आसनसोल से एक बार फिर लोकसभा में पहुंचे शत्रुघ्न सिन्हा (News18)
नई दिल्ली. शत्रुघ्न सिन्हा ने तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर आसनसोल से लोकसभा का चुनाव जीतकर एक बार फिर से लोकसभा में पहुंचने में सफलता हासिल की है. अपने फिल्मी करियर की तरह ही राजनीतिक करियर में भी बिहारी बाबू ने हर भूमिका में गहरी छाप छोड़ी है. शॉटगन के नाम से मशहूर शत्रुघ्न सिन्हा की दमदार आवाज ने अगर उनके अभिनय करियर में चार चांद लगाए तो राजनीति में भी कम काम नहीं आई. वैसे भी शत्रुघ्न सिन्हा को खुद ‘खामोश’ रहना पंसद नहीं हैं. फिर भी पिछले कुछ समय से वे बीजेपी में अपनी आवाज को बुलंद तरीके से पेश करने में कामयाब नहीं हो पा रहे थे. हर कोई जानता है कि शत्रुघ्न सिन्हा को खामोश रखना आसान नहीं है. बीजेपी छोड़ शत्रुघ्न सिन्हा ने कांग्रेस का हाथ पकड़ा और फिर तृणमूल कांग्रेस से लोकसभा पहुंचने में कामयाबी हासिल कर ली.
बीजेपी से शत्रुघ्न सिन्हा 12 साल राज्यसभा के और पटना साहिब से 10 साल लोकसभा के सांसद रहे. वह अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण और जहाजरानी मंत्री थे. अब देखना रोचक होगा कि अपनी दमदार आवाज को इस बार शत्रुघ्न सिन्हा विपक्ष की आवाज बनाने में कामयाब हो पाते हैं या नहीं.
पढ़ाई के समय लगा फिल्मों का चस्का
2016 में शत्रुघ्न सिन्हा की जीवनी ‘एनीथिंग बट खामोश’ जारी की गई थी. सिन्हा का जन्म पटना में 15 जुलाई 1946 को भुवनेश्वरी प्रसाद सिन्हा और श्यामा देवी सिन्हा के घर हुआ था. वह चार भाइयों-राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न में सबसे छोटे हैं. सिन्हा के परिवार में पढ़ाई का बहुत शानदार रिकॉर्ड रहा है. शत्रुघ्न सिन्हा ने भी पटना साइंस कॉलेज से स्नातक की उपाधि हासिल की. इसी दौरान उनको फिल्मों का चस्का लग गया. उनको जल्द ही पता चल गया कि फिल्मों और अभिनय में उन्हें किसी भी और चीज से ज्यादा दिलचस्पी है.
राज कपूर बने आदर्श
नायकों में राज कपूर शत्रुघ्न सिन्हा के आदर्श थे और वे उनकी फिल्मों को कई बार देखते और उनकी शैली की नकल करते. राज कपूर की सिगरेट पीने की अदा उनको खास पसंद आई और उन्होंने उसी तरह सिगरेट पीना शुरू किया. बाद में इस आदत को छोड़ने के लिए उनको योग की मदद लेनी पड़ी. शत्रुघ्न सिन्हा मिमिक्री में काफी अच्छे थे. ये एक ऐसी खूबी थी जिसने उन्हें अपने साथियों के बीच बहुत लोकप्रिय बना दिया. एक्टिंग में जाने के लिए अंततः शत्रुघ्न सिन्हा ने पुणे के भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) में प्रवेश लिया और वहां से अभिनय में डिप्लोमा किया. इस समय उनके नाम से इस संस्थान में डिप्लोमा छात्रों को एक स्कॉलरशिप दी जा रही है. इसके बाद वह फिल्मों में अपनी किस्मत को आजमाने के लिए मुंबई पहुंच गए.
‘जब काम चलेगा तो नाम भी चलेगा’
शुरू में हर किसी की तरह शत्रुघ्न सिन्हा को भी संघर्ष करना पड़ा. नए लोगों के मनोबल को तोड़ने की कोशिश करने वाले अनेक लोग होते हैं. जबकि उनका हौसला बढ़ाने वाले विरले मिलते हैं. जिस तरह लोगों ने अमिताभ बच्चन को अपना नाम बदलने की सलाह दी थी, वैसे लोग शत्रुघ्न सिन्हा को भी मिले थे. बहुत दुविधा में पड़े शत्रुघ्न सिन्हा को मणि कौल ने कहा कि ‘जब काम चलेगा तो नाम भी चलेगा.’ इससे वे एक गहरी दुविधा से बाहर निकल आए. फिर भी उनकी पहली रिलीज हुई फिल्म साजन में उनका नाम एस. सिन्हा लिखा गया है.
शत्रु बने विलेन के डॉयलाग पर बजती हीरो से ज्यादा तालियां
शत्रुघ्न सिन्हा को सबसे पहले देव आनंद की प्रेम पुजारी में एक पाकिस्तानी मिलिट्री अफसर की भूमिका निभाने का मौका मिला था. इसके बाद 1969 में मोहन सहगल की साजन में उन्हें एक पुलिस इंस्पेक्टर के रूप में छोटी भूमिका मिली. प्रेम पुजारी की रिलीज में देरी हुई, इसलिए उनकी पहली रिलीज हुई फिल्म साजन थी. बाद में वह प्यार ही प्यार, बनफूल, मनमोहन देसाई की रामपुर का लक्ष्मण, भाई हो तो ऐसा, सुल्तान अहमद की हीरा और विजय आनंद की ब्लैकमेल में खलनायक भूमिकाओं में दिखाई दिए. उनके विलेन के किरदार इतने लोकप्रिय हुए कि हीरो से ज्यादा तालियां उनके डॉयलाग पर बजतीं थीं. शत्रुघ्न सिन्हा पहले से ही हीरो बनने के लिए बेताब थे.फिर भी उनको इसके लिए लंबे समय तक इंतजार करना पड़ा.
कालीचरण ने खोला किस्मत का दरवाजा
उन्होंने कई फिल्मों में सहायक भूमिकाएं निभाईं. अमिताभ बच्चन के साथ रास्ते का पत्थर, यार मेरी जिंदगी, शान और काला पत्थर जैसी फिल्मों में शत्रुघ्न सिन्हा ने अभिनय किया. 1970 और 1975 के बीच हीरो के रूप में उनकी फिल्में हिट नहीं हुईं. हीरो के रूप में उनकी पहली हिट फिल्म 1976 में आई कालीचरण थी. इसकी भी कहानी कई संयोगों से भरी है. सुभाष घई कालीचरण की कहानी के साथ एन. एन. सिप्पी के पास गए और कहा कि वह ये फिल्म बनाना चाहते हैं. एन. एन. सिप्पी इसके लिए राजी हो गए, लेकिन वे कालीचरण में राजेश खन्ना को हीरो लेना चाहते थे. राजेश खन्ना के पास 1976 और 1977 में तारीखें नहीं थीं. इसके बाद सिप्पी ने सुभाष घई को शत्रुघ्न सिन्हा के साथ कालीचरण को बनाने के लिए हरी झंडी दी. सिन्हा ने अब क्या होगा, खान दोस्त, यारों का यार, दिल्लगी, विश्वनाथ, मुकाबला और जानी दुश्मन जैसी फिल्मों में हीरो का रोल किया. फिर वह एक एक्शन हीरो बन गए.
जिंदगी खुली किताब
शत्रुघ्न सिन्हा ने अपनी जीवनी ‘एनीथिंग बट खामोश’ में अपनी लव लाइफ के बारे में भी खुलकर बातें की हैं. जब सिन्हा पटना से पहली बार पुणे के लिए ट्रेन में चढ़े तो उन्होंने एक बहुत खूबसूरत लड़की को देखा. ये लड़की थी पूनम चंद्रमणि. जिनसे उन्होंने 14 साल बाद शादी की थी. हालांकि पहले पूनम की मां ने सिन्हा के शादी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था. अपने विवाह से पहले शत्रुघ्न सिन्हा रीना रॉय के साथ एक शो के लिए लंदन में थे, जो उन्हें वापस हवाई अड्डे पर छोड़ने आईं थीं. फिर भी उनसे शत्रुघ्न सिन्हा ने अपनी शादी की बात को गोपनीय रखा था. इससे रीना रॉय को गहरा धक्का लगा. बॉलीवुड सितारों के बीच इस तरह की ईमानदारी से अपनी बातों को स्वीकार करना दुर्लभ है. ये मामला बाद में अपने आप सुलझ गया जब रीना रॉय ने मोहसिन खान से शादी कर ली.
राजनीति ने तोड़ी राजेश खन्ना से दोस्ती
राजनीति में शत्रुघ्न सिन्हा का प्रवेश एक ऐसी कड़वी घटना से हुआ जिसका उनको जीवन भर अफसोस रहा. उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा कि उनके जीवन का सबसे बड़ा अफसोस उनके दोस्त राजेश खन्ना के खिलाफ चुनाव लड़ना था. राजेश खन्ना चुनाव जीत गए. लेकिन वह इससे इतना आहत हुए कि उसके बाद उन्होंने शत्रुघ्न सिन्हा से कभी बात नहीं की. हालांकि सिन्हा ने खन्ना के साथ अपनी दोस्ती को फिर से कायम करने की कोशिश की. सिन्हा ने अपनी जीवनी एनीथिंग बट खामोश में खुलासा किया कि उनको 1991 में दिल्ली से राजेश खन्ना के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए मजबूर किया गया था. जिसका उनको हमेशा अफसोस रहा. सिन्हा ने कहा कि बाद में उनको महसूस हुआ कि किसी भी परिस्थिति में उनको अपने सक्रिय राजनीतिक जीवन की शुरुआत उस उप-चुनाव से नहीं करनी चाहिए थी.
आडवाणी को ना नहीं कह सके
शत्रुघ्न सिन्हा ने कहा कि वे लालकृष्ण आडवाणी को ना नहीं कह सकते थे. क्योंकि वे उनके मार्गदर्शक, गुरु और सुप्रीम लीडर थे. आडवाणी ने गांधीनगर और नई दिल्ली से 1991 का चुनाव लड़ा और जीता था. उन्होंने गुजरात में अपनी सीट कायम रखी. दिल्ली सीट के लिए हुए उपचुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार राजेश खन्ना का मुकाबला करने के लिए भाजपा ने सिन्हा को उतारा था. पहले सिन्हा ने चुनाव लड़ने से मना किया लेकिन आखिरकार उनको आडवाणी के सामने ले जाया गया. उन्होंने कहा था कि ‘यह हमारी प्रतिष्ठा का सवाल है और मैं इस बार आपसे ‘ना’ नहीं सुनना चाहता.’
हार के बाद मिली उपेक्षा
शत्रुघ्न सिन्हा ने बताया है कि राजेश खन्ना से हार के बाद भाजपा ने उनको बहुत उपेक्षित किया. अशोक रोड पर बीजेपी पार्टी कार्यालय में उनको विशेष रूप से अवांछित महसूस कराया गया. उनके जाते ही लोग बात करना बंद कर देते या विषय बदल देते. एक दिन तो एक पार्टी पदाधिकारी शत्रुघ्न सिन्हा के पास आया और कहा कि ‘शत्रुजी, कृपया बाहर बैठो. जब हम आपसे बात करने के लिए तैयार होंगे तो हम आपको फोन करेंगे.’ इससे वे इतने आहत हुए कि कई साल तक कभी बीजेपी ऑफिस नहीं गए.
मंत्री रहते खास छाप नहीं छोड़ पाए बिहारी बाबू
शत्रुघ्न सिन्हा भले ही ये दावा करना बहुत पसंद करते हैं कि वह फिल्म उद्योग से आए पहले ऐसे कैबिनेट मंत्री थे, जो पूरी तरह से केवल अपनी ‘योग्यता’ के कारण मंत्री बने थे. लेकिन ये भी वास्तविकता है कि अपने कार्यकाल के दौरान वे कोई खास छाप छोड़ने में सफल नहीं हो पाए थे. उनको अपने कार्यालय में बहुत कम मौजूद पाया जाता था. उनसे मिलने की कोशिश करने वाले लोगों को अक्सर निराशा होती थी. स्वास्थ्य जैसे महकमे में अक्सर जन स्वास्थ्य विभाग से जुड़े कई नीतिगत फैसलों को उनकी गैर-मौजूदगी के कारण टालना पड़ता था. फिल्मों की शूटिंग पर हमेशा देर से पहुंचने की अपनी आदत को शत्रुघ्न सिन्हा ने मंत्री बनने पर भी बरकरार रखा.
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