लोकसभा चुनाव से पहले दलितों, पिछड़ों को ऐसे साधेगी मोदी सरकार!

क्या ओबीसी और दलितों के सहारे 2019 जीतेगी बीजेपी?
पिछड़े और दलित कुल आबादी का करीब 70 फीसदी बताए गए हैं. सरकार उन्हें अधिकार संपन्न बनाने के लिए ओबीसी बिल और SC/ST एक्ट संशोधन बिल ला रही है. लेकिन क्या इससे पिछड़ों, दलितों को साध पाएगी मोदी सरकार?
- News18Hindi
- Last Updated: August 2, 2018, 6:04 PM IST
अगड़ों की पार्टी कही जाने वाली बीजेपी इन दिनों पिछड़ों और दलितों पर मेहरबान नजर आ रही है. मोदी सरकार ओबीसी कमीशन को संवैधानिक दर्जा देने और अनुसूचित जाति-जनजाति उत्पीड़न निरोधक कानून (SC/ST एक्ट) संशोधन बिल लोकसभा में पेश करने वाली है. ये दोनों बिल पिछड़े और दलित समाज को अधिकार संपन्न करने के लिए हैं. सवाल यह उठता है कि आखिर सरकार ओबीसी और दलितों को लेकर अचानक इतनी संजीदा क्यों हो गई हैं? क्या सरकार पिछड़ों, दलितों के ही सहारे 2019 में महागठबंधन को मात देगी?
दरअसल, राजनीति में संख्या बल सबसे अहम है. चुनाव सिर पर हैं. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि ओबीसी और दलित समाज कुल जनसंख्या का लगभग 70 फीसदी है. इस लिहाज से किसी भी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल के लिए इनकी अनदेखी चुनाव में भारी पड़ सकती है.
एससी/एसटी एक्ट पर 20 मार्च को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दलित राजनीति में उबाल है. इस एक्ट को उसके पुराने स्वरूप में लाने की मांग को लेकर 9 अगस्त को दूसरी बार देशव्यापी दलित आंदोलन होने जा रहा है. इससे पहले 2 अप्रैल को हुआ था. उधर, नौकरियों में आरक्षण को लेकर ओबीसी समाज में भी नाराजगी है. आरोप है कि हाल ही में विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों की जो नियुक्तियां हुई हैं उनमें आरक्षण लागू नहीं किया गया.
संख्या बल की वजह से राजनीति में महत्वपूर्ण हैं ओबीसीइसलिए सरकार इनकी नाराजगी मोल लेकर 2019 में कोई रिस्क नहीं लेना चाहती. पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का मामला भी ऐसी ही कोशिश का हिस्सा बताया जा रहा है.
नया आयोग सिविल कोर्ट की शक्तियों से लैस होगा. इस शक्ति से वह आरोपी को समन कर सकता है. सजा भी दे सकता है. जैसा कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग करता है. ओबीसी में शामिल जातियों पर यदि उससे उच्च जाति का व्यक्ति अत्याचार करता है और उसकी पुलिस सुनवाई नहीं करती है तो वह आयोग का दरवाजा खटखटा सकता है. ओबीसी जाति के आधार पर यदि उससे नौकरी में कोई भेदभाव होता है तो वह आयोग जा सकता है. उसे उसी तरह की सहायता मिलेगी जैसे अनुसूचित जाति आयोग में दलितों को मिलती है.
संसद में पेश होने वाला ओबीसी बिल, संविधान संशोधन बिल है और बीजेपी इसे चुनावों में पिछड़े वर्ग को लुभाने के लिए बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश करना चाहती है. पार्टी को उम्मीद है कि इससे ओबीसी का झुकाव उसकी तरफ होगा. ओबीसी में पांच हजार से अधिक जातियां हैं.
यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या 52 फीसदी आबादी (एनएसएसओ के मुताबिक 44 फीसदी) कभी राजनीतिक तौर पर एकजुट थी जो अब सभी पार्टियां इस वर्ग को अपने पक्ष में करने के लिए जोर लगा रही हैं? ओबीसी में आने वाली जातियां राजनीतिक दलों के लिए क्यों इतनी महत्वपूर्ण हैं?
सरकारी नौकरियों में ओबीसी की भागीदारी
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डवलपिंग सोसायटी (सीएसडीएस) के निदेशक संजय कुमार कहते हैं "जो संख्या में कम रहेगा वो ज्यादा एकजुट होता है. ओबीसी सबसे ज्यादा हैं इसलिए इन्हें सियासी तौर पर एकजुट करना आसान नहीं. ओबीसी को दलित या मुस्लिम पॉलिटिक्स या वोटबैंक की तरह नहीं देखा जा सकता. क्योंकि ये एकत्र नहीं होते. फिर भी संख्या बल तो संख्या बल होता है. कोई लोकसभा या विधानसभा नहीं होगी जहां 40-45 फीसदी वोट पिछड़ों का न हो. इसलिए ये राजनीतिक दलों के लिए महत्वपूर्ण हैं."
ओबीसी: कोटे के अंदर कोटा की सियासत
ओबीसी में शामिल जातियों को लुभाने के लिए मोदी सरकार दो दांव खेल रही है. पहला दांव ओबीसी कमीशन को संवैधानिक दर्जा देने का है. दूसरा 27 फीसदी ओबीसी रिजर्वेशन के अंदर कोटा देने का है. यह काफी संवेदनशील मामला है.
आयोग तय करेगा कि ओबीसी में शामिल ऐसी कौन सी जातियां हैं जिन्हें आरक्षण का पूरा लाभ नहीं मिला और ऐसी कौन सी जातियां हैं जो आरक्षण की मलाई खा रही हैं. माना जाता है आरक्षण का लाभ कुछ ही जातियों ने उठाया. बाकी सब हाशिए पर रहीं. बीजेपी को उम्मीद है कि हाशिए पर रहीं जातियों के अधिकारों की बात करके 2019 में सियासी सीढ़ी आसानी से चढ़ी जा सकती है.
सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार का मानना है कि "2014 से ही पार्टियां ओबीसी को एक ब्लॉक के रूप में नहीं देख रही हैं. पार्टियों को पता है कि हर राज्य में ओबीसी के अपर सेक्शन हैं उसका झुकाव किसी न किसी पार्टी की तरफ पहले से है. उसे तोड़ पाना किसी के लिए मुश्किल होता है. जैसे यूपी में यादव हैं. इसलिए वहां सब-कटेगराइजेशन के जरिए वह गैर यादव ओबीसी को तोड़ने की कोशिश में है."
"इसी तरह बिहार में गैर यादव, गैर कुर्मी ओबीसी को तोड़ने की कोशिश होगी. इसीलिए बीजेपी ने सब-कटेगराइजेशन के लिए जो आयोग बनाया है उसे हम ओबीसी को तोड़ने की कोशिश के तौर पर ही देख सकते हैं. इस आयोग को बनाने के पीछे बीजेपी ने अपना राजनीतिक माइलेज जरूर देखा होगा."
नौकरियों में न के बराबर हिस्सेदारी
केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी की भागीदारी उनकी जनसंख्या के मुताबिक न के बराबर (17.31 फीसदी) है. कार्मिक विभाग की एक रिपोर्ट बताती है कि ग्रुप ए में सिर्फ 8.37, बी में 10.01 और सी में ओबीसी का प्रतिनिधित्व 17.98 फीसदी ही है. एनएसएसओ (2011-12) की रिपोर्ट बताती है कि ओबीसी के 36.6 फीसदी लोग खेती करते हैं.
दलितों पर डोरे डालने का सियासी मकसद
एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद दलित संगठनों ने कहा कि इसे सरकार ने कमजोर कर दिया. दरअसल, कोर्ट ने इस एक्ट के तहत आरोपी की तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी. केस दर्ज करने से पहले डीएसपी लेवल के अधिकारी की जांच और गिरफ्तारी से पहले एसपी की मंजूरी जरूरी कर दी थी. यह बदलाव तो कोर्ट ने किए लेकिन इसकी आंच आई सरकार पर. दलितों में सरकार के लिए अच्छा संदेश नहीं गया. दलितों में सरकार विरोधी माहौल बना. जबकि सरकार की कोशिश ये है कि किसी भी तरह उसकी दलित विरोधी छवि न बने. इसलिए एससी/एसटी एक्ट संशोधन बिल लाया जा रहा है.
सरकार के लिए मुश्किल ये है कि एससी/एसटी की संख्या अच्छी खासी है. इसीलिए ये समाज बड़ी सियासी ताकत है. जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता. 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में 16.63 फीसदी अनुसूचित जाति और 8.6 फीसदी अनुसूचित जनजाति के लोग हैं. 150 से ज्यादा संसदीय सीटों पर एससी/एसटी का प्रभाव माना जाता है.
दलितों की नाराजगी से किसे नुकसान? (File Photo)
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 46,859 गांव ऐसे हैं जहां दलितों की आबादी 50 फीसदी से ज्यादा है. 75,624 गांवों में उनकी आबादी 40 फीसदी से अधिक है. देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा की 84 सीटें एससी के लिए जबकि 47 सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं. विधानसभाओं में 607 सीटें एससी और 554 सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं. इसलिए दलितों का हितैषी बनने के लिए होड़ लगी हुई है. ऐसी होड़ कि कहीं ये वोट बैंक हाथ से छूट न जाए.
दरअसल, राजनीति में संख्या बल सबसे अहम है. चुनाव सिर पर हैं. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि ओबीसी और दलित समाज कुल जनसंख्या का लगभग 70 फीसदी है. इस लिहाज से किसी भी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल के लिए इनकी अनदेखी चुनाव में भारी पड़ सकती है.
एससी/एसटी एक्ट पर 20 मार्च को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दलित राजनीति में उबाल है. इस एक्ट को उसके पुराने स्वरूप में लाने की मांग को लेकर 9 अगस्त को दूसरी बार देशव्यापी दलित आंदोलन होने जा रहा है. इससे पहले 2 अप्रैल को हुआ था. उधर, नौकरियों में आरक्षण को लेकर ओबीसी समाज में भी नाराजगी है. आरोप है कि हाल ही में विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों की जो नियुक्तियां हुई हैं उनमें आरक्षण लागू नहीं किया गया.

केंद्र सरकार ने मार्च 2017 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) को भंग कर दिया था. इसके बाद राष्ट्रीय आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीएसईबीसी) के गठन को मंजूरी दी गई थी.
नया आयोग सिविल कोर्ट की शक्तियों से लैस होगा. इस शक्ति से वह आरोपी को समन कर सकता है. सजा भी दे सकता है. जैसा कि राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग करता है. ओबीसी में शामिल जातियों पर यदि उससे उच्च जाति का व्यक्ति अत्याचार करता है और उसकी पुलिस सुनवाई नहीं करती है तो वह आयोग का दरवाजा खटखटा सकता है. ओबीसी जाति के आधार पर यदि उससे नौकरी में कोई भेदभाव होता है तो वह आयोग जा सकता है. उसे उसी तरह की सहायता मिलेगी जैसे अनुसूचित जाति आयोग में दलितों को मिलती है.
संसद में पेश होने वाला ओबीसी बिल, संविधान संशोधन बिल है और बीजेपी इसे चुनावों में पिछड़े वर्ग को लुभाने के लिए बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश करना चाहती है. पार्टी को उम्मीद है कि इससे ओबीसी का झुकाव उसकी तरफ होगा. ओबीसी में पांच हजार से अधिक जातियां हैं.
यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या 52 फीसदी आबादी (एनएसएसओ के मुताबिक 44 फीसदी) कभी राजनीतिक तौर पर एकजुट थी जो अब सभी पार्टियां इस वर्ग को अपने पक्ष में करने के लिए जोर लगा रही हैं? ओबीसी में आने वाली जातियां राजनीतिक दलों के लिए क्यों इतनी महत्वपूर्ण हैं?

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डवलपिंग सोसायटी (सीएसडीएस) के निदेशक संजय कुमार कहते हैं "जो संख्या में कम रहेगा वो ज्यादा एकजुट होता है. ओबीसी सबसे ज्यादा हैं इसलिए इन्हें सियासी तौर पर एकजुट करना आसान नहीं. ओबीसी को दलित या मुस्लिम पॉलिटिक्स या वोटबैंक की तरह नहीं देखा जा सकता. क्योंकि ये एकत्र नहीं होते. फिर भी संख्या बल तो संख्या बल होता है. कोई लोकसभा या विधानसभा नहीं होगी जहां 40-45 फीसदी वोट पिछड़ों का न हो. इसलिए ये राजनीतिक दलों के लिए महत्वपूर्ण हैं."
ओबीसी: कोटे के अंदर कोटा की सियासत
ओबीसी में शामिल जातियों को लुभाने के लिए मोदी सरकार दो दांव खेल रही है. पहला दांव ओबीसी कमीशन को संवैधानिक दर्जा देने का है. दूसरा 27 फीसदी ओबीसी रिजर्वेशन के अंदर कोटा देने का है. यह काफी संवेदनशील मामला है.
सरकार उन जातियों को ज्यादा लाभ देने की तैयारी कर रही है जो ओबीसी में तो हैं लेकिन उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिला. ओबीसी सब-कटेगराइजेशन के लिए 2 अक्टूबर 2017 सरकार ने एक आयोग का गठन किया था. इसकी अध्यक्ष दिल्ली हाईकोर्ट की पूर्व मुख्य न्यायाधीश जी. रोहिणी हैं.
आयोग तय करेगा कि ओबीसी में शामिल ऐसी कौन सी जातियां हैं जिन्हें आरक्षण का पूरा लाभ नहीं मिला और ऐसी कौन सी जातियां हैं जो आरक्षण की मलाई खा रही हैं. माना जाता है आरक्षण का लाभ कुछ ही जातियों ने उठाया. बाकी सब हाशिए पर रहीं. बीजेपी को उम्मीद है कि हाशिए पर रहीं जातियों के अधिकारों की बात करके 2019 में सियासी सीढ़ी आसानी से चढ़ी जा सकती है.
सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार का मानना है कि "2014 से ही पार्टियां ओबीसी को एक ब्लॉक के रूप में नहीं देख रही हैं. पार्टियों को पता है कि हर राज्य में ओबीसी के अपर सेक्शन हैं उसका झुकाव किसी न किसी पार्टी की तरफ पहले से है. उसे तोड़ पाना किसी के लिए मुश्किल होता है. जैसे यूपी में यादव हैं. इसलिए वहां सब-कटेगराइजेशन के जरिए वह गैर यादव ओबीसी को तोड़ने की कोशिश में है."
"इसी तरह बिहार में गैर यादव, गैर कुर्मी ओबीसी को तोड़ने की कोशिश होगी. इसीलिए बीजेपी ने सब-कटेगराइजेशन के लिए जो आयोग बनाया है उसे हम ओबीसी को तोड़ने की कोशिश के तौर पर ही देख सकते हैं. इस आयोग को बनाने के पीछे बीजेपी ने अपना राजनीतिक माइलेज जरूर देखा होगा."
नौकरियों में न के बराबर हिस्सेदारी
केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी की भागीदारी उनकी जनसंख्या के मुताबिक न के बराबर (17.31 फीसदी) है. कार्मिक विभाग की एक रिपोर्ट बताती है कि ग्रुप ए में सिर्फ 8.37, बी में 10.01 और सी में ओबीसी का प्रतिनिधित्व 17.98 फीसदी ही है. एनएसएसओ (2011-12) की रिपोर्ट बताती है कि ओबीसी के 36.6 फीसदी लोग खेती करते हैं.
दलितों पर डोरे डालने का सियासी मकसद
एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद दलित संगठनों ने कहा कि इसे सरकार ने कमजोर कर दिया. दरअसल, कोर्ट ने इस एक्ट के तहत आरोपी की तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी. केस दर्ज करने से पहले डीएसपी लेवल के अधिकारी की जांच और गिरफ्तारी से पहले एसपी की मंजूरी जरूरी कर दी थी. यह बदलाव तो कोर्ट ने किए लेकिन इसकी आंच आई सरकार पर. दलितों में सरकार के लिए अच्छा संदेश नहीं गया. दलितों में सरकार विरोधी माहौल बना. जबकि सरकार की कोशिश ये है कि किसी भी तरह उसकी दलित विरोधी छवि न बने. इसलिए एससी/एसटी एक्ट संशोधन बिल लाया जा रहा है.
सरकार के लिए मुश्किल ये है कि एससी/एसटी की संख्या अच्छी खासी है. इसीलिए ये समाज बड़ी सियासी ताकत है. जिसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता. 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में 16.63 फीसदी अनुसूचित जाति और 8.6 फीसदी अनुसूचित जनजाति के लोग हैं. 150 से ज्यादा संसदीय सीटों पर एससी/एसटी का प्रभाव माना जाता है.

सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 46,859 गांव ऐसे हैं जहां दलितों की आबादी 50 फीसदी से ज्यादा है. 75,624 गांवों में उनकी आबादी 40 फीसदी से अधिक है. देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा की 84 सीटें एससी के लिए जबकि 47 सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं. विधानसभाओं में 607 सीटें एससी और 554 सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं. इसलिए दलितों का हितैषी बनने के लिए होड़ लगी हुई है. ऐसी होड़ कि कहीं ये वोट बैंक हाथ से छूट न जाए.