यूक्रेन और रूस के बीच युद्ध चल रहा है और इधर भारत में पांच राज्यों की विधानसभाओं के लिए चुनाव शांति से हो रहे हैं. ये दो तरह के घटनाक्रम दुनिया के दो चेहरों की तस्वीर बयां करते हैं. हम भारतवासी सौभाग्यशाली हैं कि लोकतंत्र पर हमारी पूरी असंदिग्ध निष्ठा है. हम शांति के पुजारी हैं. अपने देश में भी और पूरी दुनिया में भी. यही कारण है कि रूस-यूक्रेन मसले पर संयुक्त राष्ट्र में हुई वोटिंग में भारत हिस्सा नहीं ले रहा है.
सिर्फ़ भारत ही नहीं, रूस की निंदा के लिए लाए गए प्रस्ताव पर भारत समेत 35 देश बुधवार (2 मई, 2022) को हुई वोटिंग में तटस्थ रहे यानी न तो समर्थन और न ही विरोध में वोटिंग की. प्रसंगवश यहां एक बात और स्पष्ट कर देनी चाहिए कि भारत भले ही शांति के सबसे बड़े पुजारियों में से एक हो, लेकिन अपनी संप्रभुता पर किसी भी तरह के हमले का उत्तर देने में भी पूरी तरह सक्षम है, सर्व शक्ति संपन्न है.
अकाट्य है भारत की कूटनीति
इस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने कूटनीति के सबसे बड़े मंच संयुक्त राष्ट्र में अपनी अकाट्य रणनैतिक समझ का परिचय फिर से दिया है. भारत कई बार स्पष्ट कर चुका है कि रूस और यूक्रेन को आपसी विवाद बातचीत के माध्यम से निपटाने चाहिए. भारत यह भी ज़ाहिर कर चुका है कि दुनिया में कहीं भी युद्ध होता है, तो उसे बहुत चिंता होती है. भारत वसुधैव कुटुंबकम के सिद्धांत पर चलता है और समूची मानवता के हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है, था और सदैव रहेगा.
35 निर्गुट देश तालमेल बढ़ाएं
संयुक्त राष्ट्र महासभा में रूस के विरोध में निंदा प्रस्ताव के पक्ष में 141 वोट पड़े. यह सही है कि प्रस्ताव नियमानुसार पारित हो गया, लेकिन 35 देशों ने इस प्रस्ताव से दूरी बनाई, तो इसके भी ख़ास कूटनैतिक मायने हैं. भारत मानता है कि दुनिया का शक्ति संतुलन एक-ध्रुवीय न रहे, बल्कि बहु-ध्रुवीय रहे, जिससे किसी एक देश या देशों के गुट का एकतरफ़ा दबदबा क़ायम न रहे. अब भारत को चाहिए कि बदलते वैश्विक परिदृश्य में रूस के विरुद्ध प्रस्ताव से दूर रहने वाले बाक़ी 34 देशों और रूस के समर्थन में वोट डालने वाले पांच देशों के साथ द्विपक्षीय संबंधों को लेकर तालमेल की समीक्षा नए सिरे से की जाए.
पड़ोसियों का रवैया समझना होगा
जहां तक भारत के पड़ोसी देशों का ताल्लुक़ है, तो चीन, पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश ने रूस के विरुद्ध प्रस्ताव पर तटस्थ रवैया ही अपनाया है. अफ़ग़ानिस्तान और नेपाल ने प्रस्ताव के विरोध में वोट दिया यानी रूस का स्पष्ट समर्थन किया. हम जानते हैं कि चीन और पाकिस्तान भारत के हितैषी नहीं हैं. लेकिन श्रीलंका और बांग्लादेश के साथ हमारे संबंध ख़राब नहीं हैं. सोवियत क़ब्ज़े का दंश झेल चुका अफ़ग़ानिस्तान अगर रूस के समर्थन में वोट डालता है, तो भारत इसका मतलब समझता है.
अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद उस पर चीन का हाथ है. नेपाल पर भी चीन का ख़ासा प्रभाव है. ऐसे में चीन भले ही रूस के विरुद्ध प्रस्ताव पर तटस्थ रहा, उसने नेपाल और अफ़ग़ानिस्तान से रूस के समर्थन में वोट डलवाए हो सकते हैं.
वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें, तो चीन और अमेरिका में पारंपरिक रूप से नहीं बनती. यूक्रेन और रूस विवाद में अमेरिका क्योंकि यूक्रेन के साथ है, इसलिए चीन को या तो यूक्रेन के विरोध में या रूस के समर्थन में वोट डालना था या फिर तटस्थ रह कर यह ज़ाहिर करना था कि एशिया के इलाक़ाई शक्ति संतुलन के लिहाज़ से चीन रूस का एकतरफ़ा दबदबा सहन नहीं कर सकता. इसलिए चीन ने रूस के पक्ष में वोट डाल कर उसका स्पष्ट समर्थन नहीं किया.
तटस्थता के अलग-अलग माइने
यही कारण है कि अफ़ग़ानिस्तान और नेपाल ने संयुक्त राष्ट्र में रूस का स्पष्ट समर्थन किया. चीन के तटस्थ रहने और भारत के तटस्थ रहने के अलग-अलग माइने हैं. भारत के संबंध अमेरिका के साथ भी अच्छे हैं और रूस के साथ भी अच्छे है. इसलिए भारत ने वोट नहीं डालने का विकल्प चुना और अपनी निर्गुट विचारधारा की पुष्टि फिर से की. चीन के मामले में ऐसा नहीं है. उसे अमेरिका को अपनी ताक़त का ऐहसास कराना है, साथ ही रूस के साथ भी संतुलन क़ायम करना है.
द्विपक्षीय मसले आपस में सुलझाएं
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत द्विपक्षीय मामलों में अंतर्राष्ट्रीय दख़ल का पक्षधर कतई नहीं है. वर्ष 1972 में पाकिस्तान के साथ शिमला समझौता हो जाने के बाद भारत ने कश्मीर मामले में अंतर्राष्ट्रीय दख़ल को हमेशा हतोत्साहित किया है. भारत का कूटनयिक दबदबा ही है कि एंटोनियो गुटेरस समेत संयुक्त राष्ट्र के तीन महासचिव कश्मीर को संयुक्त राष्ट्र में लंबित मामला नहीं मान चुके हैं.
ऐसे में, यूक्रेन और रूस के बीच यानी दो पक्षों में चल रहे संघर्ष को भारत द्विपक्षीय मसला मानते हुए इसमें किसी भी स्तर पर हस्तक्षेप नहीं करेगा, यह तय है. इसलिए अमेरिका और रूस, दोनों ही भले ही सीधे चाहें, भारत इस मामले में या इस तरह के किसी और मामले में मध्यस्थता के स्पष्ट मंच की पेशकश कभी नहीं करेगा. विवाद शांति से हल करने का सुझाव या फिर विश्व शांति के लिए ट्रैक टू डिप्लोमेसी की बात अलग है.
भारतीयों की सुरक्षित वापसी
यूक्रेन में 20 हज़ार से ज़्यादा भारतीय थे. रूस के साथ तनाव बढ़ने पर भारत ने उचित समय पर अपने नागरिकों को चेताया. यही कारण है कि 02 मार्च, 2022 तक यूक्रेन से 17 हज़ार से ज़्यादा भारतीय नागरिक भारत आ चुके थे. युद्ध शुरू हो जाने के बाद भारत सरकार ऑपरेशन गंगा के ज़रिए 3350 से ज़्यादा भारतीय छात्र-छात्राओं को स्वदेश ला चुका है. अभियान जारी है. मोदी सरकार ने भरोसा दिलाया है कि सभी भारतीय नागरिक जल्द ही यूक्रेन से वापस आ जाएंगे. इसके लिए प्रधानमंत्री लगातार उच्चस्तरीय बैठकें कर रहे हैं. उन्होंने यूक्रेन, रूस और कई यूरोपीय देशों के शीर्ष नेतृत्व से भारतीय छात्र-छात्राओं की सुरक्षित निकासी को लेकर बातचीत की है, जिसके सकारात्मक नतीजे निकले हैं.
ठोस रणनीति पर व्यावहारिक अमल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठोस रणनीति ही नहीं बनाई, बल्कि धरातल पर उसे अमली जामा पहनाने में व्यावहारिक दृष्टिकोण भी अपनाया. यही कारण था कि छात्र-छात्राओं की सुरक्षित निकासी के लिए हर तरह से अनुकल वातावरण बन जाने के बावजूद मोदी ने अपने चार मंत्री, चार देशों में भेजे. मंत्रियों की उपस्थिति में भारतीय दूतावासों और भारतीय छात्र-छात्राओं का मनोबल बढ़ा. साथ ही पोलैंड और हंगरी जैसे देशों पर दबाव भी बढ़ा.
कुल मिला कर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वैश्विक तनाव के दौर में भारत ने अपना कूटनैतिक दायरा बहुत सोच-समझ कर चुना है. विश्व को स्पष्ट संदेश दिया है कि युद्ध कभी समस्याओं के अंतिम और बहुमान्य समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकते. अब यह शेष विश्व को देखना है कि वैश्विक मामलों में वह भारत की कितनी बड़ी भूमिका देखता है और तदनुसार कब हमें संयुक्त राष्ट्र की स्थाई सदस्यता मिलती है.
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