चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की नई पारी की घोषणा के साथ ही बिहार की राजनीति अशांत हो गई है. एक्शन से पहले ही रिएक्शन आने लगे है. राजनीतिक दल के नेताओं ने प्रशांत किशोर को बिकाऊ, दलाल और सिद्धांतहीन तक करार दिया. राजनीतिक पंडित इस बेचैनी का कारण रिसर्च पॉलटिक्स बता रहे हैं. उनका कहना है कि बिहार ही नहीं पूरे देश में प्रशांत किशोर की एंट्री से पहले ऐसी व्यवस्था नहीं थी. लेकिन, प्रशांत किशोर ने पॉलटिक्स को रिसर्च से जोड़ा और हारी हुई बाजी को जीत में बदलने का जो कौशल दिखाया. इससे ही बिहार के राजनीतिक दलों में बेचैनी है. बिहार में परंपरागत जातिगत राजनीति करने वाले राजनीतिक दल में यह बेचैनी ज्यादा है.
मैनेजमेंट पॉलिटिक्स
प्रशांत किशोर ने भाजपा, कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और अन्य कई बड़े दलों का चुनाव प्रबंधन देखा है. आंकड़ों के जरिये वे चीजों को समझते हैं और इसी के जरिए कुछ नया करने की क्षमता रखते हैं. अपनी इस क्षमता को उन्होंने बार-बार साबित भी किया है. 2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम और 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव परिणाम ने उनको एक ही झटके में हीरो बना दिया. इससे प्रशांत चुनाव जिताने के एक कुशल मैनेजर के तौर पर हिन्दुस्तान की राजनीति में स्थापित हो गए. उसके बाद से वे राजनीतिक खिलाड़ियों के एक कुशल कोच बन गए. प्रशांत के इस कौशल से बिहार के राजनेता अवगत हैं. इसी कारण वे परेशान हैं. इधर, प्रशांत किशोर को भी यह पता है कि राजनीति में पार्टी की वैचारिक पूंजी, नेतृत्व के प्रति समर्पित कार्यकर्ता और पैसे का बड़ा महत्व होता है. लेकिन राजनीति केवल पैसे के बल पर सफल नहीं हो सकती. इसके लिए जनता के साथ जमीनी तौर पर जुड़ाव सबसे प्रमुख होता है जो फिलहाल नहीं है. प्रशांत किशोर ने बिहार की राजनीति में एंट्री मारने से पहले पुष्पम प्रिया चौधरी के अनुभव को संभवतः अध्ययन किया है. यही कारण है कि वे कुछ नया करने से पहले बिहार में पदयात्रा कर अपने मानक के अनरुप अपनी टीम तैयार करने का प्रयास कर रहे हैं.
जनता के लिए संघर्ष जरूरी
वरीय पत्रकार लव कुमार मिश्रा का कहना है कि राजनीति में सफल होने के लिए किसी भी व्यक्ति या दल को जनता के बीच से होकर गुजरना पड़ता है. सत्ता से उनके सवाल करने होते हैं. अपनी पत्रकारिता अनुभव में मैंने देखा है कि जो सत्ता से सवाल करते हैं, उसे जनता का भरपूर साथ मिलता है. शायद यही कारण था कि अपने पहले प्रेस कांफ्रेस में प्रशांत किशोर ने सरकार से ही सवाल किए और काम काज को लेकर लालू-नीतीश सरकार को कठघरे में खड़ा किया. लेकिन, क्या यह सिलसिला निरंतर जारी रह पाएगा इसपर संशय है. बिहार की राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक गोविंद चौधरी का कहना है कि बिहार राजनीति की प्रयोगशाला है. इसके साथ ही यह बेहद परिपक्व राज्य है. यदि जनता के बीच रहकर उनके मुद्दों के लिए संघर्ष करना शुरू करते हैं तो संभव है कि वे बिहार में अपने लिए कुछ जगह बना लें. इसकी पूर्व में भी बानगी दिखी है.
जातीय वोट बैंक
बिहार की राजनीति का आधार जाति है. यहां की राजनीति में इसका बड़ा महत्व है. राजनीतिक विश्लेषक का मानना है कि बिहार में कोई भी दल बिना किसी जातीय आधार के सफलता की उम्मीद नहीं कर सकता. मुकेश सहनी को भी बिहार में जो कुछ सफलता मिली है इसका बड़ा कारण उनका मल्लाह जाति पर पकड़ है. उन्होंने अपने आपको ‘सन ऑफ मल्लाह’ के रूप में प्रोजेक्ट किया. जेडीयू और भाजपा से उनके गठबंधन ने उनके काम को आसान कर दिया था. लेकिन, प्रशांत किशोर के लिए यह एक बड़ी समस्या उत्पन्न हो सकती है. जातीय गणित को साधने के लिए उनके पास फिलहाल कोई जमीन नहीं है. लेकिन, बीजेपी से नाराज चल रहे भूमिहार-ब्राह्मण मतदाता किसी राजनीतिक नेतृत्व की तलाश कर रहा है. कांग्रेस के कमजोर होने और मंडल-कमंडल की राजनीति गहराने के बाद वह भाजपा के समर्थन में तो चला जरुर गया है, लेकिन वर्तमान सरकार और भाजपा संगठन में अपनी उपेक्षा के कारण वह नाराज है. चूंकि प्रशांत किशोर ब्राह्मण वर्ग से आते हैं, यदि वे बीजेपी से नाराज चल रहे भूमिहा-ब्राह्मण मतदाताओं के बीच अपने को प्रोजेक्ट कर लेते हैं तो यह वर्ग उनके साथ जा सकता है. जिससे उनको बिहार में राजनीति करने के लिए एक जमीन जरुर मिल जाएगी.
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