Opinion: गुजरात निकाय चुनाव से हमारे राजनीतिक वर्ग के लिए अहम सबक

निकाय चुनाव में मिली जीत से बीजेपी कार्यकर्ता बेहद खुश हैं. (Pic- PTI)
Gujarat Local Body Elections: इस जनादेश के माध्यम से गुजरात के लोगों ने कई तरह के संदेश दिए हैं. पहला और सबसे अहम संदेश है कि गुजरात नरेंद्र मोदी के साथ एक बड़ी चट्टान की तरह खड़ा है.
- News18Hindi
- Last Updated: March 3, 2021, 1:42 PM IST
जपन के पाठक
गुजरात के लोगों की ओर से पिछली बार कांग्रेस के लिए 1985 और 2015 में किए गए मतदान पर गौर करें तो यह पार्टी के लिए कई सकारात्मक रुख वाला रहा था. कुछ साल पहले 2014 में नरेंद्र मोदी केंद्र में आ गए और राज्य की राजनीति में एक बड़ा खालीपन छोड़ गए. जुलाई-अगस्त 2015 में पाटीदार आंदोलन ने बीजेपी और उसके इस सबसे मजबूत समर्थन के बीच एक दूरी खड़ी कर दी. इस संदर्भ में कांग्रेस ने ग्रामीण गुजरात पर पकड़ बना ली ओर बीजेपी के मार्जिन को शहरी गुजरात में भी कम कर दिया.
राजकोट में, जहां बीजेपी ने 1980 के दशक में पहली बार जीत दर्ज की थी, वहां बीजेपी और कांग्रेस के बीच प्रतिस्पर्धा देखने को मिली थी. तालुका पंचायत चुनाव में कांग्रेस ने 134 सीटें जीती थीं. जबकि बीजेपी को 67 पर ही संतोष करना पड़ा था. जिला पंचायत की बात करें तो कांग्रेस का परचम 24 से अधिक जिला मुख्यालयों पर लहराया था. जबकि बीजेपी को सिर्फ 6 जिला मुख्यालयों पर जीत मिली थी.
इसके बाद 2017 का गुजरात विधानसभा चुनाव आया. इसमें कांग्रेस ने ग्रामीण इलाकों से अधिक सीटें जीतते हुए कुल 77 सीटें जीतीं. पार्टी को 2015 के स्थानीय चुनाव का फायदा 2017 के विधानसभा चुनाव में बढ़ा हुआ दिखा. लेकिन अब गुजरात में 2021 के निकाय चुनाव के बाद ग्रामीण और शहरी गुजरात में कांग्रेस की लंबे समय तक वापसी की उम्मीद टूटती दिख रही है.शहरी गुजरात के चुनाव नतीजे मोटे तौर पर अपेक्षानुसार थे. लेकिन इनका अंतर बीजेपी की सोच से कहीं अधिक था. बीजेपी का वर्चस्व पूरी तरह राजकोट, अहमदाबाद, भावनगर, वडोदरा और जामनगर में देखने को मिला. वहीं सूरत में बीजेपी ने अपनी हार को पलटकर शानदार फायदा कमाया. बीजेपी ने कांग्रेस की ओर से हड़पी गईं सीटों से भी 10 गुना अधिक जीत दर्ज की.
लेकिन ग्रामीण निकाय चुनाव में कहीं अधिक ध्यान देने की जरूरत है. कांग्रेस सभी जिला पंचायतों में पूरी तरह साफ हो गई. साथ ही तालुका पंचायतों में भी उसका प्रदर्शन कम हुआ है. इस जनादेश के माध्यम से गुजरात के लोगों ने कई तरह के संदेश दिए हैं. पहला और सबसे अहम संदेश है कि गुजरात नरेंद्र मोदी के साथ एक बड़ी चट्टान की तरह खड़ा है. नरेंद्र मोदी के लिए समर्थन लगातार बढ़ रहा है. यहीं नहीं, नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई भी नकारात्मक कैंपेन को भी यह समर्थन मुंहतोड़ जवाब दे रहा है. उदाहरण के तौर पर नरेंद्र मोदी के खिलाफ राहुल गांधी की ओर से लगातार की जाने वाली बयानबाजी. इस तरह की बयानबाजी का गुजरात में कोई असर नहीं होगा.
लेकिन एक और महत्वपूर्ण संदेश जो सामने आता है वह यह है कि गुजरात के लोगों की नजर में कांग्रेस एक पार्टी के रूप में शासन करने में विफल रही है. 2015 और 2017 में मिली जीत ने कांग्रेस को एक वैकल्पिक नेतृत्व के साथ-साथ एक विकास मॉडल तैयार करने के लिए पर्याप्त मौका दिया. जो बीजेपी से उसे अलग कर दिखा सकता था.
बुनियादी स्तर के मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय कांग्रेस ने पीएम मोदी और बीजेपी के खिलाफ नकारात्मक अभियान चलाने को प्राथमिकता दी और निजी हमले किए. जब किसी पार्टी के पास कोई दांव नहीं है, तब यह ठीक है, लेकिन जब उस पार्टी के पास काम करने का अवसर रहा, तब लोगों की ओर से इस तरह की चीजें पसंद नहीं की गईं. कांग्रेस विधायकों की भी अपने क्षेत्रों तक पहुंच नहीं थी. इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि अमरेली जैसे जिलों में जहां 2015 और 2017 में बीजेपी हारी थी, वहां भी उसने फिर से जीत दर्ज की है. अमरेली काफी हद तक ग्रामीण और पाटीदार बहुल जिला है.
गुजरात ने यह दिखाया है कि अभियानों के दौरान राजनीतिक बयानबाजी को बिना अभियानों के समय में जमीनी स्तर के काम से समर्थित होना चाहिए. 2015 का झटका बीजेपी को जगाने के लिए पर्याप्त था और उसने अपनी कार्यशैली को पूरी तरह से ठीक किया. पार्टी के शहरी नेता सड़कों पर अधिक सक्रिय रूप से दिखने लगे. ग्रामीण नेता भी गांव-गांव जाकर पार्टी की ओर से किए गए विकास को बताने लगे.
इसमे एक संदेश यह भी है कि गुजरात कृषि कानूनों को किस तरह से देखता है क्योंकि ग्रामीण गुजरात में विशेष रूप से कई छोटे किसान हैं. भारत के सबसे बड़े किसान नेताओं में से एक सरदार पटेल से प्रेरित होकर गुजरात के किसान खेती में नई तकनीकों को अपनाने के लिए हमेशा प्रगतिशील और इच्छुक रहे हैं. गुजरात कोऑपरेटिव क्षेत्रों को अपनाने वाले पहले राज्यों में से एक था. जब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे तब कच्छ और बनासकांठा जैसे सूखाग्रस्त जिलों ने कृषि क्षेत्र में कई उपलब्धियां हासिल की थीं. यह तत्कालीन सीएम (नरेंद्र मोदी) के प्रयासों का ही नतीजा था कि गुजरात में किसानों ने कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में काफी सफलता हासिल की. इसमें बेहतर बाजार पहुंच और सिंचाई के लिए आसान पहुंच समेत कई अन्य चीजें शामिल हैं. इसीलिए गुजरात में कृषि कानून विरोधी आंदोलन नहीं काम कर सका.
मुझे ऐसा लगता है कि हर जीत के पीछे मोदी लहर को वजह बताने वाले समर्थक और आलोचक बेहतरीन संगठन निर्माता के रूप में उनके योगदान को नजरअंदाज कर देते हैं. यह उनके कार्यों का ही नतीजा है कि उनके केंद्रीय राजनीति में जाने के सात साल बाद भी गुजरात की राजनीतिक जमीन पर हावी बीजेपी की संगठनात्मक क्षमता को कोई हिला नहीं पाता.

हमने देखा है कि तमिलनाडु में कामराज के बाद कांग्रेस किस तरह सिमटी, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर के बाद किस तरह सिमटी और महाराष्ट्र में विलासराव देशमुख के बाद किस तरह कांग्रेस का पतन हुआ. इसके उलट गुजरात में बीजेपी ने नई ऊंचाइयों को छुआ. यह मोदी की संगठनात्मक प्रतिभा का एक जीवंत प्रमाण है. मैं आपको एक उदाहरण देता हूं - पारंपरिक राजनीतिक ज्ञान का मतलब है कि जातिगत विचारों के आधार पर महत्वपूर्ण नियुक्तियां की जाती हैं. मोदी ने इसे तब बदल दिया जब उन्होंने सीआर पाटिल को राज्य इकाई का प्रमुख बनाया. वह किसी भी प्रमुख जाति से संबंधित नहीं हैं. फिर भी उन्होंने कैडर में जो ऊर्जा डाली है वह बहुत बड़ी है. इसने निश्चित रूप से बड़ी जीत में योगदान दिया है. गुजरात से निकले ये महत्वपूर्ण संदेश हैं, जिनका हमारे राजनीतिक वर्ग को सावधानीपूर्वक अध्ययन करना चाहिए और सीख को अपनाना चाहिए. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)
गुजरात के लोगों की ओर से पिछली बार कांग्रेस के लिए 1985 और 2015 में किए गए मतदान पर गौर करें तो यह पार्टी के लिए कई सकारात्मक रुख वाला रहा था. कुछ साल पहले 2014 में नरेंद्र मोदी केंद्र में आ गए और राज्य की राजनीति में एक बड़ा खालीपन छोड़ गए. जुलाई-अगस्त 2015 में पाटीदार आंदोलन ने बीजेपी और उसके इस सबसे मजबूत समर्थन के बीच एक दूरी खड़ी कर दी. इस संदर्भ में कांग्रेस ने ग्रामीण गुजरात पर पकड़ बना ली ओर बीजेपी के मार्जिन को शहरी गुजरात में भी कम कर दिया.
राजकोट में, जहां बीजेपी ने 1980 के दशक में पहली बार जीत दर्ज की थी, वहां बीजेपी और कांग्रेस के बीच प्रतिस्पर्धा देखने को मिली थी. तालुका पंचायत चुनाव में कांग्रेस ने 134 सीटें जीती थीं. जबकि बीजेपी को 67 पर ही संतोष करना पड़ा था. जिला पंचायत की बात करें तो कांग्रेस का परचम 24 से अधिक जिला मुख्यालयों पर लहराया था. जबकि बीजेपी को सिर्फ 6 जिला मुख्यालयों पर जीत मिली थी.
लेकिन ग्रामीण निकाय चुनाव में कहीं अधिक ध्यान देने की जरूरत है. कांग्रेस सभी जिला पंचायतों में पूरी तरह साफ हो गई. साथ ही तालुका पंचायतों में भी उसका प्रदर्शन कम हुआ है. इस जनादेश के माध्यम से गुजरात के लोगों ने कई तरह के संदेश दिए हैं. पहला और सबसे अहम संदेश है कि गुजरात नरेंद्र मोदी के साथ एक बड़ी चट्टान की तरह खड़ा है. नरेंद्र मोदी के लिए समर्थन लगातार बढ़ रहा है. यहीं नहीं, नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई भी नकारात्मक कैंपेन को भी यह समर्थन मुंहतोड़ जवाब दे रहा है. उदाहरण के तौर पर नरेंद्र मोदी के खिलाफ राहुल गांधी की ओर से लगातार की जाने वाली बयानबाजी. इस तरह की बयानबाजी का गुजरात में कोई असर नहीं होगा.
लेकिन एक और महत्वपूर्ण संदेश जो सामने आता है वह यह है कि गुजरात के लोगों की नजर में कांग्रेस एक पार्टी के रूप में शासन करने में विफल रही है. 2015 और 2017 में मिली जीत ने कांग्रेस को एक वैकल्पिक नेतृत्व के साथ-साथ एक विकास मॉडल तैयार करने के लिए पर्याप्त मौका दिया. जो बीजेपी से उसे अलग कर दिखा सकता था.
बुनियादी स्तर के मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय कांग्रेस ने पीएम मोदी और बीजेपी के खिलाफ नकारात्मक अभियान चलाने को प्राथमिकता दी और निजी हमले किए. जब किसी पार्टी के पास कोई दांव नहीं है, तब यह ठीक है, लेकिन जब उस पार्टी के पास काम करने का अवसर रहा, तब लोगों की ओर से इस तरह की चीजें पसंद नहीं की गईं. कांग्रेस विधायकों की भी अपने क्षेत्रों तक पहुंच नहीं थी. इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि अमरेली जैसे जिलों में जहां 2015 और 2017 में बीजेपी हारी थी, वहां भी उसने फिर से जीत दर्ज की है. अमरेली काफी हद तक ग्रामीण और पाटीदार बहुल जिला है.
गुजरात ने यह दिखाया है कि अभियानों के दौरान राजनीतिक बयानबाजी को बिना अभियानों के समय में जमीनी स्तर के काम से समर्थित होना चाहिए. 2015 का झटका बीजेपी को जगाने के लिए पर्याप्त था और उसने अपनी कार्यशैली को पूरी तरह से ठीक किया. पार्टी के शहरी नेता सड़कों पर अधिक सक्रिय रूप से दिखने लगे. ग्रामीण नेता भी गांव-गांव जाकर पार्टी की ओर से किए गए विकास को बताने लगे.
इसमे एक संदेश यह भी है कि गुजरात कृषि कानूनों को किस तरह से देखता है क्योंकि ग्रामीण गुजरात में विशेष रूप से कई छोटे किसान हैं. भारत के सबसे बड़े किसान नेताओं में से एक सरदार पटेल से प्रेरित होकर गुजरात के किसान खेती में नई तकनीकों को अपनाने के लिए हमेशा प्रगतिशील और इच्छुक रहे हैं. गुजरात कोऑपरेटिव क्षेत्रों को अपनाने वाले पहले राज्यों में से एक था. जब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे तब कच्छ और बनासकांठा जैसे सूखाग्रस्त जिलों ने कृषि क्षेत्र में कई उपलब्धियां हासिल की थीं. यह तत्कालीन सीएम (नरेंद्र मोदी) के प्रयासों का ही नतीजा था कि गुजरात में किसानों ने कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में काफी सफलता हासिल की. इसमें बेहतर बाजार पहुंच और सिंचाई के लिए आसान पहुंच समेत कई अन्य चीजें शामिल हैं. इसीलिए गुजरात में कृषि कानून विरोधी आंदोलन नहीं काम कर सका.
मुझे ऐसा लगता है कि हर जीत के पीछे मोदी लहर को वजह बताने वाले समर्थक और आलोचक बेहतरीन संगठन निर्माता के रूप में उनके योगदान को नजरअंदाज कर देते हैं. यह उनके कार्यों का ही नतीजा है कि उनके केंद्रीय राजनीति में जाने के सात साल बाद भी गुजरात की राजनीतिक जमीन पर हावी बीजेपी की संगठनात्मक क्षमता को कोई हिला नहीं पाता.
हमने देखा है कि तमिलनाडु में कामराज के बाद कांग्रेस किस तरह सिमटी, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर के बाद किस तरह सिमटी और महाराष्ट्र में विलासराव देशमुख के बाद किस तरह कांग्रेस का पतन हुआ. इसके उलट गुजरात में बीजेपी ने नई ऊंचाइयों को छुआ. यह मोदी की संगठनात्मक प्रतिभा का एक जीवंत प्रमाण है. मैं आपको एक उदाहरण देता हूं - पारंपरिक राजनीतिक ज्ञान का मतलब है कि जातिगत विचारों के आधार पर महत्वपूर्ण नियुक्तियां की जाती हैं. मोदी ने इसे तब बदल दिया जब उन्होंने सीआर पाटिल को राज्य इकाई का प्रमुख बनाया. वह किसी भी प्रमुख जाति से संबंधित नहीं हैं. फिर भी उन्होंने कैडर में जो ऊर्जा डाली है वह बहुत बड़ी है. इसने निश्चित रूप से बड़ी जीत में योगदान दिया है. गुजरात से निकले ये महत्वपूर्ण संदेश हैं, जिनका हमारे राजनीतिक वर्ग को सावधानीपूर्वक अध्ययन करना चाहिए और सीख को अपनाना चाहिए. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)