मधुबाला (फाइल फोटो)
बसंत. इसका एक और नाम मधुमास. हर साल तय वक्त पर आता है. जब आता है तो प्रकृति का कण-कण ठिठुरता, सिकुड़ता हुआ पाता है. लेकिन ये ऋतुराज है. इस नाते प्रकृति के संरक्षण, उसे नया जीवन देने का दायित्व इस पर है. और अपनी निर्धारित अवधि में वह ऐसा करता भी है. कणों में ऊर्जा भरता है. रगों में रंग भरता है. कोनों में उल्लास भरता है. प्रेम को परवान चढ़ाकर उसे छितराता है. सौंदर्य को चरम पर ले जाकर बिखेरता है. और ठिठुरन, सिकुड़न, जकड़न को साथ ले विदा हो जाता है.
ऐसे मधुमास के करीब-करीब यौवन पर ब्रितानिया-दिल्ली के किसी घर की दहलीज के भीतर एक ‘बाला’ की किलकारी गूंजती है. ये घर अताउल्लाह खां यूसुफजई उर्फ ‘देहलवी’ और आयशा बेगम का है. तारीख है 14 फरवरी और साल 1933 का. इस घर में हुई 11 संतानों में यह पांचवीं है. नाम रखा गया है मुमताज जहां बेगम देहलवी. अभी ये महज नाम है अलबत्ता. क्योंकि किसी को मालूम नहीं है कि ये मुमताज आने वाले महज 36 बसंत के भीतर ही किसी ‘जहां का ताज’ होने वाली है.
मुमताज अभी 5-6 बरस की ही है. मधुमास की पैदाइश. सो, अक्सर ही अलहदा उमंग में रहने वाली. खाती, खेलती है. नाचती, गाती है. सबके मन में उमंग भरती है कि तभी वह अपने परिवार को कांपता, थरथराता देखती है. इंपीरियल टोबैको कंपनी (ITC) ने पिता को नौकरी से निकाल दिया है. तंगहाली में परिवार अपने आप को सिकोड़ने पर मजबूर हो रहा है. लिहाजा, ऋतुराज बसंत की तरह वह बच्ची परिवार के हर कोने में रंग भरने का जिम्मा अपने कांधों पर उठा लेती है.
मधुमास की पैदाइश बच्ची का सफर शुरू हुआ तो ‘बसंत’ से
परिवार कट्टर मजहबी है. इसलिए माता-पिता थोड़ा हिचकते हैं. बच्ची को घर की दहलीज से बाहर कैसे निकालें या निकलने दें. पर कोई और रास्ता भी तो नहीं सूझ पड़ता है. हुनर, हौसला और कुछ हो सकने की उम्मीदें सिर्फ इसी बच्ची में नजर आ रही हैं. लिहाजा वे भी हिम्मत बांधते हैं और यहां से वह महज 7 साल की बच्ची ऑल इंडिया रेडियो (AIR) में कुछ गाने, गुनगुनाने का काम शुरू कर देती है. यहीं, कुछ महीनों के भीतर ही उस पर नजर पड़ती है, रायबहादुर चुन्नीलाल की. ये बॉम्बे टॉकीज के मैनेजर हैं. वे मुमताज और उसके परिवार को बंबई बुला लेते हैं.
लेकिन राहें आसान नहीं हैं यहां. फिर ‘राज और ताज’ की राहें आसान हुआ भी कहां करती हैं. मुमताज और उसके परिवार को बंबई के मलाड में गाय, भैंसों के एक तबेले से लगी जगह में टिकने का ठिकाना मिला है. रायबहादुर चुन्नीलाल की पहल पर बॉम्बे टॉकीज स्टूडियों में मुमाताज को फिल्मों में बच्चों के किरदार के लिए मुकर्रर कर लिया जाता है. मेहनताना 150 रुपए महीना. और इस मेहनताने पर ‘बेबी मुमताज’ की जो पहली फिल्म बाअमल होती है, उसका नाम खास गौरतलब, ‘बसंत’. साल 1942, मधुमास की पैदाइश उस बच्ची का सफर ‘बसंत’ से शुरू हो चुका है.
शुरुआत तो हो गई, लेकिन शुरू में ही झटके भी लगे खूब. बॉम्बे टॉकीज ने करार खत्म कर दिया है. फिलहाल उसे ‘बेबी मुमताज’ की जरूरत नहीं है. लिहाजा, वह परिवार के साथ दिल्ली लौट आई है. लेकिन कम वक्त के लिए ही. महज एक बसंत गुजरा है कि बॉम्बे टॉकीज की मुखिया और मशहूर अदाकारा देविका रानी फिर बेबी मुमताज को वापस बंबई बुलवा भेजती हैं. परिवार वहां वापस मलाड के पुराने ठिकाने पर आ टिकता है. हालांकि बॉम्बे टॉकीज में फिर बात नहीं बनती है. लेकिन इस बार सब तय कर चुके हैं कि अब वापस नहीं लौटना है. इसलिए दीगर जगहों पर कोशिशें शुरू होती हैं, जो जल्द कामयाब होती हैं. उस दौर के फिल्मों के बड़े कारसाज चंदूलाल शाह का ‘रंजीत मूवीटोंस’ स्टूडियो बेबी मुमताज के साथ 3 साल का करार करता है. मेहनताना 300 रुपए महीना. अब तक बेबी मुमताज की जिंदगी के 11 बसंत ही गुजरे हैं, लेकिन निखार नजर आने लगा है. संघर्ष जारी है और सफर भी. यहां से 2 बसंत और गुजरते हैं. मोहन सिन्हा को ‘चित्तौड़ विजय’ और ‘मेरे भगवान’ नाम की फिल्में बनानी हैं. इनमें वे 13 साल की बच्ची को उसके बचपने से बाहर लाकर पूरी अदाकारा की तरह पेश करने का मंसूबा रखते हैं. लेकिन ‘बेबी मुमताज’, ये नाम नहीं जंचता उन्हें. वे नया नाम सुझाते हैं उसका. और इस तरह मधुमास की पैदाइश ‘बेबी मुमताज’ साल 1946 के बसंत के आसपास किसी वक्त ‘मधुबाला’ (Madhubala) होकर दुनिया में नुमायां होती है.
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