एओ ह्यूम से जुड़ी एक दिलचस्प कहानी.
इटावा. महाभारत कालीन सभ्यता से जुड़े उत्तर प्रदेश के इटावा की चंबल घाटी में 17 जून 1857 की स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस सस्थापंक एओ ह्यूम (Allan Octavian Hume) जान बचाने साड़ी पहनकर छिपे रहे. इटावा के हजार साल और इतिहास के झरोखे में इटावा नाम की ऐतिहासिक पुस्तकों में दर्ज ह्यूम के बारे में इन अहम बातों का उल्लेख करते हुए केकेपीजी कॉलेज के इतिहास विभाग के प्रमुख डॉ.शैलेंद्र शर्मा ने एक विशेष भेट में न्यूज18 को बताया कि ह्यूम को उत्तर प्रदेश के इटावा में आजादी के जंग के सिपाहियों से जान बचाने के लिए साड़ी पहनकर ग्रामीण महिला का वेश धारण कर भागना पड़ा था. आजादी के संघर्ष के दरम्यान ह्यूम को मारने के लिए सेनानियों ने पूरी तरह से घेर लिया था. तब ह्यूम ने साड़ी पहन कर अपनी पहचान छुपाई थी. एओ यूम तब इटावा के कलक्टर हुआ करते थे.
डॉ.शैलेंद्र शर्मा ने बताया कि ह्यूम 1849 में भारत आए थे. वो ब्रिटिश सरकार के कर्मचारी थे. इसलिए उन्हें भारत में पोस्टिंग दी गई थी. भारत आते ही उन्हें बंगाल सिविल सर्विस के तहत उत्तर-पश्चिम प्रोविंस के इटावा जिले में भेजा गया. अब यह जिला उत्तर प्रदेश में आता है. यहां 1849 से लेकर 1867 तक वो जिला अधिकारी रहे. उनके कार्यकाल के दौरान ही 1857 में भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा. इटावा से कुछ दूर स्थित मेरठ में ही सैनिकों का पहला विद्रोह हुआ था.
ह्यूम से जुड़ी कहानी
डॉ. शैलेंद्र शर्मा बताते हैं कि सैनिकों ने ह्यूम और उनके परिवार को मार डालने की योजना बनाई. इसकी भनक लगते ही 17 जून 1857 को ह्यूम महिला के वेश में गुप्त ढंग से इटावा से निकल कर बढ़पुरा पहुंच गए और सात दिनों तक छिपे रहे. एलन आक्टेवियन यूम यानि एओ ह्यूम को वैसे तो आम तौर पर सिर्फ कांग्रेस के संस्थापक के तौर पर जाने और पहचाने जाते है. लेकिन एओ ह्यूम की कई पहचान रही है.
उन्होंने बताया कि अपनी जान बचाए जाने का पाठ ह्यूम कभी नहीं भूले. ह्यूम न बचते अगर उनके साथियों ने उनको चमरौधा जूता न पहनाया होता. सिर पर पगड़ी न बांधी होती और महिला का वेश धारण कर सुरक्षित स्थान पर न पहुंचाया होता. ह्यूम ने इटावा से भाग कर आगरा के लालकिले में शरण ली. ह्यूम के भारतीय वफादार सहयोगियों ने मदद कर उनकी जान बचाई. कहा जाता है कि आजादी के संधर्ष के दरम्यान ह्यूम को मारने के लिए सेनानियों ने पूरी तरह से घेर लिया था. तब ह्यूम ने साड़ी पहन कर अपनी पहचान छुपाई थी. एओ ह्यूम तब इटावा के कलक्टर हुआ करते थे.
1912 में इटावा के रहने वाले शिमला के संत डॉ.श्रीराम महरौत्रा लिखित पुस्तक ” लक्षणा “ का हवाला देते हुए चंबल अकाईब के मुख्य संरक्षक किशन महरौत्रा बताते है कि 1856 से 1867 तक इटावा के कलेक्टर रहे ह्यूम कुशल लोकप्रिय सुधारवादी शासक के रूप में ख्याति पाई. 1857 में गदर हो गया. लगभग पूरे उत्तर भारत से अंग्रेज शासन लुप्त हो गया. आज के वक्त में यह विश्वास करने वाली बात नहीं मानी जाएगी कि एक भी अंग्रेज अफसर उत्तर भारत के किसी भी जिले में नहीं बचा. सब अपनी-अपनी जान बचा भाग गए या फिर छुप गए. लखनऊ की रेजीडेंसी या आगरा किले में छुप गए. अपने परिवार के साथ लंबे समय तक आगरा में रहने के बाद 1858 के शुरूआत में हयूम भारतीय सहयोगियों की मदद से इटावा वापस आकर फिर से अपना काम काज शुरू किया.
इटावा में स्थानीय रक्षक सेना के गठन की भी बड़ी दिलचस्प कहानी है. 1856 में एओ ह्यूम इटावा के कलेक्टर बन कर आये. कुछ समय तक यहां पर शांति रही. डलहौजी की व्ययगत संधि के कारण देशी राज्यों में अपने अधिकार हनन को लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी के विरद्ध आक्रोश व्याप्त हो चुका था. चर्बी लगे कारतूसों क कारण 6 मई 1857 में मेरठ से सैनिक विद्रोह भड़क था. उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली से लगे हुए अन्य क्षेत्र ईस्ट इंडिया कंपनी ने अत्यधिक संवेदनशील घोषित कर दिए थे. ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में भारतीयों की संख्या भी बड़ी मात्रा में थी. ह्यूम ने इटावा की सुरक्षा व्यवस्था को घ्यान में रख कर शहर की सड़कों पर गश्त तेज कर दी थी. 16 मई 1857 की आधी रात को सात हथियारबंद सिपाही इटावा के सड़क पर शहर कोतवाल ने पकड़े. ये मेरठ के पठान विद्रोही थे और अपने गांव फतेहपुर लौट रहे थे. कलक्टर ह्यूम को सूचना दी गई और उन्हें कमांडिंग अफसर कार्नफील्ड पर गोली चला दी. लेकिन वो बच गया. विद्रोहियों ने कार्नफील्ड पर गोली चला दी लेकिन वह बच गया. इस पर क्रोधित होकर उसने चार को गोली से उड़ा दिया परन्तु तीन विद्रोही भाग निकले.
इटावा में 1857 के विद्रोह की स्थिति भिन्न थी. इटावा के राजपूत विद्रोहियों का खुलकर साथ नहीं दे पा रहे थे. 19 मई 1857 को इटावा आगरा रोड पर जसवंतनगर के बलैया मंदिर के निकट बाहर से आ रहे कुछ सशस्त्र विद्रोहियों और गश्ती पुलिस के मध्य मुठभेड हुई. विद्राहियों ने मंदिर के अंदर धुस कर मोर्चा लगाया. कलेक्टर हयूम और ज्वाइंट मजिस्ट्रेट डेनियल ने मंदिर का घेरा डाल दिया. गोलीबारी में डेनियल मारा गया और ह्यूम वापस इटावा लौट आये जब कि पुलिस घेरा डाले रही लेकिन रात को आई भीषण आंधी का लाभ उठा कर विद्रोही भाग गए.
एओ ह्यूम की देशी पलटन को बढ़पुरा की ओर रवाना करने के निर्देश दिया गया. इस पलटन के साथ इटावा में रह रहे अंग्रेज परिवार भी थे. इटावा के यमुना तट पर पहुंचते ही सिपाहियों को छोड़कर बाकी सभी इटावा वापस लौट आए. इसी बीच ह्यूम ने एक दूरदर्शी कार्य किया कि उन्होंने इटावा में स्थित खजाने का एक बड़ा हिस्सा आगरा भेज दिया था तथा शेष इटावा के ही अंग्रेजो के वफादार अयोध्या प्रसाद की कोठी में छुपा दिया था. इटावा के विद्रोहियों ने पूरे शहर पर अपना अधिकार कर लिया और खजाने में शेष बचा चार लाख रूपया लूट लिया. इसके बाद अंग्रेजों को विद्रोहियों ने इटावा छोड़ने का फरमान दे दिया.
इटावा में अपने कलेक्टर कार्यकाल के दौरान ह्यूम ने अपने नाम के अंग्रेजी शब्द के एचयूएमई के रूप में चार इमारतों का निर्माण कराया जो आज भी ह्यूम की दूरदर्शिता की याद दिलाते है.
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