नई दिल्ली. उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला ने रविवार को कहा कि शीर्ष अदालत को विवादों पर फैसला करते समय केवल ‘कानून के शासन’ को ध्यान में रखना होता है क्योंकि ‘न्यायिक फैसले जनता की राय के प्रभाव का प्रतिबिंब नहीं हो सकते.’ लोकप्रिय जन भावनाओं के ऊपर कानून के शासन की प्रधानता पर जोर देते हुए न्यायमूर्ति पारदीवाला ने कहा कि एक ओर बहुसंख्यक आबादी के इरादे को संतुलित करना और उसकी मांग को पूरा करना तथा दूसरी ओर कानून के शासन की पुष्टि करना ‘कठिन काम’ है.
उन्होंने कहा, ‘लोग क्या कहेंगे, लोग क्या सोचेंगे, इन दोनों के बीच की कड़ी पर चलने के लिए अत्यधिक न्यायिक कौशल की आवश्यकता होती है. यह एक पहेली है जो प्रत्येक न्यायाधीश को निर्णय लिखने से पहले परेशान करती है.’ शीर्ष अदालत के न्यायाधीश डॉ. राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, लखनऊ और राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, ओडिशा के साथ राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालयों के पूर्व छात्रों के संघ (कैन फाउंडेशन) द्वारा आयोजित ‘जस्टिस एचआर खन्ना मेमोरियल नेशनल सिम्पोजियम’ को संबोधित कर रहे थे.
‘लोकतंत्र में कानून ज्यादा जरूरी है’
न्यायमूर्ति पारदीवाला ने कहा, ‘मेरा दृढ़ विश्वास है कि देश की शीर्ष अदालत केवल एक चीज-कानून के शासन को ध्यान में रखते हुए फैसला करती है…न्यायिक फैसले जनता की राय के प्रभाव का प्रतिबिंब नहीं हो सकते हैं.’ उन्होंने कहा, ‘मैं लोकतंत्र में विश्वास करता हूं, हमारे यहां अदालती फैसलों के साथ जीवन जीने के लिए प्रणालीगत समझौते हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि अदालत के फैसले हमेशा सही होते हैं और अन्य सभी विचारों से मुक्त होते हैं. लोकतंत्र में कानून ज्यादा जरूरी है.’
‘कानून का शासन कायम होना चाहिए’
न्यायमूर्ति पारदीवाला ने यह भी कहा कि संविधान के तहत कानून के शासन को बनाए रखने के लिए देश में डिजिटल और सोशल मीडिया को अनिवार्य रूप से विनियमित करने की आवश्यकता है क्योंकि यह ‘लक्ष्मणरेखा’ को पार करने और न्यायाधीशों पर व्यक्तिगत, एजेंडा संचालित हमले करने के लिए ‘खतरनाक’ है. उन्होंने कहा, ‘कानून का शासन भारतीय लोकतंत्र की सबसे विशिष्ट विशेषता है. मेरा दृढ़ विश्वास है कि इसका कोई अपवाद नहीं है. कानून का शासन कायम होना चाहिए और जनता की राय कानून के शासन के अधीन होनी चाहिए.’
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