Opinion: भारतीय कृषि में संरचनात्मक बदलाव को आगे बढ़ाएंगे नए कृषि कानून

नए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं किसान. (Pic- AP)
क्या नए कृषि कानून अपने उद्देश्य में सफल हो पाएंगे? हमारे पास पूर्वी एशिया के अधिकांश हिस्सों में सफल कृषि परिवर्तनों का उदाहरण है.
- News18Hindi
- Last Updated: December 15, 2020, 12:32 PM IST
मानस चक्रवर्ती
नई दिल्ली. भारतीय कृषि (Indian Agriculture) के साथ समस्या बस यही है कि यह ज्यादातर किसानों के लिए एक गैर-व्यवसाय है. नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO) की रिपोर्ट है कि 2013 में भारत में कृषि परिवारों की आय, व्यय और कर्ज की मैपिंग में पाया गया कि एक हेक्टेयर या उससे कम जमीन वाले किसान खेती से अपनी कुल शुद्ध आय का केवल आधा हिस्सा प्राप्त कर पाए. अपनी आय के लिए इसके अलावा उन्हें मजदूरी, पशुपालन और अन्य गैर-कृषि कार्यों का सहारा लेना पड़ा. फिर भी, खेती से शुद्ध प्राप्तियां सहित सभी स्रोतों से उनकी कुल आय उनके उपभोग व्यय से कम थी.
तो कितने कृषक परिवार के पास एक हेक्टेयर या उससे कम की भूमि रही? अध्ययन में पाया गया कि यह 69.4 फीसदी था. इसका मतलब यह है कि 69.4 फीसदी कृषक परिवार 2013 में अपने खर्चों को पूरा करने के लिए पर्याप्त कमाई नहीं कर पाए. अन्य वे 17.1 कृषक परिवार जिनके पास 1 और 2 हेक्टेयर के बीच जमीन है, उनके पास 2013 में औसत रूप से 891 रुपये मासिक की बचत थी. खराब मानसून और यहां तक कि गंभीर बीमारी भी इन किसानों को लाल निशान पर पहुंचा सकती है.अधिकांश किसान परिवारों के पास न केवल अपनी भूमि में निवेश करने के लिए संसाधनों की कमी होती है, बल्कि उन्हें उसे पूरा करने के लिए कर्ज भी लेना पड़ता है. फिर क्या उपाय है? यह एक बुद्धिमानी थी कि जैसे-जैसे शहरों में उद्योग विकसित होंगे तो वे ग्रामीण क्षेत्रों के श्रमिकों को आकर्षित करेंगे. चूंकि ये लोग अपने पहले स्थान पर बेरोजगार थे. इससे उत्पादकता बढ़ेगी, खेती का आकार बड़ा हो जाएगा और कृषि को आधुनिक अर्थव्यवस्था के बाकी हिस्सों में कृषि व्यवसाय के रूप में एकीकृत किया जाएगा.
लेकिन तथ्य यह है कि भारत सहित कई देशों के लिए अतिरिक्त श्रमिकों को अपनाने में मैन्यूफैक्चरिंग में असफल रहे हैं. इसके बजाय गैर लाभ वाले खेतों को छोड़कर गए किसानों को अनियमित सेक्टर व कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में काम मिला और दुर्भाग्य से उसमें भी कम उत्पादकता हो रही है. आधुनिक उद्योग की प्रकृति को देखते हुए इसकी काफी कम संभावना है कि मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र भारत में सीमांत खेतों में रहने वाली बड़ी आबादी को अपना सकता है.
दरअसल, एशियन डेवलपमेंट बैंक के 'एग्रीकल्चर एंड स्ट्रक्चरल ट्रांसफॉर्मेशन इन डेवलपिंग एशिया: रिव्यू एंड आउटलुक' नामक वर्किंग पेपर ने अनुमान लगाया है कि 2040 तक कृषि के उत्पादन का हिस्सा 5 फीसदी से कम होगा, फिर भी भारत के लिए रोजगार में हिस्सेदारी 33.5 फीसदी होगी. इसलिए नीति बनाने वालों को ऐसे रास्ते तय करने होंगे जो कृषि के भीतर छोटे किसानों के लिए एक रास्ता सुनिश्चित करते हैं, उसी समय खेती से दूर कुछ किसानों के लिए भी रोजगार उत्पन्न करने की कोशिश करते हों.
मोदी सरकार के प्रोडक्शन-लिंक्ड इंसेंटिव (पीएलआई) प्रोग्राम और कुछ वस्तुओं के टैरिफ में वृद्धि का उद्देश्य खेतों से विस्थापित लोगों के लिए रोजगार का सृजन करना है. दूसरी ओर खेती संबंधी सुधारों का उद्देश्य छोटे किसानों को बचाए रखने के लिए परिस्थितियां बनाना है. अगर वे फलते-फूलते नहीं हैं, तो खेतों को बाजारों और कृषि व्यवसाय से जोड़कर गतिशील व आधुनिक कृषि क्षेत्र बनाने की कोशिश की जा रही है. ग्रामीण आधारभूत ढांचा और संसाधन को बढ़ावा देना इसी रणनीति का हिस्सा है.
क्या कृषि में वर्तमान प्रणाली- सब्सिडी, न्यूनतम समर्थन मूल्य और सार्वजनिक खरीद- क्या ये काम कर रहे हैं? न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी केवल कुछ फसलों के लिए हैं और इसके परिणामस्वरूप गेहूं और चावल की भारी मात्रा में आपूर्ति होती है. देश के कुछ ही हिस्सों में लाभ हुआ है और यह इन क्षेत्रों में समृद्ध किसान हैं, जिन्होंने सबसे अधिक लाभ प्राप्त किया है. प्रणाली को ऐसे समय में डिजाइन किया गया था जब देश में भोजन के लिए आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करने का उद्देश्य था, खासकर अनाज क्षेत्र में. लेकिन इसने अपनी उपयोगिता को रेखांकित किया है, यह असमान है, अक्षम है, राजकोषीय संसाधनों पर एक असहनीय बोझ है और इसमें गतिशीलता का अभाव है. यह एक डेड एंड है. अधिक महत्वपूर्ण बात है कि यह स्पष्ट रूप से किसानों की बड़ी आबादी के लिए काम नहीं कर रहा है. दूसरे शब्दों में कहें तो सुधार का कोई विकल्प नहीं है.
क्या नए कृषि कानून अपने उद्देश्य में सफल हो पाएंगे? हमारे पास पूर्वी एशिया के अधिकांश हिस्सों में सफल कृषि परिवर्तनों का उदाहरण है. पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) यानी चीन पर विचार करें तो उस देश से हम अपनी तुलना करना पसंद करते हैं और उसकी नीतियों की हम बराबरी करने का प्रयास करते हैं. ऊपर की ओर बताई गई एडीबी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1990 और 2000 के दशकों में चीन की कृषि अनाज केंद्रित अर्थव्यवस्था से विकसित होकर अधिक मूल्य वाली फसलों, बागवानी, पशुधन और जलीय कृषि उत्पादों की ओर बढ़ी.
बाग-बगीचों ने 5 प्रतिशत खेती वाले क्षेत्र पर कब्जा रि लिया है. इससे बड़े कृषि क्षेत्रों के साथ अन्य देशों में हिस्सेदारी दोगुनी हो जाती है. चीन में 1990 और 2004 के बीच हर 2 साल में कैलिफोर्निया के सब्जी उद्योग के बराबर सब्जी उत्पादन बढ़ा. कृषि अब बहुत अधिक निर्यात की ओर बढ़ने वाली और श्रम-गहन उत्पादों के लिए विशिष्ट है. अगर चीन ऐसा कर सकता है, तो हम भी कर सकते हैं.
संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन (एफएओ) के एक लेख में कहा गया है कि चीन में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग ने लाखों छोटे किसानों की मदद की है, उन्हें सुरक्षा का एक तरीका पेश किया है और उन्हें भूमिहीन मजदूर बनने से रोका है. सबसे आशावादी परिदृश्य में छोटे कृषिधारक भी वैश्विक ग्लोबल एग्रीकल्चरल वैल्यू का हिस्सा बन सकते हैं हालांकि यह एक आसान काम नहीं है. एडीबी की रिपोर्ट बताती है कि चीन के शाडोंग प्रांत में लाइयांग में उत्पादन का आधा हिस्सा तक निर्यात किया जा सकता है. बड़े खरीदार विदेशी स्वामित्व वाले या विदेशी-घरेलू संयुक्त उद्यम के हैं. मुख्य निर्यात वाले स्थान यूरोपीय संघ, जापान, कोरिया और अमेरिका हैं. छोटे खेतों से फसलें सॉर्टिंग, सफाई और पैकिंग (ताजा उत्पादन के मामले में) के लिए प्रोसेसर पर जाती हैं, जो बाद में वॉल-मार्ट और कैरेफोर जैसे सुपरमार्केट आउटलेट में दी जाती हैं.
यह सुनिश्चित करने के लिए यह पूरी तरह से संभव है कि कई उदाहरणों में छोटे किसान बड़े खरीदारों के दयाभाव पर होंगे और इसमें कोई संदेह नहीं है कि वैल्यू चेन का अधिकांश लाभ बड़ी कंपनियों को मिलेगा. बाजार विरोधाभासी भूमिका निभाता है- यह छोटे उत्पादकों के लिए बड़े बाजारों में भाग लेने के लिए एक रास्ता हो सकता है या यह छोटे उत्पादकों के शोषण के लिए बड़ी पूंजी के लिए एक तंत्र हो सकता है. यहां सरकार की इन विरोधाभासों को प्रबंधित करने में भूमिका होती है, शायद छोटे मालिकों को अपनी उपज का समर्थन करने के लिए या खेती की अनिश्चितताओं को कम करने के लिए सुरक्षा जाल प्रदान करना होता है.

आधुनिक और व्यावहारिक कृषि क्षेत्र बनाने के उद्देश्य से कृषि सुधार एक साहसिक कदम है. यह पुराने शासन के तहत लाभान्वित होने वाले समूहों द्वारा मुखर रूप से लड़ने के लिए बाध्य है. सरकार को रास्ते में बने रहना चाहिए. (यह लेखक के निजी विचार हैं.)
नई दिल्ली. भारतीय कृषि (Indian Agriculture) के साथ समस्या बस यही है कि यह ज्यादातर किसानों के लिए एक गैर-व्यवसाय है. नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO) की रिपोर्ट है कि 2013 में भारत में कृषि परिवारों की आय, व्यय और कर्ज की मैपिंग में पाया गया कि एक हेक्टेयर या उससे कम जमीन वाले किसान खेती से अपनी कुल शुद्ध आय का केवल आधा हिस्सा प्राप्त कर पाए. अपनी आय के लिए इसके अलावा उन्हें मजदूरी, पशुपालन और अन्य गैर-कृषि कार्यों का सहारा लेना पड़ा. फिर भी, खेती से शुद्ध प्राप्तियां सहित सभी स्रोतों से उनकी कुल आय उनके उपभोग व्यय से कम थी.
तो कितने कृषक परिवार के पास एक हेक्टेयर या उससे कम की भूमि रही? अध्ययन में पाया गया कि यह 69.4 फीसदी था. इसका मतलब यह है कि 69.4 फीसदी कृषक परिवार 2013 में अपने खर्चों को पूरा करने के लिए पर्याप्त कमाई नहीं कर पाए. अन्य वे 17.1 कृषक परिवार जिनके पास 1 और 2 हेक्टेयर के बीच जमीन है, उनके पास 2013 में औसत रूप से 891 रुपये मासिक की बचत थी. खराब मानसून और यहां तक कि गंभीर बीमारी भी इन किसानों को लाल निशान पर पहुंचा सकती है.अधिकांश किसान परिवारों के पास न केवल अपनी भूमि में निवेश करने के लिए संसाधनों की कमी होती है, बल्कि उन्हें उसे पूरा करने के लिए कर्ज भी लेना पड़ता है. फिर क्या उपाय है? यह एक बुद्धिमानी थी कि जैसे-जैसे शहरों में उद्योग विकसित होंगे तो वे ग्रामीण क्षेत्रों के श्रमिकों को आकर्षित करेंगे. चूंकि ये लोग अपने पहले स्थान पर बेरोजगार थे. इससे उत्पादकता बढ़ेगी, खेती का आकार बड़ा हो जाएगा और कृषि को आधुनिक अर्थव्यवस्था के बाकी हिस्सों में कृषि व्यवसाय के रूप में एकीकृत किया जाएगा.
लेकिन तथ्य यह है कि भारत सहित कई देशों के लिए अतिरिक्त श्रमिकों को अपनाने में मैन्यूफैक्चरिंग में असफल रहे हैं. इसके बजाय गैर लाभ वाले खेतों को छोड़कर गए किसानों को अनियमित सेक्टर व कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में काम मिला और दुर्भाग्य से उसमें भी कम उत्पादकता हो रही है. आधुनिक उद्योग की प्रकृति को देखते हुए इसकी काफी कम संभावना है कि मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र भारत में सीमांत खेतों में रहने वाली बड़ी आबादी को अपना सकता है.
दरअसल, एशियन डेवलपमेंट बैंक के 'एग्रीकल्चर एंड स्ट्रक्चरल ट्रांसफॉर्मेशन इन डेवलपिंग एशिया: रिव्यू एंड आउटलुक' नामक वर्किंग पेपर ने अनुमान लगाया है कि 2040 तक कृषि के उत्पादन का हिस्सा 5 फीसदी से कम होगा, फिर भी भारत के लिए रोजगार में हिस्सेदारी 33.5 फीसदी होगी. इसलिए नीति बनाने वालों को ऐसे रास्ते तय करने होंगे जो कृषि के भीतर छोटे किसानों के लिए एक रास्ता सुनिश्चित करते हैं, उसी समय खेती से दूर कुछ किसानों के लिए भी रोजगार उत्पन्न करने की कोशिश करते हों.
मोदी सरकार के प्रोडक्शन-लिंक्ड इंसेंटिव (पीएलआई) प्रोग्राम और कुछ वस्तुओं के टैरिफ में वृद्धि का उद्देश्य खेतों से विस्थापित लोगों के लिए रोजगार का सृजन करना है. दूसरी ओर खेती संबंधी सुधारों का उद्देश्य छोटे किसानों को बचाए रखने के लिए परिस्थितियां बनाना है. अगर वे फलते-फूलते नहीं हैं, तो खेतों को बाजारों और कृषि व्यवसाय से जोड़कर गतिशील व आधुनिक कृषि क्षेत्र बनाने की कोशिश की जा रही है. ग्रामीण आधारभूत ढांचा और संसाधन को बढ़ावा देना इसी रणनीति का हिस्सा है.
क्या कृषि में वर्तमान प्रणाली- सब्सिडी, न्यूनतम समर्थन मूल्य और सार्वजनिक खरीद- क्या ये काम कर रहे हैं? न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी केवल कुछ फसलों के लिए हैं और इसके परिणामस्वरूप गेहूं और चावल की भारी मात्रा में आपूर्ति होती है. देश के कुछ ही हिस्सों में लाभ हुआ है और यह इन क्षेत्रों में समृद्ध किसान हैं, जिन्होंने सबसे अधिक लाभ प्राप्त किया है. प्रणाली को ऐसे समय में डिजाइन किया गया था जब देश में भोजन के लिए आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करने का उद्देश्य था, खासकर अनाज क्षेत्र में. लेकिन इसने अपनी उपयोगिता को रेखांकित किया है, यह असमान है, अक्षम है, राजकोषीय संसाधनों पर एक असहनीय बोझ है और इसमें गतिशीलता का अभाव है. यह एक डेड एंड है. अधिक महत्वपूर्ण बात है कि यह स्पष्ट रूप से किसानों की बड़ी आबादी के लिए काम नहीं कर रहा है. दूसरे शब्दों में कहें तो सुधार का कोई विकल्प नहीं है.
क्या नए कृषि कानून अपने उद्देश्य में सफल हो पाएंगे? हमारे पास पूर्वी एशिया के अधिकांश हिस्सों में सफल कृषि परिवर्तनों का उदाहरण है. पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) यानी चीन पर विचार करें तो उस देश से हम अपनी तुलना करना पसंद करते हैं और उसकी नीतियों की हम बराबरी करने का प्रयास करते हैं. ऊपर की ओर बताई गई एडीबी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1990 और 2000 के दशकों में चीन की कृषि अनाज केंद्रित अर्थव्यवस्था से विकसित होकर अधिक मूल्य वाली फसलों, बागवानी, पशुधन और जलीय कृषि उत्पादों की ओर बढ़ी.
बाग-बगीचों ने 5 प्रतिशत खेती वाले क्षेत्र पर कब्जा रि लिया है. इससे बड़े कृषि क्षेत्रों के साथ अन्य देशों में हिस्सेदारी दोगुनी हो जाती है. चीन में 1990 और 2004 के बीच हर 2 साल में कैलिफोर्निया के सब्जी उद्योग के बराबर सब्जी उत्पादन बढ़ा. कृषि अब बहुत अधिक निर्यात की ओर बढ़ने वाली और श्रम-गहन उत्पादों के लिए विशिष्ट है. अगर चीन ऐसा कर सकता है, तो हम भी कर सकते हैं.
संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन (एफएओ) के एक लेख में कहा गया है कि चीन में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग ने लाखों छोटे किसानों की मदद की है, उन्हें सुरक्षा का एक तरीका पेश किया है और उन्हें भूमिहीन मजदूर बनने से रोका है. सबसे आशावादी परिदृश्य में छोटे कृषिधारक भी वैश्विक ग्लोबल एग्रीकल्चरल वैल्यू का हिस्सा बन सकते हैं हालांकि यह एक आसान काम नहीं है. एडीबी की रिपोर्ट बताती है कि चीन के शाडोंग प्रांत में लाइयांग में उत्पादन का आधा हिस्सा तक निर्यात किया जा सकता है. बड़े खरीदार विदेशी स्वामित्व वाले या विदेशी-घरेलू संयुक्त उद्यम के हैं. मुख्य निर्यात वाले स्थान यूरोपीय संघ, जापान, कोरिया और अमेरिका हैं. छोटे खेतों से फसलें सॉर्टिंग, सफाई और पैकिंग (ताजा उत्पादन के मामले में) के लिए प्रोसेसर पर जाती हैं, जो बाद में वॉल-मार्ट और कैरेफोर जैसे सुपरमार्केट आउटलेट में दी जाती हैं.
यह सुनिश्चित करने के लिए यह पूरी तरह से संभव है कि कई उदाहरणों में छोटे किसान बड़े खरीदारों के दयाभाव पर होंगे और इसमें कोई संदेह नहीं है कि वैल्यू चेन का अधिकांश लाभ बड़ी कंपनियों को मिलेगा. बाजार विरोधाभासी भूमिका निभाता है- यह छोटे उत्पादकों के लिए बड़े बाजारों में भाग लेने के लिए एक रास्ता हो सकता है या यह छोटे उत्पादकों के शोषण के लिए बड़ी पूंजी के लिए एक तंत्र हो सकता है. यहां सरकार की इन विरोधाभासों को प्रबंधित करने में भूमिका होती है, शायद छोटे मालिकों को अपनी उपज का समर्थन करने के लिए या खेती की अनिश्चितताओं को कम करने के लिए सुरक्षा जाल प्रदान करना होता है.
आधुनिक और व्यावहारिक कृषि क्षेत्र बनाने के उद्देश्य से कृषि सुधार एक साहसिक कदम है. यह पुराने शासन के तहत लाभान्वित होने वाले समूहों द्वारा मुखर रूप से लड़ने के लिए बाध्य है. सरकार को रास्ते में बने रहना चाहिए. (यह लेखक के निजी विचार हैं.)