टिहरी के जौनपुर में सवर्णों के साथ खाने के लिए बैठने की वजह से सवर्णों ने जितेंद्र दास की बुरी तरह पिटाई की थी जिससे उसकी मौत हो गई. जितेंद्र की मां बेटे के लिए इंसाफ़ मांग रही हैं.
दलित युवक की पिटाई और मौत के बाद भी कोई हलचल न होने की वजह क्या राज्य में दलित चेतना का अभाव है?
टिहरी में सवर्णों के साथ खाना खाने पर दलित युवक की पिटाई और मौत के बाद भी उत्तराखंड में आश्चर्यजनक सन्नाटा है. दलित युवक की मौत के 24 घंटे बाद बीजेपी, कांग्रेस तो छोड़िए बीएसपी से भी निंदा तक का बयान नहीं आया है. सिर्फ़ टिहरी के पूर्व विधायक और कांग्रेस के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने ही इस घटना को राज्य के लिए कलंक बताते हुए एक बयान जारी किया है. इस सन्नाटे की वजह क्या यह है कि राज्य में दलित चेतना का अभाव है?
वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा कहते हैं कि उत्तराखंड सवर्णों के बाहुल्य वाला प्रदेश है जिन्होंने अन्य जातियों को विकसित नहीं होने दिया. लेकिन पहाड़ में दलित चेतना इसलिए भी विकसित नहीं हो पाई क्योंकि यहां दलितों पर वैसे अत्याचार भी नहीं हुए जैसे अन्य जगह हुए. बहुगुणा कहते हैं कि सवर्णों को अपनी जाति का घमंड तो है लेकिन पहाड़ में आज भी दलितों को चाचा, बुआ, मामा कहकर संबोधित किया जाता है. वह समाज से पूरी तरह अलग-थलग या उस तरह तिरस्कृत नहीं हैं जैसे अन्य राज्यों में.
दलित नेता दौलत कुंवर इससे सहमत नहीं हैं. मौजूदा लोकसभा चुनाव में टिहरी से निर्दलीय प्रत्याशी कुंवर कहते हैं कि यहां दलितों को इतना डराया गया है, इतना प्रताड़ित किया गया है कि किसी का मुंह नहीं खुल रहा. वह पूछते हैं किसी शादी समारोह में कुर्सी पर बैठकर खाना खाने पर किसी दलित की हत्या कर दिए जाने से बड़ा अत्याचार क्या हो सकता है?
जितेंद्र दास की मौत के बाद जौनपुर के दलितों में गुस्सा है.
सामाजिक संस्था धाद के संस्थापक और अध्यक्ष लोकेश नवानी को इस घटनाक्रम और ख़ामोशी की वजहें बताते हैं. वह कहते हैं कि दलित युवक की मौत को लेकर कोई हलचल इसलिए नहीं है क्योंकि समाज दलितों के प्रति बहुत असंवेदनशील है. दलितों को मुख्यधारा में नहीं गिना जाता और न ही वह मुख्यधारा में हैं. इसके अलावा सामाचिक न्याय की ताकतें बहुत कमज़ोर हैं. उत्तराखंड का दलित वर्ग गरीब है, असंगठित है और हीन भावना से ग्रस्त है. राजनीतिक दलों भी उनके पक्ष में खड़े नहीं होते, उन्हें महत्व नहीं देते.
नवानी कहते हैं कि पहाड़ों में जाति भेद तो है लेकिन उसमें बहुत कड़वाहट नहीं है. यह बात भी ठीक है कि यहां दलितों को चाचा-मामा-दीदी-बुआ सम्मानजनक संबोधित भी किया जाता है लेकिन इसके पीछे की वजह आर्थिक भी है.
नवानी कहते हैं कि मैदानों के विपरीत पहाड़ों में दलित समाज गांव के सवर्णों पर निर्भर थे. वह मैदान में दलितों के लिए निर्धारित काम नहीं करते थे इसलिए गोलबंद भी नहीं हुए. वह सवर्णों के लिए छोटे-बड़े काम करते थे और उसके बदले में अनाज या ज़रूरत की दूसरी चीज़ें ले जाते थे. इसलिए उन पर वैसे अत्याचार नहीं हुए जैसे अन्य राज्यों में और इसीलिए संघर्ष भी नहीं हुआ लेकिन वह हमेशा दबे रहे. न तो उनकी आवाज़ किसी ने उठाई और न ही वह इतने सक्षम हो पाए कि अपनी आवाज़ खुद उठा पाएं.
नवानी उत्तराखंड के दलितों की एक और विडंबना बताते हैं. दलित समाज में से जो भी संपन्न या सक्षम होता है वह गांव छोड़ देता है. वह शहर में रहने लगता है और ठाकुर, ब्राह्मण के जातिसूचक उपनामों का इस्तेमाल कर देता है. इस तरह वह अपने समाज से संबंध तोड़ लेता है क्योंकि उच्च वर्ग में शामिल होने की उसकी आकांक्षा रहती है. यह भी बड़ी वजह है कि यहां वर्ग संघर्ष नहीं होता और दलित चेतना विकसित नहीं हुई.