कम-ज्यादा वोटिंग का गणित क्या सच में बदल देता है चुनावी परिणाम!

फाइल फोटो
क्या कम और ज्यादा वोटिंग प्रतिशत सत्ता के विरोध और पक्ष में कोई रुझान बताता है?
- News18Hindi
- Last Updated: April 19, 2019, 3:41 PM IST
साल 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले इस बार ज्यादातर राज्यों के मतदान प्रतिशत में गिरावट देखी जा रही है. ओवरऑल वोटिंग परसेंटेज पिछले चुनाव के मुकाबले लगभग 2 फीसदी कम है. ऐसे में घटते-बढ़ते वोटिंग प्रतिशत को लेकर लोगों ने गणित लगाना शुरू कर दिया है. ज्यादातर लोग कह रहे हैं कि बढ़ी हुई वोटिंग सत्ता के खिलाफ नाराजगी होती है जबकि घटी हुई उसे समर्थन. लेकिन राजनीति विज्ञानी बता रहे हैं कि घटे या बढ़े मतदान प्रतिशत का सत्ता विरोधी या सत्ता के पक्ष में कोई कनेक्शन समझ में नहीं आता. हां, अगर छह-सात फीसदी का अंतर हो तब जरूर इसका मतलब निकाल सकते हैं.
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक प्रोफेसर एके वर्मा के मुताबिक, आमतौर पर जब मत प्रतिशत घटता और बढ़ता है तो लोग उसके निहितार्थ निकालते हैं, लेकिन इसे लेकर किसी प्रकार की सहमति नहीं बन पाई है. इसके लिए हम मध्य प्रदेश का उदाहरण समझते हैं. (ये भी पढ़ें: यूपी के वोटबैंक: 7 फीसदी आबादी, 5 सीएम, 2 पीएम, ये है राजपूतों की सियासी ताकत! )
वोटिंग प्रतिशत
वर्मा के मुताबिक, यहां 2013 के मुकाबले दिसंबर 2018 के विधानसभा चुनाव में तीन प्रतिशत ज्यादा मत पड़े थे. बीजेपी मत प्रतिशत के संदर्भ में कांग्रेस से बढ़त बनाई हुई थी. अर्थात बढ़ा हुआ मतदान न तो एंटी इनकंबेंसी शो कर रहा है और न ही प्रो इनकंबेंसी. क्योंकि कांग्रेस और भाजपा दोनों के मत प्रतिशत एक से दिखाई देते हैं. जब मध्य प्रदेश में 2003 का विधानसभा चुनाव हुआ था तो लगभग 7.2 परसेंट वोटर टर्नआउट ज्यादा हुआ था, तब वहां कांग्रेस को हटाकर भाजपा की सरकार बनी थी. जब छह-सात फीसदी टर्नआउट ज्यादा हो तब हम परिवर्तन के बारे में कुछ कह सकते हैं. लेकिन 2-3 परसेंट पर कोई फर्क नहीं पड़ता.जैसे एमपी में भाजपा की सरकार 2003 में बनी, उसके बाद 2008 के चुनाव में 2 परसेंट का इजाफा हुआ. फिर भी भाजपा की सरकार बनी. 2013 में फिर दो-तीन फीसदी का इजाफा हुआ फिर भी भाजपा की सरकार बनी रही. मतलब ये है कि मतदान प्रतिशत बढ़ता रहा फिर भी बीजेपी सरकार बनी रही. ये उदाहरण हमें समझने का अवसर देता है कि चाहे मतदान बढ़ जाए या घट जाए उसका कोई स्पष्ट कनेक्शन नहीं होता कि वो सत्ता विरोधी है या पक्ष में.
ज्यादातर राज्यों में कम हुआ वोटिंग प्रतिशत
2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो बड़ा सवाल ये है कि पहले चरण के मतदान प्रतिशत में बिहार क्यों पिछड़ गया? जबकि त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में 81 फीसदी तक वोटिंग हुई. जो वामपंथियों के गढ़ रहे हैं. बिहार और बंगाल सटे हुए राज्य हैं फिर भी मतदान व्यवहार में अंतर आता है. इसकी कई वजहें होती हैं.
कम मतदान होने के संदर्भ में लोग मतदाताओं की उदासीनता की बात करते हैं लेकिन अब तो नोटा है. मतदाता को अधिकार है कि वो प्रत्याशी और पार्टी को रिजेक्ट कर दे. 2018 के एमपी विधानसभा चुनाव में नोटा का इस्तेमाल करके वोटर ने बीजेपी को दंड तो दे ही दिया. अगर उसी नोटा के वोट से 11 विधायक और जीत जाते तो आराम से बीजेपी की सरकार बनती.
क्यों कम हुआ वोटिंग प्रतिशत?
वर्मा के मुताबिक कई बार वोटर राजनीतिक कारणों से तो कई बार सामाजिक कारणों से वोट डालने नहीं जाता. कई बार टीना-TINA (देयर इज नो अल्टरनेटिव) फैक्टर भी काम करता है. मतलब जब हम ये मान बैठते हैं कि किसी पार्टी और नेता का इस समय कोई विकल्प ही नहीं है तो लगता है कि जीतेगी तो वही पार्टी. ऐसे में लोग वोट डालने नहीं निकलते. कई बार ध्रुवीकरण की वजह से वोटिंग ज्यादा होती है.
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सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक प्रोफेसर एके वर्मा के मुताबिक, आमतौर पर जब मत प्रतिशत घटता और बढ़ता है तो लोग उसके निहितार्थ निकालते हैं, लेकिन इसे लेकर किसी प्रकार की सहमति नहीं बन पाई है. इसके लिए हम मध्य प्रदेश का उदाहरण समझते हैं. (ये भी पढ़ें: यूपी के वोटबैंक: 7 फीसदी आबादी, 5 सीएम, 2 पीएम, ये है राजपूतों की सियासी ताकत! )

वर्मा के मुताबिक, यहां 2013 के मुकाबले दिसंबर 2018 के विधानसभा चुनाव में तीन प्रतिशत ज्यादा मत पड़े थे. बीजेपी मत प्रतिशत के संदर्भ में कांग्रेस से बढ़त बनाई हुई थी. अर्थात बढ़ा हुआ मतदान न तो एंटी इनकंबेंसी शो कर रहा है और न ही प्रो इनकंबेंसी. क्योंकि कांग्रेस और भाजपा दोनों के मत प्रतिशत एक से दिखाई देते हैं. जब मध्य प्रदेश में 2003 का विधानसभा चुनाव हुआ था तो लगभग 7.2 परसेंट वोटर टर्नआउट ज्यादा हुआ था, तब वहां कांग्रेस को हटाकर भाजपा की सरकार बनी थी. जब छह-सात फीसदी टर्नआउट ज्यादा हो तब हम परिवर्तन के बारे में कुछ कह सकते हैं. लेकिन 2-3 परसेंट पर कोई फर्क नहीं पड़ता.जैसे एमपी में भाजपा की सरकार 2003 में बनी, उसके बाद 2008 के चुनाव में 2 परसेंट का इजाफा हुआ. फिर भी भाजपा की सरकार बनी. 2013 में फिर दो-तीन फीसदी का इजाफा हुआ फिर भी भाजपा की सरकार बनी रही. मतलब ये है कि मतदान प्रतिशत बढ़ता रहा फिर भी बीजेपी सरकार बनी रही. ये उदाहरण हमें समझने का अवसर देता है कि चाहे मतदान बढ़ जाए या घट जाए उसका कोई स्पष्ट कनेक्शन नहीं होता कि वो सत्ता विरोधी है या पक्ष में.

2019 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो बड़ा सवाल ये है कि पहले चरण के मतदान प्रतिशत में बिहार क्यों पिछड़ गया? जबकि त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में 81 फीसदी तक वोटिंग हुई. जो वामपंथियों के गढ़ रहे हैं. बिहार और बंगाल सटे हुए राज्य हैं फिर भी मतदान व्यवहार में अंतर आता है. इसकी कई वजहें होती हैं.
कम मतदान होने के संदर्भ में लोग मतदाताओं की उदासीनता की बात करते हैं लेकिन अब तो नोटा है. मतदाता को अधिकार है कि वो प्रत्याशी और पार्टी को रिजेक्ट कर दे. 2018 के एमपी विधानसभा चुनाव में नोटा का इस्तेमाल करके वोटर ने बीजेपी को दंड तो दे ही दिया. अगर उसी नोटा के वोट से 11 विधायक और जीत जाते तो आराम से बीजेपी की सरकार बनती.

वर्मा के मुताबिक कई बार वोटर राजनीतिक कारणों से तो कई बार सामाजिक कारणों से वोट डालने नहीं जाता. कई बार टीना-TINA (देयर इज नो अल्टरनेटिव) फैक्टर भी काम करता है. मतलब जब हम ये मान बैठते हैं कि किसी पार्टी और नेता का इस समय कोई विकल्प ही नहीं है तो लगता है कि जीतेगी तो वही पार्टी. ऐसे में लोग वोट डालने नहीं निकलते. कई बार ध्रुवीकरण की वजह से वोटिंग ज्यादा होती है.
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