यूपी में जिस तरह पुलिस कमिश्नर असीम अरुण और पूर्व आईएएस अफसर राम बहादुर ने औपचारिक तौर पर बीजेपी की सदस्यता ले ली, उससे एक नया ट्रेंड इस राज्य में उभरता हुआ नजर आ रहा है. सूबे के आला आईएएस और आईपीएस अफसरों के लिए रिटायरमेंट के बाद या फिर स्वैच्छिक सेवानिवृति लेकर राजनीति दूसरे करियर के तौर पर बड़ी पसंद बन गया है.
राम बहादुर और असीम अरुण ने हाल ही में अपनी शानदार नौकरी छोड़ी और बीजेपी को ज्वाइन कर लिया. उन्होंने अपनी आला नौकरियों की बजाए राजनीति में आना पसंद किया है. यूं तो पूरे देश में ही आईएएस और आईपीएस अफसरों का सियासत में आना कोई नई बात नहीं है. ये कई दशकों से देखने में आ रहा है लेकिन हाल के बरसों में ये बढ़ा है तो यूपी में ये ट्रेंड कुछ ज्यादा ही देखने को मिला है.
इससे पहले पूर्व आईएएस अफसर अरविंद कुमार शर्मा और उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व डीजीपी बृजलाल ने बीजेपी ज्वाइन की थी.
असीम अरुण क्या चुनाव लडे़ंगे
जाति से जाटव असीम अरुण ने उस 08 जनवरी को नौकरी से वीआरएस ले लिया, जिस दिन यूपी में चुनावों का ऐलान भारतीय चुनाव आयोग ने किया. तब से अटकलें जारी हैं कि शायद उन्हें उनकी गृहनगर सीट कन्नौज से बीजेपी का टिकट मिल सकता है.
अपने कार्यकाल के दौरान असीम अरुण को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का पसंदीदा अफसर माना जाने लगा था. जिन्हें योगी ने कानपुर का पहला पुलिस कमिश्नर नियुक्त किया था.
तेजतर्रार पुलिस अफसर रहे हैं अरुण
अरुण 1994 बैच के आईपीएस अफसर हैं, वह एंटी टेरर स्क्वाड के पूर्व प्रमुख भी रह चुके हैं. वह नई दिल्ली के स्टीफेंस कॉलेज से पढ़े हैं. वो उसी दलित उप जाति से ताल्लुक रखते हैं, जहां से बसपा सुप्रीमो मायावती आती हैं. जैसे ही उन्होंने चुनाव घोषणा के बाद वीआरएस लेने का फैसला किया, ये अटकलें शुरू हो गईं कि अब बीजेपी उन्हें कन्नौज से खड़ा करेगी.
पिता भी रहे हैं सूबे के आला पुलिस अफसर
असीम अरुण के पिता श्रीराम अरुण वर्ष 1997 में तब उत्तर प्रदेश के डीजीपी रहे थे, जब उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे. अगस्त 2018 में श्रीराम अरुण का निधन हो गया. उन्हीं की सलाह पर उत्तर प्रदेश में यूपी स्पेशल टास्क फोर्स गठित की गई थी.
राम बहादुर एक जमाने में मायावती के खास रहे हैं
राम बहादुर पूर्व आईएएस रहे हैं. उन्हें बीएसपी सप्रीमो मायावती के करीब माना जाता था. लखनऊ प्राधिकरण के वायस चेयरमैन रहने के दौरान उन्होंने कुछ कड़े फैसले लिए थे, जिसमें अवैध अतिक्रमण हटवाना भी शामिल था. वह कांशीराम द्वारा स्थापित आल इंडिया बैकवर्ड एंड माइनारिटी कम्युनिटीस एम्पलाई फेडरेशन के सदस्य भी रहे हैं. राम बहादुर वास्तव में मोहनलाल गंज से वर्ष 2017 में बीएसपी उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ चुके हैं लेकिन उन्हें जीत नहीं मिल पाई थी.
पूर्व डीजीपी बृजलाल के सियासत में आने से प्रेरणा मिली
अरुण की तरह पूर्व आईपीएस बृजलाल ने भी बीजेपी के 2017 में सत्ता में आने के बाद इस पार्टी को ज्वाइन किया था. माना जाता है कि अरुण ने शायद बृजलाल के राजनीति में आने के बाद ही खुद का भी सियासत में जाने का मन बनाया. बृजलाल फिलहाल राज्यसभा सदस्य हैं. पासी दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाले बृजलाल 2010-12 यूपी पुलिस के डीजीपी थे. तब सूबे की मुख्यमंत्री मायावती थीं. उनकी छवि एक कड़़क पुलिस अधिकारी के साथ एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की रही है.
इनाम के तौर पर मिला राज्यसभा का टिकट
कहा जाता है कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तब बृजलाल के लगातार संपर्क में थे जब उन्होंने यूपी में अपराधियों और माफियाओं के खिलाफ बड़ा अभियान छेड़ा था. हालांकि योगी की इस ठोको पॉलिसी का विपक्षी दलों ने विरोध भी किया. इसके बाद बृजलाल को राज्य एसटी एससी कमीशन का चेयरमैन बनाया गया.इसके बाद 2020 में उन्हें राज्यसभा का टिकट मिला.
आईएएस अरविंद शर्मा वीआरएस लेकर पॉलिटिक्स में उतरे
इसी तरह का मामला गुजरात कैडर से आईएएस अफसर अरविंद शर्मा का भी है. वह 1988 बैच के आईएएस अफसर हैं. जिन्होंने वीआरएस लेकर पिछले साल बीजेपी ज्वाइन की. उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करीबी माना जाता है. जब मोदी गुजरात में सीएम थे, तब उन्होंने उनके साथ काम किया था. फिर उन्होंने पीएमओ में काम किया. शर्मा मऊ के रहने वाले हैं. शर्मा को तभी उत्तर प्रदेश विधानपरिषद का सदस्य बना दिया गया था. बाद में उन्हें यूपी बीजेपी का उपाध्यक्ष बनाया गया. वह प्रधानमंत्री की बनारस संसदीय सीट पर सक्रिय रहे हैं.
सत्यपाल बागपत से जीतते रहे हैं
2014 में लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने मुंबई के पूर्व पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह को बागपत से टिकट दिया था. उन्होंने तब लोकदल के प्रमुख अजित सिंह को कम से कम दो लाख वोटों से हरा दिया था.उसके बाद उन्हें जूनियर मिनिस्टर भी बनाया गया. इसके बाद 2019 में भी वह इसी सीट से लोकसभा का चुनाव जीते. इस बार उन्होंने अजित सिंह के बेटे जयंत सिंह को हराया.
क्या हो सकती है इसकी वजह
इसकी वजह आखिर क्या है जो आला अफसर नौकरी छोड़कर या फिर वीआरएस लेकर सियासत में दाखिल हो रहे हैं. शायद नौकरी के दौरान इन आला अफसरों की नजदीकियां जब सूबे के मुख्यमंत्री से बढ़ती हैं तो सियासत उन्हें ज्यादा ताकतवर क्षेत्र के तौर पर नजर आने लगता है. उन्हें नौकरी की तुलना में सियासत में दूसरी पारी ज्यादा महत्व वाली भी लगती है. शायद इसकी वजह ये भी है कि प्रदेश की राजनीति में अब तक जो आईएएस या आईपीएस अफसर पैराट्रूप की तरह उतरे, उन्हें राजनीति में पद और महत्व भी मिला.
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