स्मिता मिश्रा
(लेखक प्रसार भारती की सलाहकार हैं.)
कुछ भी बोलो तुम लोग, तुम सब के घर में लैटरीन बन गए कि नहीं? लगभग 75 साल के कर्मवीर सिंह इतना कहकर चुप हो जाते हैं. उनकी धीमी आवाज में कही गई बात से जैसे पिछले बीस मिनट से चली आ रही गर्मा-गर्म बहस पर ठंडा पानी पड़ जाता है. हां ताउ, वो तो बन गए. हां, हां. सही बात है. बिल्कुल, बिल्कुल.
दरअसल अब तक चर्चा उन मामलों पर केंद्रित थी जो इन दिनों खबरों की सुर्खियां बनी हुई हैं. पाकिस्तान की सीमा में घुसकर भारतीय वायु सेना की एयरस्ट्राइक, कश्मीर में सुरक्षाबलों पर हमले, गन्ना किसानों के भुगतान का मुद्दा और सपा-बसपा गठबंधन में वोट ट्रांसफर को लेकर गुणा-भाग. बहस का वॉल्यूम कुछ ज्यादा ही ऊंचा होता जा रहा था. युवा पाकिस्तान पर कार्रवाई को लेकर बेहद गर्मजोशी में थे और कह रहे थे कि
मोदी ने वो नेतृत्व दिखाया जो किसी ने नहीं दिखाया. किसी ने इंदिरा गांधी का नाम लिया लेकिन दूसरे सुनने को तैयार नहीं थे. उधर, कुछ मोदी विरोधी गांववाले सपा व बसपा के कोर वोट का गणित समझाने में लगे थे. ऐसे में कर्मवीर सिंह की बात पर एकदम से सहमति का वातावरण बन गया.
अमरोहा लोकसभा के एक छोर पर बसे एक कस्बे का यह दृश्य अनोखा नहीं है. दरअसल बड़ी-बड़ी, सुर्खियां बटोरने वाले, तथाकथित राजनीतिक मुद्दों के शोरगुल के बीच जो बात महिलाओं के मन-मस्तिष्क में सबसे ऊपर है उसका कोई जिक्र नहीं हो रहा. उन घरों में शौचालयों का बन जाना जहां कभी यह सुविधा नहीं रही. लेकिन इसका अंदाजा लगाना राजनीतिक पंडितों के लिए आसान नहीं है. गांव-देहात में चौपाल पर, दुकानों के इर्द-गिर्द और पेड़ों के नीचे जो गर्मा-गर्म बहस होती है, उसका हिस्सा महिलाएं कभी नहीं होतीं. वहां तो पार्टियों की प्रचार करने वाली टोली में भी महिलाओं की संख्या न के बराकर होती है. महिलाओं का प्रचार तो शहरी इलाकों में ही ज्यादातर सीमित रहता है या हाइवे के करीब वाले गांवों तक.
ऐसे में महिला मतदाताओं के वोटिंग प्रेफरेंस पर कौन माथापच्ची करे? लेकिन अब जबकि महिलाओं का मतदान प्रतिशत काफी बढ़ गया है तो इस सच्चाई को नजरअंदाज करना अन्याय है, और सच यह है कि गांवों में शौचालय निर्माण बदलाव की एक खामोश पटकथा तैयार कर रहा है. केवल उत्तर प्रदेश में पौने आठ लाख शौचालय बनाए जा चुके हैं.
बदायूं हो या अलीगढ़ या सहारनपुर, टॉयलेट की कथा सभी जगह एक जैसी ही है. शिक्षिका प्रतिमा चौधरी का कहना है कि जाट परिवारों में बच्चियों की इज्जत का मामला बेहद संवेदनशील होता है. लेकिन तब यह मामला क्यों नहीं होता जब शौचालय का सवाल हो? उनके मुताबिक, अब उनके गांव में हर परिवार के शौचालय बन गए हैं.
तीन तलाक पर भी है मंथन
चुपचाप परिवार के कहने पर मतदान करने वाली मुस्लिम महिलाएं अब धीरे-धीरे, धीमी आवाज में ही सही मौलवी और समाज के अन्य लोगों से यह सवाल करने लगी हैं कि
तीन तलाक को जारी रखना क्यों आवश्यक है? आखिर मोदी ने गलत क्या किया है? नगीना लोकसभा में स्थित एक गांव की मुस्लिम युवती कहती है कि वह अभी बीकॉम की पढ़ाई कर रही है और आगे चलकर वह कोई बड़ी सरकारी नौकरी करना चाहती है. इस युवती के मुताबिक, अब घर-घर बहस छिड़ गई है कि आखिर तीन तलाक को जारी रखना क्या वाकई इस्लामिक प्रैक्टिस है? यह पूछे जाने पर कि क्या इस बहस का प्रतिबिंब वोटिंग में दिखेगा, युवती कहती हैं, क्यों नहीं? कुछ तो कुछ असर तो दिख सकता ही है. आखिर हम किसे वोट दें, यह हमारी मर्जी है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं..)
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FIRST PUBLISHED : April 07, 2019, 18:09 IST