उत्तराखंड की संस्कृति की शान उत्तरायणी मेले का मकर संक्रांति के त्योहार के साथ आगाज हो गया है. अपनी अलग पहचान लिए उत्तरायणी मेले में लोगों को न सिर्फ उत्तराखंड की संस्कृति और रीति रिवाजों से रुबरु होने का मौका मिलता है बल्कि कई सांस्कृतिक कार्यक्रम भी इस मेले में आयोजित होते हैं. पौराणिक धरोहरों को समेटे उत्तराखंड में काशी के नाम से मशहूर
अलग ही पहचान रखता है. सरयू, गोमती और विलुप्त सरस्वती के संगम तट पर बसे शिवनगरी बागेश्वर में हर साल मकर संक्रांति के दिन से आठ दिन का ये मेला लगता है. 1921 में अंग्रजों के कुली बेगार कुप्रथा का अंत भी उत्तरायणी के दिन बागेश्वर में ही हुआ था.
उत्तरायणी मेले के आगाज़ के मौके पर कैबिनेट मंत्री प्रकाश पंत और केंद्रीय राज्य मंत्री अजय टम्टा ने मेले में सरकारी स्टॉल्स और किसानों के उत्पादों की प्रदर्शनी का जायज़ा लिया. उत्तरायणी मेले में रंगारंग झांकियों में मदकोट का विशाल नगाड़े के साथ ही दारमा के कलाकारों का नृत्य, स्थानीय कलाकारों के ज़रिए पेश झोड़ा, चांचरी और कई स्कूलों के पेश किए गए भांगड़ा ने लोगों को आकर्षित किया. साथ ही झोड़ा-चांचरी पेश करती स्थानीय महिलाएं, रं समुदाय की महिलाएं, छोलिया नृतकों ने लोगों का मन मोह लिया.
उत्तरायणी मेले का इतिहास कुछ ये बताता है कि कुली बेगार का अंत उत्तरायणी मेले के दौरान 14 जनवरी 1921 में कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पाण्डे की अगुवाई में हुआ था. इसका प्रभाव सम्पूर्ण उत्तराखंड में था. कुमाऊं मण्डल में इस कुप्रथा की कमान बद्री दत्त पाण्डे जी के हाथ में थी. वहीं गढ़वाल मण्डल में इसकी कमान अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के हाथों में थी.
13 जनवरी 1921 को मकर संक्रांति के दिन दोबारा वृहत् सभा हुई और 14 जनवरी को कुली बेगार के रजिस्टरों को सरयू में प्रवाहित कर कुली बेगार का अंत किया गया. 28 जून 1929 को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने बागेश्वर की यात्रा की और ऐतिहासिक नुमाइशखेत में सभा कर इस अहिंसक आंदोलन की सफलता पर लोगों के प्रति कृतज्ञता जताई थी.
उत्तराखंड की संस्कृति और यहां के रीति रिवाजों को लोगों के दिलों में कायम रखने के लिए इस तरह के मेले आयोजित होना इसलिए भी ज़रुरी है, क्योंकि लोगों के बीच खत्म हो रही परंपराओं को इसके ज़रिए ज़िंदा रखा जा सकता है.
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FIRST PUBLISHED : January 14, 2019, 17:22 IST