रत्ना गिल
देश में यौन उत्पीड़न के करीब 53 फीसदी मामले लड़कों के खिलाफ होते हैं. हालांकि, लड़के कम ही बार अपने परिवार को अपने साथ हुई ऐसी घटनाओं की जानकारी देते हैं. वहीं, यौन हिंसा के बाद लड़कियों के मुकाबले लड़कों को मनोवैज्ञानिक की सलाह दिलाने की दर 89 फीसदी कम है. इस समय देश में चर्चा चल रही है कि लड़कों का अपनी भावनाएं खुलकर जाहिर करना ठीक है या नहीं. वहीं, इसमें भी आश्चर्य नहीं कि यौन उत्पीड़न के शिकार लड़कों को जरूरी मदद नहीं मिल पाती है.
लड़कों और पुरुषों पर पड़ने वाले बोझ को लेकर खामोश है समाज
ज्यादातर लोग बड़े होते लड़कों को अपने दर्द को छुपाने का पाठ पढ़ाते हैं. एक तरफ समाज में स्कूल, परिवार और पेशेवर के तौर पर लड़कियों की सफलता में आनी वाली बाधाओं पर खुलकर चर्चा हो रही है. वहीं दूसरी तरफ हम लड़कों और पुरुषों पर पड़ने वाले बोझ को लेकर खामोश हैं. हम चर्चा कर रहे हैं कि क्या पुरुषों और बढ़ते हुए हुए लड़कों का अपना दर्द छुपाना सही है? अगर वे दर्द छुपाते हैं तो हो सकता है कि उनकी पीड़ा खराब व्यवहार के तौर पर बाहर निकले. यौन उत्पीड़न के शिकार किशार अपनी पीड़ा को हिंसा के जरिये बाहर निकालते हैं. जब भी हम उन्हें अपनी भावनाओं को खुलकर दिखाने से रोकते हैं तो निश्चित तौर पर हम उनकी खुश रहने की क्षमता कम रहे होते हैं.
क्या लड़कों को दर्द छुपाने की सलाह देना देश के लिए सही है
पिछले दो हफ्ते के दौरान गुड मॉर्निंग अमेरिका की होस्ट लारा स्पेंसर ने ब्रिटेन के प्रिंस जॉर्ज की उनके बैले के प्रति लगाव को लेकर काफी निंदा की है. वहीं, भारत में भी काफी लोगों ने चंद्रयान-2 के लैंडर विक्रम से संकर्प टूटने के बाद इसरो के चेयरमैन डॉ. के. सिवन के भावुक होने को लेकर मजाक उड़ाया. सार्वजनिक तौर पर खूब नजर आईं इन दो तस्वीरों और चर्चा के जरिये हम युवाओं को स्वीकार्य और अस्वीकार्य का स्पष्ट संदेश दे रहे हैं. हम उनसे कह रहे हैं कि अपनी मायूसी, दर्द और शोक को अपने अंदर छुपा के रखो. क्या लिंग के आधार पर समानता की बात करने वाले देश के युवा लड़कों को इस तरह का संदेश देना सही है?
जैविक आधार पर लड़के-लड़कियां बचपन में बराबर रोते हैं
जैविक आधार पर लड़का या लड़की जब शिशु होते हैं तो दोनों बराबर रोते या चिल्लाते हैं. दोनों जन्म के समय बराबर रोते हैं. दोनों जीवन के पहले पांच साल बराबर रोते हैं. फिर ऐसा क्यों होता है कि हम फिल्मों और बाकी मीडिया में पुरुषों को बहुत कम रोते हुए दिखाते हैं. टोनी पोर्टर के मुताबिक, पांच साल के लड़कों स्पष्ट संदेश मिल जाता है कि उनका गुस्सा करना तो स्वीकार्य है, लेकिन रोना या दूसरे तरीकों से अन्य भानवाओं को दिखाना स्वीकार नहीं किया जाएगा. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो समाज ही उनसे ऐसी उम्मीद करता है.
वर्षों किसी काम को करने बाद मिली नाकामी दिल तोड़ देती है
समाज की लड़कों से यह उम्मीद तब उभरकर सामने आती है जब गौरव पांधी जैसा राजनीतिक विश्लेषक इसरो चेयरमैन के भावुक होने पर तंज कसता है. उन्हें पता होना चाहिए कि जब अब किसी काम में अपना खून, पसीना और आंसू झोंकते हैं और पूरा होने के करीब पहुंचकर आपको उसमें असफलता मिलती है तो रोना एक स्वाभाविक मानवीय प्रतिक्रिया होती है. हम डॉ. सिवन से क्या उम्मीद करते हैं? क्या उन्हें असफल लैंडिंग के बाद हाथ मिलकर और छोटा सा बयान देकर अपनी भावनाएं जतानी चाहिए थीं. दरअसल जब कोई किसी काम को पूरे जोश के साथ करने में वर्षों जुटा रहता है तो आखिरी मौके पर मिली नाकामी दिल तोड़ देती है. अगली बार जब हम किसी पुरुष के सार्वजनिक तौर पर अपनी भावनाएं जाहिर करने पर टिप्पणी करें तो यह भी ध्यान रखें कि उनकी भावनाओं को दबाने के वास्तविक परिणाम क्या हो सकते हैं.
(लेखिका आंगन ट्रस्ट में बाल सुरक्षा पर काम करती हैं. लेख उनके निजी विचार हैं.)
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Tags: Chandrayaan 2, ISRO, Prince charles, Sexual Abuse
FIRST PUBLISHED : September 10, 2019, 15:14 IST