रिपोर्ट- अंजलि सिंह राजपूत
लखनऊ. अवध के नवाब मोहम्मद अली शाह ने 1837 में छोटे इमाम बाड़े के निर्माण के बाद वहां पर शाही रसोई शुरू करवाई थी. जिसमें वेज खाने की दावत होती थी. सभी धर्मों के लोग इसमें शामिल होते थे. खास बात यह है कि आज 186 साल बीत जाने के बाद भी यह रसोई चल रही है. रमजान के महीने में इस रसोई में 24 घंटे खाना पकाया जाता है. एक दिन में 50 किलो पकौड़ी बनती है. कई किलो रोटियां बनती है. इतना ही नहीं यहां पर चने की दाल और आलू की सब्जी भी बड़ी मात्रा में बनाई जाती है. आर्थिक रूप से कमजोर मुस्लिम रोजेदार जो इफ्तारी नहीं कर पाते हैं उन्हें यहां पर मुफ्त में खाना खिलाया जाता है.
खास बात यह है कि रोजेदार यहां से खाने को पैक करा कर घर ले जाते हैं और वहीं पर अपने परिवार के साथ इफ्तारी करते हैं. किसी भी रोजेदार को रोका नहीं जाता है, जितनी उनकी मांग होती है. उतना ही खाना उन्हें दिया जाता है. सुबह के 11 बजे से यहां पर खाना मिलना शुरू होता है, जो शाम को इफ्तारी के वक्त तक चालू रहता है. इतिहासकार डॉ. रवि भट्ट ने बताया कि मोहम्मद अली शाह ने छोटे इमाम बाड़े के निर्माण के बाद जब अंग्रेजों के पास 26 लाख जमा कराए थे. इमाम बाड़े के निर्माण के लिए, अंग्रेजों के शासन के बाद यह पैसा हुसैनाबाद ट्रस्ट में चला गया.जिसके जरिए रसोई चलाई जा रही है. इस रसोई की शुरूआत नवाब ने ही की थी.
मस्जिदों में भी भेजा जाता है खाना
यहां के सेवादार मुर्तुजा हुसैन उर्फ राजू ने बताया कि यह नवाबों के वक्त की रसोई है. इसे शाही रसोई कहते हैं. 24 घंटे यह खुली रहती है. खाना एकदम शाकाहारी होता है. शुद्ध होता है. निशुल्क रोजेदारों को दिया जाता है. शाकाहारी होने के चलते सभी धर्मों के लोग यहां आते हैं और निशुल्क खाना खाते हैं. यहां से हुसैनाबाद ट्रस्ट में आने वाली मस्जिदों में भी खाने को भेजा जाता है शाम के वक्त इफ्तारी के लिए ताकि कोई भी भूखा न रहे.
लगती है लंबी लाइन
हैदर रजा ने बताया कि वह यहां पर रोज खाना खाने आते हैं. रमजान के महीने में यहां पर लंबी लाइन लगती है. लोग अपना खाना पैक करके ले जाते हैं और घर पर खाते हैं. खाने का स्वाद भी बहुत अच्छा होता.
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