शामली. प्रदेश में विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां बढ़ने के साथ ही एक बार फिर कैराना सुर्खियों में है. सियासी ताप उस वक्त और बढ़ गया जब कैराना की सियासत में अहम स्थान रखने वाले हसन परिवार के नाहिद हसन को सपा ने अपना उम्मीदवार बना दिया. नामांकन के एक दिन बाद गैंगस्टर के एक मामले में उन्हें जेल भेज दिया गया. 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले उठा पलायन का मुद्दा भी दोबारा से सियासत के केंद्र में आ चुका है. पिछले चुनाव में पलायन के मुद्दे ने भाजपा को पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश तक भले ही फायदा पहुंचाया हो, लेकिन कैराना में इसका ठीक उलट हुआ. 2014 में इस सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा 1000 वोटों के मामूली अंतर से हारी थी, वहीं 2017 में भाजपा की लहर के बावजूद यह अंतर बढ़कर 21000 को पार कर गया था.
इस चुनाव में भी भाजपा की पूरी मशीनरी एक बार फिर से चुनावी मुकाबले को 2014 और 2017 के पिच पर ले जाने में जुटी है. गृह मंत्री अमित शाह ने भी कैराना से डोर टू डोर प्रचार की शुरुआत करके यही संदेश देने की कोशिश की है. किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले हमें कैराना के मिजाज को समझना होगा. जिसमें सिर्फ पलायन नहीं है. जातीय और सामाजिक समीकरणों की महीन बुनावट भी है. जिसे साधकर पलायन के मुद्दे को तूल देने वाले बाबू हुकुम सिंह ने पांच दशक तक यहां सियासत की थी. दरअसल इस सीट पर सवा लाख से भी अधिक मुस्लिम वोटर हैं. जिसमें गुर्जर मुस्लिमों की तादाद ज्यादा है. मुजफ्फरनगर दंगे और पलायन के मुद्दे से पहले तक यहां धर्म के बजाय जातीय चौहद्दियां अधिक मजबूत थीं. हुकुम सिंह और मुनव्वर हसन का परिवार भी गुर्जर बिरादरी से है.
परस्पर विरोधी दोनों ही परिवारों का गुर्जर बिरादरी में अच्छा प्रभाव है. जिसका इस्तेमाल कर हुकुम सिंह कैराना में लोकप्रियता की उस चोटी पर बैठे रहे, जहां पहुंचना हर सियासतदां का सपना होता है. वह कांग्रेस, पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह की जनता पार्टी सेकुलर और भाजपा से सात बार यहां से चुनकर विधानसभा पहुंचे. चार बार तो लगातार जीते थे. उन्हें अगर किसी ने चुनौती दी थी तो वह थे नाहिद के वालिद मुनव्वर हसन. जब 1991 और 1993 में हुकुम को मात देकर वह जीतने में सफल रहे थे. इसके बाद हुकुम सिंह कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए. भाजपा के कोर वोटरों के साथ अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर लगातार जीतते रहे.
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