रेखा की घोषणा से कुछ घंटे पहले गुरुवार को इस्लामाबाद में पाकिस्तान सेना के ISPR प्रमुख मेजर-जनरल बाबर इफ्तिखार ने कहा कि पाकिस्तान 'काबुल को तालिबान द्वारा फिर से कब्जा नहीं करने देगा. हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अफगानिस्तान में शून्यता ना हो.'
नियंत्रण रेखा पर हिंसा को समाप्त करने के समझौते का उद्देश्य एक बड़ी राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा होना था. साल 2003 में शुरू हुई वार्ता के परिणामस्वरूप, जनरल परवेज मुशर्रफ और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कश्मीर पर एक गुप्त समझौते की रूपरेखा तैयार की. संक्षेप में, उन्होंने जिस समझौते की योजना बनाई थी उसने नियंत्रण रेखा को एक अंतरराष्ट्रीय सीमा बना दिया और आज़ाद कश्मीर के पाकिस्तान प्रशासित क्षेत्र और भारत में कश्मीर घाटी को उच्च स्तर की स्वायत्तता दे दी.
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता में आए, तो उन्होंने पाक के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ काम करके, शांति प्रक्रिया पर पाकिस्तान की सेना को अलग-थलग करने पर काम किया. लेकिन पाकिस्तानी जनरलों ने पठानकोट, उरी और पुलवामा जैसे हमलों को अंजाम दिलाया. 2014 के बाद जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पदभार संभाला, नई दिल्ली नियंत्रण रेखा पर आक्रामक हो गई. हालांकि कश्मीर के अंदर हिंसा लगातार बढ़ती गई.
(प्रवीण स्वामी का यह लेख मूलतः अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ है जिसे यहां पढ़ा जा सकता है- LoC Ceasefire Deal is The First Step in High-Stakes Secret Diplomatic Gamble Between Delhi, Islamabad)