85 साल की मथूकन्नम्मल
रिपोर्ट- अर्चना
पुदुकोट्टई: बहुत कम उम्र से मंदिरों में सेवा करने के लिए नियुक्त की गई लड़कियों को देवदासी या देवरादियार्स कहा जाता है. ये लड़कियां मंदिर में अपनी सेवा देने वालियों के रूप में देवताओं के लिए नृत्य और गायन में पारंगत होती थीं. तमिलनाडु में शुरुआती संगीत परंपरा देवदासियों के नेतृत्व में ही शुरू हुई और इनकी नृत्य शैली को सथिर और दासी अट्टम कहा गया.
पर्व-त्योहारों के अवसर पर, देवदासियां सथिर नृत्य प्रस्तुत कर देवताओं की पूजा कर रहे लोगों का मनोरंजन करती थीं. इस तरह, ‘मथूकन्नम्मल’ भगवान मुरुगन के लिए विरलिमलाई सुब्रमनियस्वामी मंदिर में नृत्य पेश करती थीं. 85 साल की मथूकन्नम्मल इस समय देवदासी व्यवस्था की अंतिम कड़ी के रूप में मौजूद हैं और पुदुकोट्टई के राजा ने जिन 32 देवरादियार्स को मान्यता दी थी उनमें वह एक हैं.
मथूकन्नम्मल तमिलनाडु के पुदुकोट्टई ज़िले के विरामलाई की रहनेवाली हैं और उन्हें पिछले साल पद्म श्री से सम्मानित किया गया जो इस नृत्य में उनके योगदान के लिए है. ‘मेरा पूरा परिवार सथिरत्तम (सथिर नर्तक) है. मैंने तब तक शुरू में सथिर नृत्य को गले नहीं लगाया जब तक कि मैंने इसे अपने पिता रामचन्द्रन नत्तुवनर से नहीं सुना. वह मेरे गुरू भी हैं’, मथूकन्नम्मल ने बताया. उन्होंने आगे बताया, ‘जहां तक विरलिमलाई की बात है, हमारा परिवार अधिकांशत: सथिर नृत्य करता है. मैंने 7 साल की उम्र से सथिर नृत्य करना शुरू किया. उस समय हम कुल 32 लोग थे जो मंदिर की सेवा में नियुक्त थे. मेरे पिता ने सभी 32 लोगों को सथिर नृत्य सिखाया’.
‘हमें सुब्रमनियस्वामी की पूजा करने के लिए हर सुबह और शाम को 400 कदम ऊपर जाना होता और फिर इतना ही नीचे आना होता जिस दौरान हम सथिर नृत्य करते और गाते थे. अंततः, मंदिर में होनेवाले समारोहों में हम सथिर नृत्य प्रस्तुत करने लगे थे. उन दिनों, आज की तरह प्रकाश की व्यवस्था नहीं होती थी. सिर्फ पेट्रोमैक्स होते थे. सथिर, कुम्मी और कोलत्तम नृत्य देखते ही बनता है,’ मथूकन्नम्मल ने बताया. उनके मुताबिक़, उन्हें पुदुकोट्टई के महाराजा रजगोपाला थोंडेमन ने ऐसी हर तरह की सुविधाएं दी थी जिनकी उन्हें ज़रूरत थी. महाराजा रजगोपाला थोंडेमन विरलिमलाई मंदिर के उस समय सर्वेसर्वा थे और समुदाय का आदर भी उन्हें प्राप्त था.
मथूकन्नम्मल ने बताया, ‘जहां तक गायन और नृत्य की बात है, सथिर काफ़ी व्यापक है और इसे देखने और सुनने के लिए काफ़ी संख्या में लोग आते थे. इस समय भरतनाट्यम् ने सथिर का स्थान ले लिया है. आज़ादी मिलने के बाद से हमारा जीवन काफ़ी बदल गया है और कहा गया कि सथिर को अब मंदिरों में प्रतिबंधित कर दिया गया है. इसके बाद, महाराजा का शासन भी समाप्त हो गया’.
‘इसके बाद हमने मंदिर में सथिर कभी प्रस्तुत नहीं किया. हालांकि, कुछ लोग जो इस कला को जानते हैं, मेरे पास आए और मुझे इसे सिखाने को कहा. इस तरह, मैंने अभिनेत्री स्वर्णमाल्या को इसकी शिक्षा दी. फिर, कुछ लोग कर्नाटक से आए और मुझसे यह कला सीखी,’ मथूकन्नम्मल ने सगर्व बताया.
इसके बावजूद कि देवदासियों के शादी करने पर प्रतिबंध था, मथूकन्नम्मल का एक जीवन साथी था जो उनका नृत्य देखने के बाद उनसे प्यार करने लगा. उसके साथ जाने के लिए उन्होंने एक ही शर्त रखी-वह नृत्य करना बंद नहीं करेगी. चूंकि मथूकन्नम्मल अब विरलिमलाई मंदिर में नृत्य नहीं कर सकती थी, आजीविका और अपने बच्चों को पालने के लिए उन्हें चावल कूटने (आटू कल्लू) तक का काम करना पड़ा. पद्म श्री पुरस्कार के अलावा कला के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें कलामशु कला पुरस्कार और दक्षिण चित्र पुरस्कार भी मिल चुका है.
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Tags: Traditional Folk Dance of India
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