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इस मेले में दिखता है कुंभ का छोटा रूप, माता के दर्शन को आते हैं लाखों श्रद्धालु

करौली के कैलादेवी माता मंदिर के दरबार में चैत्र नवरात्र में लगने वाले लक्खी मेले में कुंभ का छोटा रूप दिखता है.

करौली के कैलादेवी माता मंदिर के दरबार में चैत्र नवरात्र में लगने वाले लक्खी मेले में कुंभ का छोटा रूप दिखता है.

Kailadevi Mandir Chaitra Navratri Lakkhi Mela: करौली के कैलादेवी माता मंदिर के दरबार में चैत्र नवरात्र में लगने वाले लक ...अधिक पढ़ें

करौली. जिला मुख्यालय से करीब 23 किलोमीटर दूर उत्तर भारत का प्रसिद्ध कैलादेवी आस्था धाम प्रमुख शक्ति पीठों में शुमार माना जाता है. यूं तो माता के दर्शन के लिए पूरे देशभर से श्रद्धालु पहुंचते हैं, लेकिन विशेष तौर पर राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा राज्यों से श्रद्धालु अधिक आते हैं. इस मंदिर का इतिहास लगभग 1100 वर्ष प्राचीन है. अरावली पर्वत शृंखलाओं के मध्य त्रिकूट पर्वत पर विराजमान मां कैलादेवी की मुख्य प्रतिमा के साथ मां चामुण्डा की प्रतिमा भी मंदिर में विराजमान है.

कैलादेवी के दर्शनों के लिए वर्षभर यहां न केवल राजस्थान बल्कि उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात, दिल्ली, हरियाणा आदि प्रांतों से लाखों श्रद्धालुओं की आवाजाही बनी रहती है. चैत्र माह में माता के दरबार में लक्खी मेला भरता है. एक पखवाड़े से अधिक चलने वाले मेले में ही करीब 40 लाख श्रद्धालु माता के दर्शनों को पहुंचते हैं. मेले में भक्तों की विकराल संख्या देख लघु कुंभ सा नजारा देखने को मिलता है.

मंदिर का इतिहास 1100 वर्ष पुराना
इतिहासकारों के अनुसार कैलादेवी प्रतिमा की स्थापना 1114 ई. में महात्मा केदार गिरि द्वारा किए जाने के बाद 1116 ई. में इस क्षेत्र के तत्कालीन खींची राजा मुकुन्द दास द्वारा लघु मंदिर का निर्माण कराया गया था. 1153 ई. में रघुनाथ दास खींची ने मंदिर का विस्तार कराया. इसके बाद मंदिर का और विस्तार राजा गोपालसिंह ने 1753 में कराया. मंदिर की सार-संभाल का कार्य करौली के यदुवंशी शासकों के द्वारा कराया जाने लगा. वर्तमान में इस लंबे-चौड़े परिसर में मां का भव्य मंदिर है. चैत्र नवरात्रि में घट स्थापना के समय धारण कराई पोशाक को अष्टमी पूजन के बाद बदला जाता है. घट स्थापना के समय माता को बरसो पुराने आभूषण भी धारण कराए जाते हैं. ऐसी मान्यता है कि राक्षस से वध के कारण माता क्रोधित हो गई थी. उन्हें शांत करने के लिए ही नवरात्रि पूजन और अनुष्ठान होता है. इसलिए घटस्थापना के बाद अष्टमी तक माता के वस्त्र आभूषण और शृंगार नहीं बदला जाता. अष्टमी पूजन के बाद माता को नई पोशाक धारण कराई जाती है.

शुभ कार्यों में किए जाते दर्शन
कैलादेवी माता के दर्शनों के लिए यूं तो सभी श्रद्धालु आते हैं, लेकिन मान्यता है कि घर में पुत्र की शादी, पुत्र के जन्म के बाद कैलादेवी में नव विवाहित जोड़े द्वारा माता की धोक लगाने आवश्यक रूप से आते हैं. वहीं बच्चों का जन्म के बाद प्रथम मुंडन संस्कार भी कैलादेवी में ही कराया जाता है. चैत्र नवरात्र मेले के दौरान महिला यात्री सुहाग के प्रतीक के रूप में हरे रंग की चुडियां एवं सिंदूर की आवश्यक रूप से खरीदारी करती हैं.

गूंजते हैं लांगुरिया गीत
मंदिर परिसर सहित कस्बे के विभिन्न स्थानों पर लांगुरिया गीतों की खूब धूम रहती है. माता की भक्ति से ओतप्रोत श्रद्धालु ढोल-नगाड़ों पर गूंजते लांगुरिया गीतों के बीच महिला हो चाहे पुरुष खूब नृत्य करते नजर आते हैं. भैरव को माता के भक्त के रूप में लांगुरिया कहा जाता है. माता के दर्शन के बाद लांगुरिया पूजन की परंपरा है. इसी प्रकार माता के एक प्रसिद्ध भक्त बोहरा भगत का भी परिसर में ही मंदिर है. माता दर्शन के बाद बोहरा भगत के दर्शन किए बगैर कैला माता की जात अधूरी मानी जाती है.

600 से अधिक धर्मशालाएं
आस्था धाम कैलादेवी कस्बे में 600 से अधिक धर्मशालाएं हैं, इनमें से अधिकांश धर्मशालाओं का निर्माण मां के भक्तों द्वारा यहां आने वाले श्रद्धालुओं की सुविधा के मद्देनजर कराया गया है. भक्तों की संख्या का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चैत्र मेले में 600 से अधिक धर्मशालाएं श्रद्धालुओं से अटी रहती हैं, वहीं कस्बे में चारों ओर भक्तों की भीड़ नजर आती है.

320 रोडवेज बसें, 1250 पुलिस जवान
एक पखवाड़े तक चलने वाले मेले में इस बार राजस्थान रोडवेज की ओर से 320 बसें लगाई गई हैं, जबकि सुरक्षा की दृष्टि से कस्बे में 1250 सुरक्षा जवान तैनात हैं. धार्मिक-सामाजिक संगठनों की ओर से जिले की सूरौठ के समीप की सीमा से कैलादेवी तक करीब के 75-80 किलोमीटर के दायरे में कई दर्जन भंडारे, विश्राम स्थल लगाए जाते हैं.

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