चेन्नईः तमिलनाडु में मेडिकल दाखिलों में सरकारी स्कूलों को दिए गए 7.5 फीसदी कोटे पर मद्रास हाईकोर्ट ने गुरुवार को मुहर लगा दी. हाईकोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया है कि वो 5 साल में इस कोटे का रिव्यू करे ताकि देखा जा सके कि आगे इसकी जरूरत है या नहीं. इस कोटे के खिलाफ प्राइवेट स्कूलों और सहायता प्राप्त स्कूलों की तरफ ये कहकर याचिकाएं दाखिल की गई थीं कि इस कोटे का फायदा उन्हें भी दिया जाए. कुछ याचिकाओं में इस आरक्षण को संविधान के खिलाफ बताते हुए चुनौती दी गई थी. लेकिन हाईकोर्ट ने गुरुवार को इन सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया.
तमिलनाडु में मेडिकल कॉलेजों के अंडर ग्रैजुएट कोर्सों में एडमिशन के लिए सरकारी स्कूलों के स्टूडेंट्स को ये आरक्षण दिया गया है. हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान याचिककर्ताओं ने दलील दी थी कि राज्य में जनरल कैटिगरी के स्टूडेंट्स के लिए महज 31 फीसदी सीटें ही बची हैं क्योंकि 69 प्रतिशत कोटा पहले से लागू है. अगर 7.5 प्रतिशत का ये कोटा अलग से दिया गया तो सामान्य वर्ग की सीटें और भी कम हो जाएंगी. सुनवाई के दौरान तमिलनाडु सरकार ने इस कोटे की वकालत करते हुए कहा कि इससे ग्रामीण-शहरी और अमीर-गरीब के बीच का फासला कम करने में मदद मिलती है क्योंकि अमीर और शहरी लोग ज्यादा मेडिकल सीटें ले जाते हैं. दोनों तबकों में सांस्कृतिक भिन्नता की वजह से भी गरीब और ग्रामीण छात्र पीछे रह जाते हैं.
TOI के मुताबिक, मद्रास हाईकोर्ट ने इस कोटे के खिलाफ सभी दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि राज्य सरकार को इस तरह की संस्थागत वरीयता देने का पूरा अधिकार है. सुप्रीम कोर्ट भी इस पर मुहर लगा चुका है. हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस मुनीश्वर नाथ भंडारी और जस्टिस डी भारत चक्रवर्ती की बेंच ने कहा कि राज्य सरकार को इस सरकारी स्कूल कोटे पर 5 साल में विचार करना होगा, जैसा कि आयोग ने सलाह दी थी. इस दौरान सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर सुधारने के भी प्रयास किए जाएं ताकि इस आरक्षण को आगे बढ़ाने की जरूरत ही न पड़े.
इस आरक्षण पर हाईकोर्ट की मुहर राज्य की डीएमके सरकार के लिए एक बड़ी जीत है. पिछली AIADMK सरकार ने इस कोटे को लागू किया था, तभी से ये कानूनी लड़ाई में उलझ गया था. द न्यू इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, सरकार ने इस मामले में पैरवी करने के लिए बड़े वकीलों की फौज उतारी थी. इनमें कपिल सिब्बल, पी. विल्सन और तमिलनाडु के एडवोकेट जनरल आर षणमुगुसुंदरम शामिल थे.
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