“मैं पिछले 36 साल से स्कूल से जुड़ी हूं. मैंने एक टीचर से लेकर प्रिंसिपल तक का सफर तय किया. मेरा बेटा भी यहीं से पढ़ा है. मेरी जिंदगी का आधा हिस्सा यहीं गुजरता है. रोज करीब-करीब 10 घंटे स्कूल में ही रहती हूं. सब ठीक चल रहा था कि कोविड आ गया. सरकार की गाइडलाइन के हिसाब से ऑनलाइन क्लास शुरू हुई, लेकिन बच्चे धीरे-धीरे क्लास करना कम करते जा रहे थे. प्रत्येक क्लास में दर्जनों बच्चे ऐसे रहते, जिनकी फीस नहीं जमा हो पा रही थी. उनके पेरेंट्स से बात करने पर उनकी आर्थिक स्थिति के बारे में जानकारी होती. अब हमें तो स्कूल के खर्च देने ही थे. टीचर्स को पेमेंट देने थे. पैसे नहीं आएंगे तो क्या करेंगे. बस यहीं से मैंने क्राउड फंडिंग करने की योजना बनाई.
शुरू में कई कंपनियों को मेल करने लगी. सीएसआर प्रोजेक्ट की कोशिश में लगी. लेकिन, कामयाबी हासिल नहीं हो रही थी. चूंकि मैं केंद्रीय विद्यालय से पढ़ी हूं. तो उसके वॉट्सऐप एल्युमिनाई ग्रुप में मैंने इसे लेकर पोस्ट किया. वहां से बहुत अच्छा रेस्पांस मिला. एक कंपनी ने 5 लाख तो एक कंपनी ने 14 लाख रुपये की मदद की. ये हमारे लिए चमत्कार से कम नहीं था. बच्चों की जो हम मदद करना चाहते थे, उसमें कुछ स्टेप्स आगे बढ़ गए. इसके बाद कुछ ही दिनों में करीब 1 करोड़ रुपये हमारे पास आ गए.”
ये कहना है शिर्ली पिल्लई का. वह महाराष्ट्र के मुंबई के पोवाई इलाके में एक प्राइवेट स्कूल की प्रिंसिपल हैं. न्यूज 18 हिंदी से बात करते हुए वह कहती हैं, “कोविड के दौरान स्टूडेंट के पेरेंट्स की आर्थिक स्थिति खराब हो गई. कुछ के काम छूट गए. कुछ की सैलरी रुक गई. कुछ गांव चले गए. ऐसे में वे फीस देने में असमर्थ रहे. लेकिन, क्राउड फंडिग से जुटे पैसे से हमने करीब-करीब 95% बच्चों के फीस की व्यवस्था कर ली.”
क्राउड फंडिंग से मिले पैसों ने दिखाई नई उम्मीद
वह कहती हैं, “मुझे अंदाजा नहीं था कि क्राउड फंडिंग से इस तरह की मदद मिलेगी और मैं बच्चों के लिए कुछ कर सकूंगी. ये बच्चे ही हमारे स्कूल की ताकत हैं. देश का भविष्य हैं. मेरा बेटा भी इसी स्कूल से पढ़ा है. तमाम पेरेंट्स से मैं बात कर रही थी. उनकी स्थिति को समझ रही थी. कोविड ने उन्हें तोड़ दिया था. लेकिन, क्राउड फंडिंग से मिले पैसों ने एक नई उम्मीद दिखाई और उनकी जिंदगी पटरी पर आ गई.”
वह कहती हैं, “शुरू में तो कुछ लोग ये कहते हुए आए कि वह सिर्फ 80% से ज्यादा नंबर हासिल करने वाले बच्चों की मदद करेंगे. लेकिन, धीरे-धीरे उनका भरोसा हम पर और बच्चों पर बढ़ा और लोगों ने डोनेशन देना शुरू कर दिया. इसमें कुछ एनजीओ भी आगे आए. कुछ कंपनियां भी आगे आईं. इसके साथ ही सामान्य लोग भी आए.”
बच्चों की स्थिति को लेकर बनाया एक चार्ट
शिर्ली का कहना है कि स्कूल की एक टीम ने बच्चों की स्थिति को लेकर एक चार्ट बना लिया. उनकी आर्थिक स्थिति क्या है. वे कहां रह रहे हैं. कैसे और किन चीजों से उनकी मदद हो सकती है. इसके बाद उनके एकाउंट में सीधे पैसे ट्रांसफर करके उनकी मदद की गई.
इस तरह से ऐसे बच्चे जो ऑलनाइन क्लास कर रहे थे, कुछ बच्चे जो गांव चले गए थे उन सबकी मदद हो सकी. उनकी क्लास ना छूटे इसका खयाल रखा गया. पेरेंट्स से कहा गया कि आप जितनी भी फीस दे सकते हैं, दे दीजिए. बाकी बचा हुआ पैसा हम दे देंगे. इस तरह करीब-करीब 95% जरूरतमंद बच्चों की पूरी तरह से मदद हो सकी.
वह कहती हैं, कि उनके स्कूल ने पिछले 3 साल में एक रुपये भी फीस नहीं बढ़ायी है. उनकी योजना है कि वह अगले सेशन में भी इसी फीस स्ट्रक्चर के साथ जाएं. स्कूल को विश्वास है कि स्टूडेंट्स के पेरेंट्स की स्थिति सामान्य होगी और जल्द ही वे फीस देने में सामर्थ्यवान होंगे.
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