विधि विशेषज्ञों के मुताबिक आज कल डॉक्टर घटनास्थल पर जाकर खुले में पोस्टमार्टम नहीं करते. मोर्चरी के अंदर सूर्य की रोशनी का कोई मतलब नहीं है. ऐसे में इस तर्क को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए कि सूर्य की रोशनी के बिना पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में गड़बड़ होने की संभावना है.
Post Mortem Procedure and Legal Complications: पोस्टमार्टम को लेकर आज भी देश में ब्रिटिशकाल के पुराने कानून कायदों का पालन किया जा रहा है. पहले संसाधनों के अभाव में समय की मांग के अनुसार बनाया गया यह कानून आज पीड़ादायक साबित हो रहा है.
जोधपुर. हत्या, सड़क या अन्य हादसे में किसी व्यक्ति की मौत हो जाने के बाद उसके शव का पोस्टमार्टम (Post mortem) बेहद जरुरी है. लेकिन पोस्टमार्टम की कानूनी प्रक्रिया (Legal process) को लेकर आजादी से पहले बने नियम आज भी प्रचलित हैं. ये नियम इतने पुराने हो चुके हैं कि आज वे पीड़ादायक हो गए हैं. इसकी पीड़ा को वो ही जानता है कि जो इससे गुजरता है. कानून के बंधन में बंधी पुलिस और डॉक्टर भी चाहकर ऐसे पीड़ादायी समय में पीड़ित परिवार के सहायता नहीं कर पाते हैं.
पोस्टमार्टम के लिए सन1898 में ब्रिटिश सरकार ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-174 बनाई थी. यह ऐसा समय था जब सभी जगह बिजली नहीं होती थी. तब कई भ्रांतियों और अंध विश्वास भी थे. तब सूर्य की रोशनी में ही पोस्टमार्टम करना संभव था. चिकित्सक रात के समय शव के पास जाने से डरते थे. इसके चलते इस प्रकार के नियम बनाए गए.
1974 में इन नियमों में आंशिक संशोधन किया गया था
आज भी कमोबेश उन्हीं नियमों को फॉलो किया जाता है. हालांकि साल 1974 में इन नियमों में आंशिक संशोधन किया गया था लेकिन वह दिखावा मात्र साबित हुआ. किसी व्यक्ति की मौत हो जाए और पोस्टमार्टम की आवश्यकता है और सूर्यास्त हो चुका है तो स्थितियां गंभीर हो जाती है. क्योंकि नियमानुसार रात को पोस्टमार्टम (अपवाद को छोड़कर) नहीं किया जा सकता है. भले ही मृतक की देह को सैकड़ों किलोमीटर दूर ले जाना हो. ऐसे में सूर्य उदय होने के इंतजार के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता है.
1974 में इन नियमों में आंशिक संशोधन किया गया था
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यह है पोस्टमार्टम के नियम
विधि विशेषज्ञ वरिष्ठ अधिवक्ता सुखदेव व्यास बताते हैं कि सन 1898 में ब्रिटिश सरकार के डॉक्टरी अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा-174 में पोस्टमार्टम को लेकर नियम हैं.. इसमें साल 1974 में संशोधन किया गया लेकिन यह संशोधन नाम मात्र था. उसके अनुसार किसी व्यक्ति की दुर्घटना में मृत्यु या किसी के द्वारा हत्या कर दिए जाने के बाद संबंधित क्षेत्र के पुलिस अधिकारी इस बात की सूचना डॉक्टर को देंगे. डॉक्टर घटनास्थल पर आकर दो साक्षी की उपस्थिति में सूर्य की रोशनी में पोस्टमार्टम करेगा. लेकिन आजकल ऐसा नहीं होता. अब दुर्घटना या हत्या के बाद मृतक के शव को मोर्चरी में रखवा दिया जाता है. बंद कमरे में बिना किसी साक्षी के पोस्टमार्टम कर दिया जाता है. यह कानूनन गलत है.
यह है पोस्टमार्टम के नियम
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सूर्यास्त के बाद इसलिए नहीं होता पोस्टमार्टम
वरिष्ठ अधिवक्ता सुखदेव व्यास ने बताया कि पहले सभी जगह बिजली नहीं होती थी. रोशनी के लिए या तो मशालें जलाई जाती थी या पीले बल्ब जलाए जाते थे. उनमें किसी व्यक्ति को लगी चोट का रंग लाल की जगह बैंगनी नजर आता था. इसके अलावा तत्कालीन समय में अंधविश्वास बहुत ज्यादा था और लोगों का ऐसा मानना था कि रात में मृतक के शरीर में आत्मा वापस आ जाती है. भूत प्रेत की अफवाहों के चलते डॉक्टर रात को शव के पास नहीं जाते थे. सुखदेव व्यास ने बताया कि आज कल डॉक्टर घटनास्थल पर जाकर खुले में पोस्टमार्टम नहीं करते. मोर्चरी के अंदर सूर्य की रोशनी का कोई मतलब नहीं है. ऐसे में इस तर्क को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए कि सूर्य की रोशनी के बिना पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में गड़बड़ होने की संभावना है.
सूर्यास्त के बाद इसलिए नहीं होता पोस्टमार्टम
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मृत देह के भी हैं अधिकार
उन्होंने कहा कि किसी भी मृतक के भी मानवीय अधिकार होते हैं. मृतक देह का अधिकार है कि मृत्यु के पश्चात जल्द से जल्द उसका अंतिम संस्कार कर दिया जाए. उन्होंने कहा कि वैसे भी किसी भी व्यक्ति की मृत्यु के बाद जितनी जल्दी पोस्टमार्टम किया जाता है उतनी ही सटीक रिपोर्ट आती है. ऐसे में इस कानून में बदलाव करके रात में भी पोस्टमार्टम करना शुरू करना चाहिए.
मृत देह के भी हैं अधिकार
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रात में इन स्थितियों में होता है पोस्टमार्टम
जोधपुर के महात्मा गांधी अस्पताल में कार्यरत फॉरेंसिक मेडिकल डिपार्टमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉक्टर बिनाका गांधी ने बताया कि डॉक्टर को यह अधिकार नहीं है कि वह सूर्यास्त के बाद किसी का पोस्टमार्टम करे. लेकिन मजिस्ट्रेट या जज के आदेश के बाद ऐसा करना संभव है. उन्होंने खुद इस तरह के आदेश पर रात को पोस्टमार्टम किया था. उन्होंने बताया कि यह बात सही है कि पहले पीले बल्ब आते थे जिनमें रंग को लेकर कन्फ्यूजन होता था. लेकिन साथ में उनका यह भी मानना है कि अब समय बदल चुका है और तकनीक इतनी विकसित हो गई है कि विभिन्न प्रकार की एलईडी लाइट और सफेद रंग की लाइट आ गई है. इनमें यह कंफ्यूजन नहीं होता है. ऐसे में इस कानून में बदलाव की ज़रुरत है. उन्होंने कहा कि जब किसी के शव को दूसरे जिले या दूसरे गांव में ले जाना होता है तब मृतक के परिजनों के लिए यह इंतजार बहुत तकलीफदेह होता है.
रात में इन स्थितियों में होता है पोस्टमार्टम
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इन तकलीफों से गुजरना पड़ता है लोगों को
रात में पोस्टमार्टम नहीं होने के चलते ऐसी ही पीड़ा से गुजर चुके जोधपुर के इन्द्र सिंह गहलोत ने बताया कि उनका बीटा और उसके दो साथी दुर्घटना में घायल हो गए थे. उसके बाद उन्हें अस्पताल ले जाया गया. वहां तीनों को डॉक्टर्स ने मृत घोषित कर दिया. लेकिन तब तक सूर्य अस्त हो चुका था. डॉक्टर्स ने पोस्टमार्टम करने से इंकार कर दिया. उन्होंने डॉक्टर को बताया कि एक शव को भीलवाड़ा ले जाना है लेकिन डॉक्टर नहीं माने. उसके बाद दूसरे दिन तीनों का पोस्टमार्टम हुआ. इन्द्र सिंह गहलोत के पुत्र का तो जोधपुर में दूसरे दिन दाह संस्कार हो गया था लेकिन भीलवाड़ा निवासी व्यक्ति अपने पुत्र को लेकर देर रात घर पहुंचा. इसके चलते तीसरे दिन उसका अंतिम संस्कार किया गया. तब तक पूरे परिवार ने भोजन नहीं किया क्योंकि हिंदू मान्यता के अनुसार जिस घर में मृत्यु हो जाती है वहां जब तक अंतिम संस्कार नहीं होता तब तक घर का कोई सदस्य भोजन नहीं करता.
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