इत्रदान बनाते कारीगर
रिपोर्ट: अंजली शर्मा
Kannauj News: कन्नौज अपने इत्र के व्यापार के लिए देशभर में जाना जाता है. यहां बने इत्र की डिमांड विदेशों तक है. कहा जाता है कि कन्नौज की गलियों की मिट्टी से भी इत्र की महक आती है. यहां के सैकड़ों साल पुराने इत्र की खुशबू को उसकी सुंदरता बढ़ाने का काम कन्नौज में बने इत्रदान बखूबी कर रहे थे. लेकिन जैसे-जैसे समय बढ़ता जा रहा, उसकी सुंदरता में कमी आती जा रही है.
शहर में महज गिने-चुने कारीगर ही हाथों से निर्मित इत्र दान का काम कर रहे हैं. इसकी मांग पहले देश विदेशों में थी लेकिन अब मशीनों से बने बक्सों ने इस पर बहुत प्रभाव डाला है. अब इस इत्र दान को बनाने में बहुत सारी समस्याओं का सामना उन कारीगरों को करना पड़ रहा. आज हम आपको बताएंगे कि ऐसे कौन से कारण हैं जिनके चलते कन्नौज का इत्रदान व्यापार पिछड़ता जा रहा है.
क्या-क्या आ रही समस्या
इत्र दान कारीगर पप्पू और उनके भाई बताते है कि करीब 150 से 200 साल पुराने इस कारोबार को उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी कर रही है. लेकिन बीते कुछ समय से यह काम कम होता जा रहा. काम के सही दाम भी नही मिलते और न ही इत्र दान बनाने वाली लकड़ी मिल पाती है. इत्र दान बनाने वाला सभी सामान लगातार महंगा हो रहा है.
इस एक इत्र दान को बनाने में 3 दिनों का वक्त लगता है. इत्र दान पूरा हाथ से ही बनाया जाता है इत्र दान के ऊपर कारीगरी कर तारो से नामो को लिखा जाता है और अच्छी अच्छी डिजाइन भी दी जाती है. जिसमे बहुत मेहनत और समय लग जाता है. इसकी मांग पहले देश विदेशों में थी लेकिन अब मशीनों से बने बक्सों ने इस पर बहुत प्रभाव डाला है. लोग सस्ते के चलते बाहर से आने वाले इन इत्र दानों को लेते है.
किसी भी मशीन का नही होता है प्रयोग
कन्नौज में इत्रदान को बनाने के लिए कारीगर किसी भी मशीन का इस्तेमाल नहीं करते हैं इत्रदान पूरा हाथों से ही बनाया जाता है. इत्रदान में शीशम की लकड़ी का प्रयोग होता है इसको काटकर बॉक्स का स्वरूप दिया जाता है. इसके बाद उसमें हाथों से कारीगरी करके सुंदर बनाया जाता है.
कन्नौज का इत्रदान पूरे देश मे भेजा जाता है. लेकिन अब प्लास्टिक के इत्रदान बनकर आने लगे जोकि सस्ते पड़ते है और कन्नौज में लकड़ी का हाथों से बना इत्रदान महंगा पड़ता है. जिस कारण अब इसकी मांग भी कम पड़ गई. कन्नौज की प्राचीन कला अब विलुप्त होने की कगार पर है.
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