प्रतीकात्मक तस्वीर
वैभव सोनावणे
महाराष्ट्र की एक जात पंचायत में ऐसी प्रथा आज भी जारी है, जिसे सुनकर कोई भी हैरान हो सकता है. ये परंपरा शादी के बाद कौमार्य साबित करने के लिए होती है. समाज की महिलाएं ही ये टेस्ट करती हैं. जब एक युवक ने विरोध किया तो न केवल उसका समाज निकाला हो गया.
सुहागरात के दिन कौमार्य जांच की बात सुनकर अजीब लगता है लेकिन महाराष्ट्र का कंजारभाट समाज में आज भी ऐसा करता है. सुहागरात के दिन नवविवाहिता के कौमार्य की जांच समाज की महिलाएं अपने तरीके से करती हैं. जब इसी समाज के पढ़े लिखे और ऊंचे पद पर नौकरी कर रहे एक युवक ने इसके खिलाफ आवाज उठाई तो उन्हें समाज से निकाल दिया गया. युवक का नाम कृष्ण इंद्रेकर है.
कौमार्य जांच की बात सुनकर हैरान रह गए
कृष्ण महाराष्ट्र सरकार में उच्च पदस्थ अधिकारी हैं. 1996 में जब उनकी शादी हुई तो उन्हें पहली बार कंजारभाट समाज की अजीबोगरीब परिपाटी के बारे में पता चला. ये परिपाटी सुहागरात के दिन कौमार्य साबित करने की शर्त की थी. वह हैरान रह गए. नवविवाहिता के कौमार्य की जांच समाज की महिलाएं ही अपने परंपरागत तरीके से करती हैं. कृष्ण का कहना है कि उन्होंने सुहागरात के दिन साफ कह दिया कि वो ऐसी कोई जांच नहीं कराने वाले. बस फिर तो न केवल उनके घर के लोग बल्कि पूरा समाज उनके खिलाफ हो गया. उन पर काफी दवाब पड़ा. जब वह नहीं माने तो उन्हें बहिष्कृत कर दिया गया.
कैसे होती है जांच
इस परंपरा के तहत समाज की महिलाएं नवदंपत्ति को एक सफेद चादर पर सोने के लिए कहती हैं. सुबह होने पर सफेद चादर पर पड़े खून के जरिए ये जांच होती है कि नववधू कौमार्य टेस्ट में पास हुई या नहीं.
21 सालों से जारी है बहिष्कार
केवल कृष्ण ही नहीं बल्कि उनकी पढी लिखी पत्नी अरुणा ने भी इसका विरोध किया था. जिसकी उन्हें बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी. शादी के 21 साल बाद भी उनका न तो बहिष्कार खत्म हुआ है और न ही नाते-रिश्तेदार उनसे नाता रखते हैं.
सरकार नहीं उठाना चाहती कोई कदम
इंद्रेकर दंपति अपने मामले को सरकार के पास तक ले गए. उन्होंने महाराष्ट्र सरकार को चिठठी लिखकर कुप्रथा के खिलाफ कानून बनाने की मांग की. लेकिन सरकार की तरफ से कोई कदम उठाया नही गया. पूछने पर बताया जाता है कि ये एक समाज की प्रथा है इसमें जब तक कोई मामला दर्ज नहीं हो, कोई कुछ नही कर सकता है.
मानवाधिकारों का उल्लंघन है ये
कौमार्य परीक्षण एक बहुत ही विवादास्पद जांच है. कई देशों की सरकारों और एमनेस्टी इंटरनेशनल ने इस पर रोक लगाई हुई है. एमनेस्टी इसे अपमानजनक और मानव अधिकारों का उल्लंघन मानती है. लेकिन देश के कई हिस्सों में ऐसी परंपराएं अब भी जारी हैं.
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