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OPINION: 1993 की चिंगारी से कब तक बचा रहेगा मायावती-अखिलेश का गठबंधन?

मायावती के साथ अखिलेश यादव (PTI)

मायावती के साथ अखिलेश यादव (PTI)

एसपी-बीएसपी दोनों को कहीं न कहीं इस बात का अहसास है कि ये गठबंधन खुद को मजबूत करने के लिए नहीं, बल्कि राजनीति में अपना ...अधिक पढ़ें

    (विरेंद्रनाथ भट्ट)

    आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक पार्टियां जोड़-तोड़ करने में लगी हैं. चुनाव के मद्देनज़र उत्तर प्रदेश की राजनीति में तेजी से बदलाव हो रहे हैं. चुनावी रण जीतने के लिए वो दल भी एक साथ आ गया, जिनके बीच विचारों की बड़ी खाई थी. राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने इस खाई को भी पाट दिया. बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) सुप्रीमो मायावती और समाजवादी पार्टी (एसपी) अध्यक्ष अखिलेश यादव ने हाल ही में गठबंधन का ऐलान कर दिया. उत्तर प्रदेश की दो बड़ी क्षेत्रीय पार्टियां आगामी चुनाव में साथ मिलकर बीजेपी को चुनौती देते हुए नज़र आएंगी.

    मायावती ने गठबंधन का ऐलान करते हुए कहा कि यह मोदी-शाह की नींद उड़ाने वाली प्रेस कॉन्फ्रेंस है, हालांकि प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान मायावती की बातों से यह भी जाहिर हुआ कि गठबंधन का फैसला लेना उनके लिए कितना मुश्किल निर्णय था.

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    इतिहास पर गौर करें, तो ये बात सही साबित होती है. बेशक मायावती के लिए समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करना इतना आसान नहीं रहा होगा. बीएसपी का ये तीसरा प्री-पोल अलायंस है.


    पहली बार बीएसपी ने 1993 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर यूपी में सरकार बनाई थी. फिर साल 1996 में यूपी चुनाव में बीएसपी ने कांग्रेस का 'हाथ' थामा. अब साल 2019 में बीएसपी-एसपी ने पहली बार लोकसभा चुनाव को लेकर गठबंधन किया है.

    एसपी-बीएसपी दोनों को कहीं न कहीं इस बात का अहसास है कि ये गठबंधन खुद को मजबूत करने के लिए नहीं, बल्कि राजनीति में अपना अस्तित्व बचाने की मजबूरी है और जरूरत भी.

    गठबंधन के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुए मायावती ने कहा था कि राष्ट्रीय हित में उन्होंने पुरानी बातों को भुला दिया है. यहां तक कि जून 1995 में हुए 'गेस्ट हाउस कांड' को भी पीछे छोड़ आई हैं, जो उनकी जिंदगी का सबसे डरावना पल रहा है. वहीं, अखिलेश यादव ने भी मायावती को भरोसा दिलाते हुए कहा कि गठबंधन के बाद 'बुआ' (मायावती) के सम्मान में किसी भी तरह की चूक खुद अखिलेश का अपमान माना जाएगा.

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    भले ही दोनों पार्टियां के साथ राजनीतिक हित में एक-दूसरे का हाथ थामने की मजबूरी रही हो. भले ही मायावती और अखिलेश गठबंधन की सफलता की गारंटी दे रहे हों. लेकिन, स्वाभाविक रूप से ये सवाल उठता है कि धरातल पर उनके दावे और वादे कितने सही हो पाते हैं. क्योंकि 25 साल से अलग-अलग एक दूसरे के खिलाफ लड़ रही पार्टी के कैडर को समझाना और साथ लेना इतना आसान न होगा. देखने वाली बात है कि दोनों पार्टियां समेकित दलित और ओबीसी वोट बैंक के साथ कैसे डील करती है?

    एक अहम सवाल ये है कि 1993 के 'गेस्ट हाउस कांड' की आंच से बीएसपी-एसपी अपने गठबंधन को कब तक और किस तरह बचाए रखती है? हालांकि, अब तक तो दोनों पार्टियां यह कहती आई है कि 'गेस्ट हाउस कांड' से उनके गठबंधन पर कोई असर नहीं होने वाला. अगर वाकई ऐसा है तो बीजेपी के लिए चिंता की बात है.

    दरअसल, साल 1993 में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी ने एक साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. दिसंबर 1993 में गठबंधन की सरकार बनी थी, लेकिन इसके बाद जून 1995 में मायावती ने गठबंधन से समर्थन वापस ले लिया.
    बीएसपी के समर्थन वापस लेते ही मुलायम सिंह यादव की पार्टी कम मतों की स्थिति में आ गई और मायावती ने सत्ता में आने के लिए बीजेपी का दामन थाम लिया. इसके बाद उन्मादी लोगों एक गेस्ट हाउस पर हमला कर दिया था, जिसमें मायावती ठहरी हुई थीं.


    मीडिया रिपोर्ट्स आई थीं कि एसपी के समर्थन वाली भीड़ मायावती को समर्थन वापस लेने के लिए सबक सिखाना चाहती थी. इस कांड को लेकर मायावती कहती रही हैं कि उस दिन जान लेने के इरादे से उन पर हमला किया गया था और वह किसी तरह वहां से बच निकली थीं.

    इस घटना के बाद से एसपी और बीएसपी में कड़वाहट बहुत ज्यादा बढ़ गई थी. शायद तब किसी ने सोचा नहीं होगा कि दोनों पार्टियां भविष्य में दोबारा गठबंधन करेंगी. लेकिन, राजनीति में कुछ भी हो सकता है.

     
    बीजेपी के लिए चुनौतियां
    चुनाव के मद्देनज़र इस बार यूपी में हालात काफी बदल गए हैं. बीजेपी अच्छे से समझ रही है कि यूपी में इस बार उसे वोटों के ध्रुवीकरण और वोट विभाजन का वैसा राजनीति फायदा नहीं मिलने वाला, जैसा कि 2014 में हासिल हुआ था. बीएसपी-एसपी के गठबंधन ने बीजेपी के सामने नए सिरे से गुणा-गणित करने की जरूरत ला दी है. बीजेपी के लिए गैर-जाटव वोटर्स को अपने साथ बनाकर रखना सबसे बड़ी चुनौती होगी, जिन्होंने साल 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के यूपी चुनाव में बीजेपी को वोट दिया था. अब नया गठबंधन बनने पर ये वोट बैंक बीएसपी की ओर लौट सकते हैं.

    इसके अलावा बीजेपी को एसपी-बीएसपी के बीच अपने सोशल-पॉलिटिकल लाइन-लेंथ को भी सही करने की जरूरत है. बीजेपी के एक नेता का कहना है, 'मायावती ने कई मौकों पर 'गेस्ट हाउस कांड' का जिक्र किया था, लेकिन एसपी के साथ गठबंधन का ऐलान करते हुए उन्होंने कहा कि इस कांड को वह पीछे छोड़ आई हैं. अगर ऐसा है तो हमारे लिए ये दुर्भाग्यपूर्ण है.'

    बीजेपी के महासचिव विजय बहादुर पाठक बताते हैं, '73+ सीटें हमारा टारगेट है. इसे पाने के लिए बहुत सारी चुनौतियों का सामना करना होगा. बीजेपी ने केंद्र में और राज्य सरकार में जो काम किए हैं, हम उनके आधार पर जनता के बीच जाएंगे. 2017 के चुनाव में यूपी की जनता ने दो लड़कों अखिलेश यादव और राहुल गांधी का गठबंधन देखा है. दोनों ने गठबंधन को लोकसभा चुनाव तक बरकरार रखने का वादा किया था. लेकिन, हुआ क्या ये सब जानते हैं. बीएसपी के साथ एसपी ने गठबंधन कर इतिहास दोहराया है.बीएसपी-एसपी दोनों कह रही है कि उनका गठबंधन लंबा चलेगा और दोनों मिलकर 2022 का यूपी चुनाव लड़ेंगे.'

    पाठक आगे कहते हैं, 'यूपी की जनता ने इसके पहले दो बार बीएसपी-एसपी का गठबंधन देखा है. जनता सब समझती है. वह बीएसपी-एसपी के नए गठबंधन को नकार देगी.'

    बहरहाल, पार्टी के नेता जो भी कहे, लेकिन सच तो ये है कि बीजेपी यूपी में हुए नए गठबंधन से चिंतित जरूर है. शायद यही वजह है कि नई दिल्ली के रामलीला मैदान में हुए बीजेपी राष्ट्रीय परिषद की बैठक में पार्टी के टॉप नेताओं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह और नितिन गडकरी ने बीएसपी-एसपी गठबंधन का जिक्र किया. कैडर को बार-बार भरोसा दिलाने की कोशिश गई कि डरने की जरूरत नहीं है. हमें अंत तक लड़ना है और उम्मीद नहीं छोड़नी है.

    (लेखक सीनियर जर्नलिस्ट हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

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    Tags: Akhilesh yadav, BSP, Mayawati, Samajwadi party, Uttar Pradesh Politics

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