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गुस्से में हैं बिहारी युवा और वे ऐसे हालात ज्यादा दिन बर्दाश्त नहीं कर सकते

आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव (बायें) और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (दायें) की फाइल फोटो

आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव (बायें) और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (दायें) की फाइल फोटो

20 मई को, #IndustriesInBihar के नाम से एक ट्विटर ट्रेंड (Twitter Trend) चला. इसमें लगभग सभी प्रमुख संगठन राज्य में औद्य ...अधिक पढ़ें

    (मारिया शकील, रौनक कुमार गुंजन)

    एक 'बिहारी’ (Bihari) एक हजार शब्द की थीसिस (Thesis) को एक शब्द से खारिज कर सकता है. और यह एक शब्द संयुक्त रूप से हिंदी के सभी अक्षरों (all of the Hindi alphabets) से ज्यादा बिहारी होगा. जैसे 'जुझारूपन', एक शब्द जिसे हिंदी पट्टी (Hindi Belt) में बहुत से लोग जानते तो हैं, लेकिन इसे सही मायने में बिहारी ही व्यक्त करते हैं. यह उन दर्जनों शब्दों में से एक है जिससे बिहारी वह बात कहते आए हैं, जो एक हजार शब्द नहीं कह सकते. ऐसा लगता है कि नया बिहार (Bihar), केवल एक तरह का जिद्दीपना है. इसका कभी हार न मानने वाला स्वभाव, टूटे वादों, जंगल राज के सालों, यहां तक ​​कि जबरदस्त उदासीनता को छिपा लेता है.

    जब राज्य एक अभूतपूर्व वैश्विक महामारी (Global Pandemic) का सामना कर रहा है, 'जुझारू बिहारी’ अपनी झुंझलाहट’ (हताशा) को दूर करने के लिए नए तरीके खोज रहा है. जाति के आंकड़ों से दूर एक नए राजनीतिक नैरेटिव और सिर्फ 'बिजली, पानी और सड़क' नहीं, बल्कि इससे ज्यादा की भूख ने एक नए और पेचीदा फायरब्रांड (युवाओं) को जन्म दिया है, जो टिकटॉक और यूट्यूब (TikTok and YouTube) जैसे माध्यमों से, सरकार और विपक्ष (Opposition) दोनों को निशाना बना रहा है.वे (युवा) इन माध्यमों पर इसे 'आलसी रजनीति' या थकी हुई और हैक की गई राजनीति कहते हैं.

    बिहारी युवाओं के दो अनुभव
    जीवन के विभिन्न अनुभवों के बीच, इस युवा ब्रिगेड के पास दो अनुभव हैं: राज्य में रोजगार की कमी के कारण विस्थापन की मजबूरी और उनकी पहचान के लिए लगातार नीचा दिखाया जाना. 20 मई को, #IndustriesInBihar के नाम से एक नेशनल ट्विटर ट्रेंड चला, जिसमें लगभग सभी प्रमुख संगठन राज्य में औद्योगिक विकास की आवश्यकता पर अपनी बात रखने के लिए आगे आए. इस ट्रेंड ने कई लोगों को कई दिनों के लिए सोचने पर मजबूर कर दिया. इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था कि किसी भी राजनीतिक समर्थन के बिना इतने बड़े स्तर पर साथ मिल एकजुट आवाज उठाई गई हो. इसके पीछे रहे मेन प्लेयर्स में से एक मिथिला स्टूडेंट यूनियन था.

    उन चीजों के उत्पादन में मूकदर्शक बना बिहार, जिनमें कभी सबसे आगे था
    मिथिला स्टूडेंट यूनियन के नेता आदित्य मोहन कहते हैं, “हम एक बड़े संगठन हैं. हमने अपने हजारों सदस्यों को ट्विटर पर इकट्ठा किया. युवा नेताओं के साथ कई अन्य समूह एक साथ आए और हम आम सहमति पर पहुंचे कि हमें उस हैशटैग के लिए जोर लगाना चाहिए. दोपहर तक, 2 लाख से अधिक ट्वीट हो गये थे.”

    आदित्य मोहन ने जोर देकर कहा कि वे केवल खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों आदि जैसे पारंपरिक उद्योगों के लिए ही मांग नहीं कर रहे हैं. उन्होंने कहा, “हम मनोरंजन क्षेत्र में उद्योग चाहते हैं, हम शिक्षा क्षेत्र में काम करना चाहते हैं, अधिक निजी कॉलेज चाहते हैं. आम और लीची का उत्पादन यहां बहुतायत में किया जाता है, लेकिन यहां जूस की इकाईयां नहीं हैं.”

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    जो बिहार कभी बागवानी उत्पादन के 50 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार था, चीनी का 25 प्रतिशत और चावल और गेहूं के उत्पादन का 29 प्रतिशत जहां होता था, अब ज्यादातर क्षेत्रों में मूक दर्शक बन गया है, जिनमें कभी वह हावी था.

    उपलब्ध नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, देश में संचालित होने वाली कुल औद्योगिक इकाइयों की संख्या में बिहार का हिस्सा केवल 1.5% था. इसके अलावा, बिहार में प्रति कारखाने की निश्चित पूंजी का औसत आकार राष्ट्रीय स्तर के 14.70 करोड़ रुपये की तुलना में केवल 3.39 करोड़ रुपये था. बिहार में उद्योगों में कुल रोजगार 1.19 लाख था, जो राष्ट्रीय औसत का मात्र 0.8% था.

    मोहन कहते हैं, "हमारे गांव वृद्धाश्रम होते जा रहे हैं. उन्होंने कहा कि राज्य में सबसे बड़ी समस्या पलायन की है. राज्य में ऐसा कुछ भी नहीं है जो युवाओं को यहीं रहने के लिए प्रेरित कर सके. कोई कॉलेज, कोई उद्योग, कोई स्वास्थ्य सेवा यहां नहीं है."

    मिथिला स्टूडेंट यूनियन एक युवा-आधारित गैर-राजनीतिक संगठन है, जिसका गठन 2015 में हुआ था, जो अब 12 राज्यों में फैल चुका है. वे कहते हैं, “हमारा उद्देश्य उन कारकों के बारे में बात करना है जो क्षेत्र और छात्र को लाभ पहुंचा सकते हैं. हमने यह काम अपने विश्वविद्यालय, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय में समस्याओं के बारे में बात करके शुरू किया. जहां पर्याप्त शिक्षक नहीं थे, सत्र देर से शुरू होता था, शायद ही कुछ पढ़ाया जाता था.”

    संगठन ने राज्य में उद्योगों और रोजगार की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन किया है. वे बताते हैं, “हमने दरभंगा में एक हवाई अड्डे की मांग की. हमने क्षेत्र में एक एम्स की आवश्यकता के लिए भी प्रदर्शन किया. हम पिछले छह वर्षों से लगातार काम कर रहे हैं और अब हमारे पास पंचायत स्तर पर 8 से 10 जिलों में एक टीम है. हमारे पास समूह में 6 लाख से अधिक सदस्य हैं, जो कि जातीय समीकरण से आगे बढ़ने का प्रयास कर रहे हैं.” 2015 में, चार, 23 से 25 वर्षीय युवाओं ने एक साथ आकर इस संगठन का गठन किया.

    "बिहार मांगे रोजगार" के राष्ट्रीय संयोजक रंजय बिहारी "सब को वो दिन न देखना पड़े", यह सुनिश्चित करने के लिए सरकार की विकृतियों और व्यवस्था में सदियों पुरानी सड़ांध को सामने लाने के लिए इसी रास्ते का उपयोग कर रहे हैं. उस दिन के जरिए वे एक ऐसी घटना का जिक्र करते हैं, जब उन्हें सुबह 3 बजे पुलिस ने सिर्फ इसलिए जगाया था क्योंकि वे बिहार से थे.

    वे बताते हैं, "दिल्ली में विज्ञापन के क्षेत्र में अपनी आखिरी नौकरी के दौरान, मुझे 2014 में किसी काम के लिए वेल्लोर भेजा गया था. सुबह लगभग 3 बजे तीन पुलिसकर्मियों ने मेरे दरवाजे पर दस्तक दी. वे जबरदस्ती अंदर घुस गए और मेरे पूरे कमरे की तलाशी ली. पूछताछ करने पर उन्होंने बताया, यह एकाएक की जाने वाली जांच थी. जिसे वे होटलों में यह सुनिश्चित करते हैं कि जो गेस्ट आए हैं, उनका कोई बुरा इरादा तो नहीं है. रजिस्टर बुक ने से उन्हें पता चला था कि बिहार से वहां केवल एक गेस्ट था. उन्होंने बताया, मेरे राज्य मेरे राज्य के चलते उन्हें शक हुआ था."

    रंजय एक और घटना सुनाते हैं, जहां उन्हें चेन्नई में एक मकान मालकिन ने उनने दोस्त के किराए के घर से बाहर निकाल दिया गया था. वह बताते हैं, "उसने झगड़ा शुरू कर दिया, गालियां देते हुए कहा कि बिहारी अपराधी होते हैं और यह कहने लगी कि वह अपने घर में एक बिहारी को नहीं रहने देंगी. वह पुलिस भी बुलाने वाली थी. यह पूरे भारत में हमारी छवि है."

    विज्ञापन और फिल्म उद्योग में 13 साल से अधिक समय तक काम करने के बाद, रंजय 2015 में बिहार के गया में अपने गृह नगर लौट आए. इसके बाद, उन्होंने बिहार मांगे रोजगर नाम से एक फेसबुक ग्रुप बनाया, जहां वे राज्य में बढ़ती बेरोजगारी के चलते होने वाले बाध्यकारी प्रवास को प्रकाश में लाते हैं.

    वे कहते हैं, "जब मैं अपनी नौकरी करता था, तो मेरे अंदर लगातार यह अहसास बना रहता था कि राज्य के बाहर बिहारियों के लिए कोई सम्मान नहीं है. उनका अपराधियों के रूप में और उन लोगों के रूप में मजाक उड़ाया जाता है, जिन्हें सभ्य समाज में जगह नहीं दी जानी चाहिए. यह आंशिक रूप से है इसलिए था क्योंकि भारी संख्या में लोग नौकरियों की तलाश में बिहार से बाहर जाते हैं और इससे लोगों को लगता है कि उनके अवसर छीन लिए जा रहे हैं."

    रंजय ने अपने ग्रुप के साथ इस वर्ष जनवरी में एक सप्ताह तक "बिहार मांगे रोजगार" के नारे के साथ मार्च किया, जहां उन्होंने बिहार में युवाओं के लिए रोजगार की मांग की.

    उन्होंने बताया, "नारे को सीपीआई नेता कन्हैया कुमार ने भी अपनाया, जब उन्होंने कहा, "नहीं चाहिए एनपीआर (NPR), बिहार मांगे रोज़गार". एक ऐसा ही नारा विपक्षी नेता तेजस्वी यादव ने भी इस्तेमाल किया गया था, जब उन्होंने कहा था कि "यूथ मांगे रोज़गार. "

    रोजगार का अभाव प्रवासन के सबसे बड़े संचालकों में से एक है. बिहार में बेरोजगारी की दर पिछले साल 10.3% थी. जो देश में सबसे ज्यादा दर वाले राज्यों में एक थी. CMIE के अनुसार, राज्य की बेरोजगारी दर में 31.2% की वृद्धि और हुई, जिससे यह अप्रैल 2020 में बढ़कर 46.6% हो गई. जो राष्ट्रीय औसत से लगभग दोगुना है.

    इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंसेज ने फरवरी 2020 के एक अध्ययन के अनुसार बताया था, बिहार के आधे से अधिक घर भारत और विदेशों में अधिक विकसित स्थानों की ओर प्रवास करते हैं. सर्वेक्षण, जिसमें 36 गांवों और 2,270 घरों को शामिल किया गया था, ने बताया कि भूमिहीन परिवारों में प्रवासन सबसे अधिक है. रिपोर्ट में आगे यह भी पाया गया कि 80% प्रवासी भूमिहीन हैं या उनके पास एक एकड़ से भी कम जमीन है.

    64वें मे में कहा गया है कि बिहार के कुल प्रवासियों में से 30.7% रोजगार की तलाश में बाहर चले गए क्योंकि उन्हें यहां काम नहीं मिला.

    वह कहते हैं, "बिहार में पिछले 15 वर्षों में कोई नया उद्योग नहीं देखा गया है. किसी को भी नहीं पता है कि बिहार का उद्योग मंत्री कौन है? वह क्या कर रहा है? बैठ के मटर छील रहे हैं? हम आपको गूगल करके जानें? क्यों जानें?"

    रंजय ने अगला चुनाव लड़ने का फैसला किया है. उन्होंने कहा, "हम बहुत जल्द एक पार्टी शुरू करेंगे."

    बिहार न केवल आर्थिक मापदंडों पर पिछड़ रहा है, राज्य नेतृत्व संकट में भी घिर रहा है. राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले में दोषी करार दिए जाने के बाद जेल की सजा काट रहे हैं. उनके पुत्र और विपक्षी नेता तेजस्वी यादव उनके पिता की बनाई गई उसी आभा को बनाए रख पाने में सक्षम नहीं रहे हैं, जबकि उनके भाई और पूर्व स्वास्थ्य मंत्री, तेज प्रताप यादव को उनकी हरकतों की बदौलत जनता गंभीरता से नहीं लेती है.

    दूसरी ओर, सुशासन बाबू के रूप में नीतीश कुमार की छवि को मुजफ्फरपुर शेल्टर होम कांड, एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (चमकी बुखार) के प्रकोप को नियंत्रित करने में उनकी असमर्थता (जिसके चलते 170 से अधिक बच्चों की मृत्यु हो गई) और हाल ही में स्वास्थ्य संकट के मद्देनजर घर लौटने के इच्छुक प्रवासी श्रमिकों के प्रति उनके नजरिए ने गंभीर क्षति पहुंचाई है.

    जिस राज्य में नेतृत्व की समृद्ध परंपरा रही है. जयप्रकाश नारायण का गृह राज्य, जिसने समाजवादी आंदोलन को परिभाषित किया, जिससे हाल फिलहाल तक जेपी के दो उत्तराधिकारियों का वर्चस्व रहा, अब भारत के राजनीतिक मानचित्र पर खुद को अप्रासंगिक पा रहा है. यह बहुत पहले की बात नहीं है कि राजनीतिक विश्लेषक बिहार को लोकसभा चुनावों के लिए किंगमेकर्स में से एक मानते थे लेकिन अब ऐसा नहीं माना जाता.

    इस बड़ा राजनीतिक शून्य, युवा नेताओं की आवश्यकता और राज्य में अवसरों की अनुपस्थिति ने मुज़फ़्फ़रपुर के अंकित कुमार को बिहार छात्र संसद की संकल्पना रचने में मदद की.

    वे कहते हैं, "मैंने इस संगठन का गठन 2015 में छात्रों को सशक्त बनाने और युवा विचारों वाले नेताओं की चिंताओं को सरकार तक पहुंचाने के लिए के लिए किया था. हम आम तौर पर छात्रों के लिए सत्र, चर्चा और बहस आयोजित करते हैं, जहां हम मंत्रियों, उद्योगपतियों और अन्य नेताओं को एक पूर्व-निर्धारित विषय के साथ आमंत्रित करते हैं. जो आम तौर पर बिहार के युवाओं की मांगों पर जोर देने वाला होता है."

    बिहार छात्र संसाद राज्य के 17 जिलों में फैला हुआ है. कुमार ने अब तक इस तरह के तीन सत्र आयोजित किए हैं.

    वह कहते हैं, "मुझे लगता है कि राज्य में रचनात्मक राजनीति की बहुत अधिक आवश्यकता है और छात्रों को इसके बारे में संवेदनशील होना चाहिए. व्यक्तिगत रूप से कहूं तो मुझे इन सबके बारे में नहीं बताया गया था और जब मैं बड़ा हो रहा था तो सामाजिक रूप से जागरूक नहीं था. इसलिए, मुझे लगता है कि प्रत्येक छात्र को यह समझना होगा कि लोकतंत्र में भाग कैसे लेना है. हालांकि मतदान करना अपने आप में एक प्रक्रिया है, हर किसी को इसकी जटिलताओं को जानना होगा और यह समझना होगा कि देश की राजनीति में कैसे भाग लेना है. बदलाव लाने के लिए उसमें आना पड़ेगा."

    इस तरह के सत्रों के लिए विभिन्न जिलों के छात्र ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम के माध्यम से हमसे संपर्क करते हैं. वह कहते हैं, "हम उनमें से एक जिला समन्वयक का चुनाव करते हैं और छात्र संसद सत्र के साथ युवा संसद का संचालन करते हैं."

    कुमार ने पुणे में अपनी इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने के दौरान अखिल भारतीय छात्र संसद में भाग लिया. वह कहते हैं, "मैं इस विचार से बहुत प्रभावित था और मुझे लगा कि इसमें से कुछ चीजों को अपने राज्य में भी लागू करने की आवश्यकता है. मुझे लगा कि जब मैं बिहार में था, तो मुझे ऐसे अवसर नहीं मिलते थे. लगभग हर बड़े शहर, उदाहरण के लिए दिल्ली. पांच सितारा होटलों के अंदर इस तरह के सेमिनार और चर्चाएं होती हैं, लेकिन हमारे शहर में ऐसा कुछ नहीं होता."

    2016 में पुणे से इंजीनियरिंग में डिग्री प्राप्त करने के बाद, वह संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा की तैयारी के लिए दिल्ली चले गए. बिहार के लिए यह एक अनिवार्य नियम है, शायद प्रवास के लिए दूसरा विकल्प यही है.

    वह कहते हैं, "लगभग हर बिहारी में किसी न किसी तरह का राजनैतिक जीन होता है. लेकिन राजनीति का मतलब चाय की टपरी पर बैठ के बकर बकर करना नहीं है. नीति निर्धारण राजनीति का मुख्य उद्देश्य है. इसलिए, मैं अधिक से अधिक लोगों को एक मंच प्रदान करना चाहता हूं. अधिक शिक्षित लोग जिम्मेदारी लें और राजनीति में शामिल हों ताकि बेहतर नीतियां बन सकें और मुझसे अलग अधिकतर छात्रों को बेहतर अवसरों की तलाश में अपने घर छोड़ने की जरूरत न पड़े."

    कुमार जिस संस्करण को चित्रित करने का प्रयास कर रहे हैं, वह नए बिहार का है. जो अपने इतिहास पर गर्व करता है, जो अपने वर्तमान के बारे में चिंतित है और अपने भविष्य के लिए आकांक्षाएं रखता है. यह शिक्षा के महत्व को समझता है और यह जानता है कि नवीनतम साधनों का उपयोग कैसे किया जाता है. और जानता है कि हवा-हवाई वादों में अनियमितताओं को कैसे पकड़ा जाता है. वे अब और अधिक संतोष नहीं कर सकते और इंतजार करने के लिए तैयार नहीं हैं.

    वह कहते हैं, "एक बच्चे के रूप में, जब भी मैं मुजफ्फरपुर में अपने गांव वापस जाता था, तो मेरा तीन किलोमीटर लंबी सड़क से सामना होता था, जो मेरे गांव को शहर से जोड़ती थी. यह पूरी तरह से टूटी हुई थी. इसकी मरम्मत नीतीश सरकार के सत्ता में आने के बाद ही हुई. हालांकि, अब प्यास बढ़ चुकी है. हम इस तथ्य पर जोर नहीं दे सकते हैं कि हमें सड़कें और बिजली दी जाएं. हम लोगों को सिर्फ वादों के आधार पर वोट नहीं देना सिखा रहे हैं. उन्हें राजनेताओं से सवाल करना होगा कि पिछले 5 सालों में उन्होंने क्या किया."

    भावी विकास पर बड़ी-बड़ी घोषणाएं करते हुए भी, राजनेता कभी भी एक चेतावनी जोड़ना नहीं भूलते: जाति. "जात के साथ विकास" लंबे समय से इस्तेमाल किया जाने वाला नारा रहा है. राज्य में सभी के गले में जाति एक रोड़े की तरह लटकती है.

    राजनीतिक दल जाति-आधारित मतदान पैटर्न से पूरी तरह अवगत हैं, जो बताता है कि चुनाव क्षेत्र में प्रमुख जाति के आधार पर उम्मीदवारों को क्यों मैदान में उतारा जाता है. राजनीतिक पंडित यह भी मानते हैं कि राज्य की जाति मैट्रिक्स में बेहतर सामाजिक इंजीनियरिंग वाले दलों के विजयी होने की अधिक संभावना है.

    कुमार कहते हैं, "हम नीतियों के लिए वोट नहीं देते हैं. मतदाता यहां कहते हैं कि 'जान-पहचान का होना चाहिए', जिसका अर्थ है कि वह एक ही जाति का होना चाहिए."

    बिहार के युवा जाति से संबंधित नीति-स्तरीय परिवर्तनों के करीबी दर्शक रहे हैं. इस कनेक्शन को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि मंडल रिपोर्ट को बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल ने तैयार किया था. 1990 में लागू हुए मंडल कमीशन के बाद पैदा हुए लोग राज्य में बहुमत में हैं.

    बिहार के सहरसा के निवासी बिभु नंदन सिंह, बिहारी नंबर 1 नाम के एक YouTube चैनल के मालिक, जिसके पास करीब 4 लाख सब्सक्राइबर हैं, वे 2017 में अपने एक वीडियो के लिए जाति-आधारित घृणा के शिकार बने थे.

    वह बताते हैं, "मैंने 1990 के दशक में बिहार कैसा था इस पर एक वीडियो बनाया था. मैं उस दौरान बड़ा हुआ था और जो मैंने देखा था उसे दिखाना चाहता था. मैंने किसी भी राजनेता का नाम नहीं लिया था और न ही मैंने अपने वीडियो में किसी जाति समूह का उल्लेख किया था. हालांकि, बाद में अपलोड करते हुए, बहुत सारे लोगों ने मुझ पर यह कहते हुए हमला करना शुरू कर दिया कि मैं जातिवादी हूं और मैं समाज को विभाजित करने की कोशिश कर रहा हूं. मैं एक विज्ञान का छात्र था. हमको पता ही नहीं था कि मनुवाद क्या होता है. लालू प्रसाद यादव के अनुयायी मुझ पर ऑनलाइन हमला करते रहे."

    सिंह का कहना है कि उनका कोई राजनीतिक झुकाव नहीं है लेकिन अक्सर उनके वीडियो की विभिन्न जाति समूह खिंचाई करते हैं.

    वह कहते हैं, "जब भी मैं नीतीश कुमार के खिलाफ वीडियो बनाता हूं तो लोग सोचते हैं कि हम कुर्मी विरोधी हैं. जब भी मैं लालू प्रसाद यादव के खिलाफ वीडियो बनाता हूं तो लोग सोचते हैं हम यादव विरोधी हैं. जब भी मैं ऊंची जाति के नेताओं के खिलाफ वीडियो बनाता हूं तो मुझे ब्राह्मण विरोधी कहा जाता है. मैं एक कलाकार हूं और यह मेरी जिम्मेदारी है कि विचारधाराओं और राजनीतिक दलों के इतर इस राज्य की चिंताओं को प्रकाश में लाया जाए."

    सिंह भी एक अनिच्छुक प्रवास की वैसी ही कहानी साझा करते हैं. वह कहते हैं, "बचपन से ही मुझे बताया गया था कि अगर मैंने अच्छी पढ़ाई नहीं की तो मुझे सहरसा में ही रहना पड़ेगा. इसने मुझे विश्वास दिलाया कि यहां रह जाना बहुत खराब बात है. मैंने अपने दोस्तों को कॉलेज और नौकरी में देखा और सोचा कि क्यों वे अपने माता-पिता के साथ रह सकते हैं और मैं नहीं." इस अच्छे यूट्यूबर ने 15 साल की उम्र में घर छोड़ दिया था और अब तक वापस नहीं लौट सका है.

    सिंह अक्सर अपने राज्य की पहचान का मजाक उड़ाने की कोशिश कर रहे लोगों से खुद को बहस करता पाते हैं. वह कहते हैं, "मेरा अपने घरेलू लहजे में कुछ शब्दों का उच्चारण करने के लिए भी मजाक उड़ाया जाता है. हम कपरा और सरक ही बोलते हैं, कपड़ा और सड़क नहीं. मेरे दोस्त मेरे 'श' और 'स' का उच्चारण में सुधार करवाते थे. मैं उनसे अन्य राज्यों के लोगों के साथ अच्छी तरह से मेल-जोल करने के लिए पूछा करता था. क्या मुझे बात करने और शब्दों का उच्चारण वैसे ही करने की ज़रूरत है, जैसे वे करते हैं.? मेरी मम्मी तो ऐसे ही बात करती है.

    अपनी राय बताने के लिए उन्होंने बिहार से जुड़े विषयों पर बात करने के लिए खुद जिम्मा लिया और अपने YouTube चैनल के माध्यम से एक तस्वीर पेश की जो वास्तविक है और पूर्व-निर्धारित धारणाओं से दूर है. वह कहते हैं, "इस विचार को भी दोस्तों ने शुरू में हतोत्साहित किया था."

    वह कहते हैं, “बिहार के बारे में एक साधारण गूगल सर्च आम तौर पर 'कमारिया लॉलीपॉप' और 'लगाएदी चोलिया के हुक' जैसे आइटम सॉन्ग्स तक ले जाता है. मेरे बस दो तीन उद्देश्य हैं. एक, मैं लोगों से बात करना चाहता हूं और उन्हें दिखाना चाहता हूं कि वास्तविक बिहार क्या है, और दूसरी बात, अगर मैं किसी मित्र से बिहार के बारे में खोज करने के लिए कहता हूं, तो मैं चाहता हूं कि उसे अच्छी सामग्री दिखे.''

    सिंह ने बिहार के युवाओं को आगे आने और विशेष रूप से राज्य की बागडोर संभालने की आवश्यकता पर जोर दिया, जिस राज्य में 27 वर्ष से कम आयु के 58% लोग हैं.

    एक और युवा बिहारी जो अपने नयेपन के चलते कई लोगों की आंखों में चढ़ी, वह है पुष्पम प्रिया चौधरी. उन्होंने एक राजनीतिक पार्टी बनाने के सम्मेलन को टाल दिया और खुले दरवाजों के दृष्टिकोण के लिए खोला. मार्च 2020 में, राज्य में कई हिंदी और अंग्रेजी अखबारों में प्रकाशित दो-पृष्ठ के एक विज्ञापन में उसे एक पुस्तकालय के सामने खड़े दिखाया गया, जिसमें एक काले रंग की पृष्ठभूमि थी, जहां उसने खुद को 'प्लूरल्स' नामक एक नव-निर्मित राजनीतिक दल का अध्यक्ष बताया था, और खुद को बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था. विज्ञापन के फ़ुटनोट में लिखा गया था, "बिहार बेहतर के योग्य है, और बेहतर होना संभव है". जद (यू) के एक नेता की पुत्री, पुष्पा काफी हद तक संपर्क से बाहर रहती हैं, उनका राजनीतिक समर्थन पूर्व नौकरशाह है.

    इस बीच, आलोक पांडेय का नई दिल्ली के इंजीनियरिंग कॉलेज में "चावल" कहकर मजाक उड़ाया गया, जहां से उन्होंने 2015 में स्नातक किया. वह कहते हैं, "छात्रों ने लड़कियों, शिक्षकों और लगभग सभी लोगों के सामने मेरा मजाक उड़ाया, केवल इसलिए कि मैं बिहार से था. वे मुझे अपने समूहों में शामिल नहीं करना चाहते थे. मुझे नीची नजरों से देखा जाता था."

    पांडेय अब एक टिकटॉक पेज चलाते हैं, जिस पर दो लाख फॉलोवर्स हैं. वे बिहार पर वीडियो बनाते हैं, वे उन मुद्दों पर बात करते हैं, जिन्हें मुख्यधारा की राजनीतिक बहसों में जगह नहीं मिलती है.

    पांडेय बिहार के गोपालगंज जिले से आते हैं. वह कहते हैं, स्कूल पूरा करने के बाद मैंने आगे की पढ़ाई के लिए चला गया और कब मैं गांव के बाबू से एक बिहारी बन गया. शुरु में तो मुझे पता भी नहीं चलता था कि मेरे खिलाफ भेदभाव क्यों किया जाता है. मैं मात्र 15 साल का था.

    कॉलेज खत्म होने के साथ यह उपहास नहीं रुका. यह गुजरात में पांडेय के कार्यस्थल पर जारी रहा, जहां वे अपनी डिग्री पाने के तुरंत बाद चले गये थे. वह कहते हैं, "मैं बहुत कम उम्र में एक वरिष्ठ बन गया था लेकिन लोगों ने मेरी बात मानने से इनकार कर दिया. वे केवल मेरे आदेशों की अनदेखी करते थे या मजाक उड़ाते थे क्योंकि मैं एक निश्चित राज्य से था. यह मुझे मानसिक रूप से परेशान करता था."

    यह तभी हुआ जब पांडेय ने फेसबुक और टिकटॉक पर बोलने का फैसला किया. उन्होंने बिहार से संबंधित विषयों पर छोटे वीडियो अपलोड करना शुरू किया. शुरुआती कुछ महीनों के दौरान, पांडेय ने टिकटॉक पर भी बिहारियों को ऑब्जेक्टिफाई किया गया देखा . ऐसे वीडियो थे जिनमें लोगों ने उनके उच्चारण का मजाक उड़ाया था और बिहार को अपने मजाक का पात्र बनाने के तरीके ढूंढे थे.

    पांडेय कहते हैं, "मुझे इतने लंबे समय तक बाहर रहने से समझ में आया कि लोग अभी भी सोचते हैं कि बिहार में लोग बीड़ी पीते हैं, बिहार में बहुत ज्यादा गरीबी है, बिहार में सड़क नहीं है. मैंने तय किया है कि यह सब खत्म होना चाहिए और यह तभी संभव है जब राज्य की राजनीति में एक गंभीर बदलाव आया है."

    सिर्फ राज्य की पहचान के चलते बने मजाक ही नहीं, पांडेय के वीडियो अपने व्यक्तिगत प्रवास से उपजे अनुभवों की बात करते हैं. वह कहते हैं, "मैंने अपनी कक्षा 10वीं की परीक्षा पूरी की और आगे की पढ़ाई के लिए घर छोड़ दिया. तब से मैं साल में दस दिन से ज्यादा घर पर नहीं रह पाया."

    यह अनुमान लगाया गया था कि जून 2019 तक भारत में 12 करोड़ मासिक टिकटॉक यूजर थे और इनमें से 10% के करीब बिहार से थे. इतना ही 25 अगस्त, 2019 को राज्य में एक राष्ट्रीय टिकटॉक उत्सव का आयोजन किया गया था.

    वह कहते हैं, “जब मैंने अपलोड करना शुरू किया, तो दुनिया भर के बिहारियों ने मुझसे संपर्क किया और मुझे मेरे काम के लिए बधाई दी. अपनी नौकरी पर रहते हुए भी, काम पर जाते समय मैं इस बारे में सोचता रहता था कि मैं टिकटॉक पर बिहार के संदर्भ में और क्या बोल सकता हूं. हर वीडियो को कम से कम 15 से 20 मिलियन व्यूज मिले."

    यह बड़ा टिकटॉकर अब अपने वीडियो के लिए फेसबुक पर अधिक ध्यान केंद्रित कर रहा है. उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी है और अपने गृहनगर वापस चले गए हैं. वह कहते हैं, “मैं बिहार को बेहतर जगह बनाने के लिए कुछ भी करूंगा. मैं नहीं चाहता कि आने वाली पीढ़ी वह झेले, जो हमने झेला."

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    बिहार में राज्य चुनाव के दृष्टिकोण से भी, YouTube और TikTok जैसे डिजिटल माध्यम प्रचार के अनिवार्य तरीके के रूप में उभरे हैं. भारत के लिए गूगल की राजनीतिक विज्ञापन पारदर्शिता रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में 2019 में एक गैर-चुनावी वर्ष में राजनीतिक विज्ञापनों पर 14 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए गए थे. इसके अतिरिक्त, राज्य ने शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं में सबसे अधिक वृद्धि दर्ज की. 2019 में इसमें 35% की वृद्धि दर्ज की गई. हालांकि उन्हें राज्य में नॉन स्टार्टर्स के तौर पर खारिज करना आसान है, जहां जाति का अंकगणित शक्ति संतुलन को परिभाषित करता है. लेकिन यह काफी हद तक यथास्थितिवादी बिहारी की बढ़ती अधीरता को दिखाता है. (अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद अनिवाश द्विवेदी ने किया है.)

    Tags: Bihar News, Jdu, Job insecurity, Lalu Prasad Yadav, Nitish kumar, RJD

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