बाइपोलर डिसऑर्डर से जूझ चुकी महिला ने लिखी केमिकल खिचड़ी (facebook.com)
मुंबई. लगे रहो मुन्नाभाई फिल्म का नायक लगातार गांधी जी के बारे में पढ़ता रहता है. उसे जो धुन सवार होती है वह उसके दिमाग में इस कदर स्थापित हो जाती है कि उसे लगने लगता है कि खुद गांधी जी उसके सवालों का जवाब दे रहे हैं. वह इस बात को हकीकत मान कर जीने लगता है. डॉक्टर उसे समझाने की कोशिश करते हैं लेकिन वह चूंकि उस स्थिति से गुजर रहा है, इसलिए मान नहीं पाता है. जब डॉक्टर उसे गलत साबित करते हैं तो वह हताश हो जाता है. लोग भी उसे दिमागी बीमार मानने लगते हैं और उसके दिमाग में होने वाली गड़बड़ी को ‘केमिकल लोचा’ कहा जाता है.
यह केमिकल लोचा व्यक्ति में हेल्युसिनेशन यानी भ्रम की स्थिति पैदा कर देता है. और जो वह सोच रहा होता है उसे सही मान कर चलने लगता है. लेकिन अक्सर हम एक गलती करते हैं. इस स्थिति से गुजरने वाले इंसान को हम बीमार या पागल करार दे देते हैं. जबकि अगर आप किस्सों कहानियों में या संस्मरणों में पढ़ेंगे तो आपको मृग-मरीचिका का उल्लेख सुनने को मिलता है. जिसमें रेगिस्तान में पानी का अहसास होता है. यह एक तरह की वैज्ञानिक प्रक्रिया होती है जो आपको एक मायाजाल का अनुभव कराती है. यही नहीं कई बार तो रेगिस्तान या अथाह समुद्र में भटके इंसान को वहां पानी से भरी हुई झील या समुद्र के बीच कोई द्वीप नजर आने लगता है.
चार्ली चैप्लिन अपनी फिल्म में एक ऐसा किरदार को निभाते हैं जो बर्फ के तूफान में फंस गया है. जब वह और उसका साथी एक कमरे में भूख से तड़प रहे होते हैं तो उसके साथी को चार्ली चैप्लिन की शक्ल में चिकन नजर आने लगता है. अब सवाल यह खड़ा होता है कि क्या लगे रहो मुन्ना भाई का नायक, चार्ली चैप्लिन को चिकन समझने वाला उनका साथी या जिन्हें समुद्र में द्वीप या रेगिस्तान में झील नजर आ रही है वह पागल हैं या दिमागी रूप से बीमार हैं. शायद हम में से ज्यादातर यही कहेंगे कि नहीं ऐसा नहीं है. जब वे ठीक स्थिति में आएंगे तो फिर से बेहतर हो जाएंगे या उनकी ये स्थिति अस्थाई है. तो क्या अगर किसी को यह स्थिति स्थाई तौर पर हो जाए तो वह बीमार है.
मानसिक सेहत को लेकर गलतफहमियां
कोरोना काल के बाद अगर बहुत बुरा हुआ तो कुछ बातें अच्छी भी हुईं. अभी तक हाशिये पर पड़ी और सिर्फ एक विशेष तबके तक सीमित दिमागी स्वास्थ्य की बातें अब हर घर की चर्चा का विषय बन रहीं हैं. खास बात यह है कि एक वक्त तक किसी मनोविज्ञानी या मनोचिकित्सक को दिखाने में जहां अधिकांश लोग गुरेज किया करते थे, उनकी संख्या में भी धीरे-धीरे कमी आती जा रही है. कुल मिलाकर लोग मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरुक होते जा रहे हैं. लेकिन अभी भी एक बात है जिसे लेकर ज्यादातर लोगों में गलतफहमी है. वह है मानसिक स्वास्थ्य को लेकर बीमारी और स्थिति में अंतर नहीं कर पाना.
अक्सर किसी भी तरह की मनोवैज्ञानिक स्थिति को हम बीमारी से जोड़ कर देखते हैं. इसे लेकर मैक्लीन के पोस्ट ग्रेज्यूएशन और सतत शिक्षा विभाग के निदेशक क्रिस्टोफर एम. पॉमर का कहना है कि मानसिक स्वास्थ्य और मानसिक बीमारी ठीक वैसी ही है जैसी शारीरिक स्वास्थ्य और शीरीरिक बीमारी. जिस तरह से कई तरीकों से इंसान शारीरिक तौर पर अस्वस्थ या स्वस्थ हो सकता है वैसा ही दिमाग पर भी लागू होता है. मसलन अगर किसी को सर्दी जुखाम या बुखार हो जाता है तो हम कहते हैं कि वह अभी बीमार है लेकिन उसकी यह बीमार अस्थाई होती है और कुछ दिनों के बाद वह ठीक हो जाता है. ठीक इसी तरह हो सकता है कि किसी व्यक्ति को किसी घटना की वजह से दिमागी धक्का लगा हो और वह अवसाद में चला जाए, तो उस व्यक्ति में अस्थायी तौर पर एक मनोविकार पैदा हुआ. जिसे वक्त रहते अगर ठीक कर लिया जाए तो व्यक्ति पूरी तरह से मानसिक तौर पर स्वस्थ हो जाता है.
इसी तरह हमें यह बात भी समझने की जरूरत है कि कुछ दिमागी तकलीफें ऐसी होती हैं, जिसमें व्यक्ति दिमागी तौर पर पूरी तरह स्वस्थ होता है लेकिन हार्मोन के असुंतलन या किसी और वजह से उसमें एक स्थिति पैदा हो जाती है. जिसकी वजह से उसे कुछ तकलीफो का सामना करना पड़ता है. मसलन पार्किन्सन जो एक दिमागी विकार है. जिसमें दिमाग में बनने वाला रसायन डोपामीन बनना बंद हो जाता है. जिसकी वजह से व्यक्ति की हाथ पैर या शरीर में जकड़न शुरू हो जाती है. लेकिन पार्किन्सन से पीड़ित व्यक्ति का दिमाग बाकी सारे काम बेहतर कर रहा होता है. उसकी सोचने-समझने की स्थिति में कोई खराबी नहीं आती है. रोग नियंत्रण केंद्र (सीडीसी) के मुताबिक मानसिक बीमारी ऐसी स्थितियां हैं जो किसी व्यक्ति की सोच, भावना या मनोदशा या व्यवहार को प्रभावित करती हैं. लेकिन इसे अवसाद, चिंता, बाइपोलर डिसऑर्डर या सिजोफ्रेनिया तक सीमित नहीं रखा जा सकता है.
बाइपोलर डिसऑर्डर बनाम सिजोफ्रेनिया
जब दिमागी विकार की बात आती है तो हम में जागरुकता कि इस कदर कमी है कि हम अवसाद, चिंता, बाइपोलर डिसऑर्डर या सिजोफ्रेनिया सभी को एक जैसी मानसिक बीमारी मान कर चलते हैं. या कई बार तो ऐसा भी होता है कि सभी स्थितियों में अगर व्यक्ति डॉक्टर के पास जाता है तो उसे पागल ही बताया जाता है. या दिमाग खराब होना साबित कर दिया जाता है. जबकि यह सभी स्थितियां अलग अलग होती है, जहां अवसाद या चिंता अस्थायी हो सकती है, वहीं बाइपोलर या सिजोफ्रेनिया जैसे विकारों को जिंदगी भर मैनेज करना होता है. हालांकि सीजोफ्रेनिया बाइपोलर की तुलना में ज्यादा गंभीर मनोस्थिति होती है.
मानसिक सेहत के साथ अनेक चुनौतियां है और इसे लेकर जागरुकता में कमी इन चुनौतियों को और बड़ा कर देती है. जबकि इसके बारे में जितनी बात की जाए, इससे निपटना उतना ही आसान हो जाता है. इसी मुद्दे को लेकर लेखक अपर्णा पीरामल राजे ने एक किताब लिखी है ‘केमिकल खिचड़ी’. यह किताब बाइपोलर डिसऑर्डर से निपटने और मानसिक सेहत को लेकर एक जागरुकता पैदा करने वाली पुस्तक है. जिसमें संस्मरणों, रिपोर्ताज और लेखक की खुद इस विकार (बाइपोलर डिसआर्डर) से जूझने और उबरने की बात की गई है.
मानसिक सेहत को समझाती केमिकल खिचड़ी
उद्यमी से लेखक बनी राजे की यह किताब साथ-साथ ऐसे उपचार बताती है जिसके जरिए मानसिक सेहत के खराब हालात से जूझ रहे व्यक्ति और उनके परिवार को इससे लड़ने का रास्ता खुल जाता है. दो बच्चों की मां और एक प्रसिद्ध फर्नीचर ब्रांड की सीईओ राजे को 24 साल की उम्र में पता चला कि उन्हें बाइपोलर डिसऑर्डर है. राजे पर पूरा परिवार निर्भर करता है, ऐसे में दिमाग से जुड़ी किसी स्थिति को पता चलना उनके लिए आसान नहीं था. लेकिन वह मानती है कि बायपोलर कोई जिंदगी भर मिली हुई सजा नहीं है. अगर आप चाहें तो इसे आसानी से रोक सकते हैं. हां इसमें परिवार का सहयोग भी बहुत जरूरी होता है. बायपोलर में अक्सर दौरा आता है ऐसे में अगर इसकी जानकारी सही से हो तो इसे आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है.
काम करना और अपनी स्थिति के बारे में बोलना जरूरी
राजे अपनी किताब में बताती हैं कि जब उन्हें इस स्थिति का पता चला तो उन्होंने खुल कर इसके बारे में बात की. इसका यह परिणाम हुआ कि उनके दफ्तर से लेकर घर तक सभी लोगों को उनके बारे में पता था. जिससे कभी स्थिति बिगड़ने पर तुरंत काबू में आ जाती थी. यही नहीं उनकी स्थिति मालूम चलने पर उन्हें दफ्तर में ज्यादा सहज भी रखा गया. हालांकि आमतौर पर राजे जैसी स्थिति दूसरे दफ्तरों में नहीं देखने को मिलती है. बल्कि कई बार तो ऐसा भी होता है कि व्यक्ति अपनी मानसिक स्थिति के बारे में इसलिए छिपाते हैं क्योंकि इससे उन्हें अपनी नौकरी के जाने का खतरा बना रहता है. लेकिन जिस तरह से लगातार इस मुद्दे पर बात हो रही है ऐसे में अब बड़े शहरों में तो स्थितियां बदलने लगी हैं. आमतौर पर कहा जाता है कि काम करने की वजह से तनाव बढ़ गया जिसकी वजह से कोई मानसिक स्वास्थ्य से जूझ रहा है. ऐसी स्थितियों में अक्सर लोग काम से बचने लगते हैं. राजे बताती हैं कि कई बार काम ही होता है जो हमें ऐसी मानसिक स्थितियों से बाहर निकालने में मददगार होता है.
क्या होता है बाइपोलर डिसऑर्डर
बाइपोलर डिसऑर्डर एक तरह का मानसिक विकार है. जिसमें मन या तो हफ्तों तक उदास रहता है या फिर अत्यधिक खुशी महसूस करता है. इस दौरान उदासी में नकारात्मक ख्याल आते हैं जो कई बार आत्महत्या की वजह भी बन जाता है. करीब 100 में किसी एक को यह विकार होता है. आमतौर पर यह 14 से 19 साल की उम्र में होता है. महिलाएं और पुरुष दोनों पर यह विकार एक जैसा ही असर डालता है. 40 की उम्र के बाद इसके होने की आशंका बहुत कम होती है.
इस बीमारी की वजह आज तक किसी को पता नहीं चल सकी है. वैज्ञानिकों का मानना है कि अत्यधिक मानसिक तनाव इस बीमारी की शुरूआती की वजह हो सकता है. जहां तक इलाज की बात है तो इसमें सायकोथेरेपी और दवाओं का इस्तेमाल होता है. कुल मिलाकर तमाम तरह के शोध और केमिकल खिचड़ी जैसी अनुभव से सजी हुई किताबें बताती है कि मानसिक सेहत को लेकर गंभीरता नहीं सजगता जरूरी है.
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